भीष्म का द्रोण को सम्मानपूर्वक रखना

महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 130 के अनुसार भीष्म का द्रोण को सम्मानपूर्वक रखने की कथा का वर्णन इस प्रकार है।[1]-

राजकुमारों द्वारा भीष्म की द्रोणाचार्य से भेंट

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! कुमारों के इस प्रकार पूछने पर द्रोण ने उनसे कहा। द्रोण बोले- तुम सब लोग भीष्‍मजी के पास जाकर मेरे रूप और गुणों का परिचय दो। वे महा तेजस्‍वी भीष्‍मजी ही मुझे इस समय पहचान सकते हैं। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर वे कुमार भीष्‍मजी के पास गये और ब्राह्मण की सच्ची बातों तथा उनके उस अद्भुत पराक्रम को भी उन्‍होंने भीष्‍मजी से कह सुनाया। कुमारों की बातें सुनकर भीष्‍मजी समझ गये कि वे आचार्य द्रोण हैं। फिर यह सोचकर कि द्रोणाचार्य ही इन कुमारों के उपयुक्त गुरु हो सकते हैं, भीष्‍मजी स्‍वयं ही आकर उन्‍हें सत्‍कार पूर्वक घर ले गये।[1]

द्रोण का भीष्म को अपनी और द्रुपद की मित्रता से अवगत कराना

वहाँ शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ भीष्‍मजी ने बड़ी बुद्धिमता के याथ द्रोणाचार्य से उनके आगमन का कारण पूछा और द्रोण ने वह सब कारण इस प्रकार निवेदन किया। द्रोणाचार्य ने कहा- अपनी प्रतिज्ञा से कभी च्‍युत न होने वाले भीष्‍मजी! पहले की बात है, मैं अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा तथा धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त करने के लिये महर्षि अग्निवेश के समीप गया था। वहाँ मैं विनीत हृदय से ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए सिर पर जटा धारण किये बहुत वर्षों तक रहा। गुरु की सेवा में निरन्‍तर संलग्न रहकर मैंने दीर्घ काल तक उनके आश्रम में निवास किया। उन दिनों पाञ्चाल राजकुमार महाबली यज्ञसेन द्रुपद भी, जो बड़े शक्तिशाली थे, धनुर्वेद की शिक्षा पाने के लिये उन्‍हीं गुरुदेव अग्निवेश के समीप रहते थे। वे उस गुरुकुल में मेरे बड़े ही उपकारी और प्रिय मित्र थे। प्रभो! उनके साथ मिलजुल कर मैं बहुत दिनों तक आश्रम में रहा। बचपन से ही हम दोनों का अध्‍ययन साथ-साथ चलता था। द्रुपद वहाँ मेरे घनिष्ठ मित्र थे वे सदां मुझसे प्रिय वचन बोलते और मेरा प्रिय कार्य करते थे। भीष्‍मजी! वे एक दिन मुझसे मेरी प्रसन्नता को बढ़ाने वाली यह बात बोले- ‘द्रोण! मैं अपने महात्‍मा पिता का अत्‍यन्‍त प्रिय पुत्र हूँ। ‘तात! जब पाञ्चाल नरेश मुझे राज्‍य पर अभिषिक्त करेंगे, उस समय मेरा राज्‍य तुम्‍हारे उपभोग में आयेगा। सखे! मैं सत्‍य की सौगन्‍ध खाकर कहता हूं- मेरे भोग, वैभव और सुख सब तुम्‍हारे अधीन होंगे।’ यों कहकर वे अस्त्र विद्या में निपुण हो मुझसे सम्‍मानित होकर अपने देश को लौट गये। उनकी उस समय कही हुई इस बात को मैं अपने मन में सदा याद रखता था।[1]

द्रोण का भीष्म को विवाह व अपनी निर्धनता के बारे में बताना

कुछ दिनों के बाद पितरों की प्रेरणा से मैंने पुत्र प्राप्ति के लोभ से परम बुद्धिमति, महान् व्रत का पालन करने वाली, अग्निहोत्र, सत्र तथा सम-दम के पालन में मेरे साथ सदा संलग्‍न रहने वाली शरद्वान् की पुत्री यशस्विनी कृपी से, जिसके केश बहुत बड़े नहीं थे, विवाह किया। उस गौतमी कृपी ने मुझसे मेरे औरस पुत्र अश्वत्‍थामा को प्राप्त किया जो सूर्य के समान तेजवी तथा भयंकर पराक्रम एवं पुरुषार्थ करने वाला है। उस पुत्र से मुझे उतनी ही प्रसन्नता हुई, जितनी मुझसे मेरे पिता भरद्वाज को हुई थी। एक दिन की बात है, गोधन के धनी ऋषि कुमार गाय का दूध पी रहे थे। उन्‍हें देखकर मेरा छोटा बच्‍चा अश्‍वत्‍थामा भी बाल-स्‍वभाव के कारण दूध पीने के लिये मचल उठा और रोने लगा। इसमें मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया- मुझे दिशाओं के पहचानने में भी संशय होने लगा।[1] मैंने मन-ही-मन सोचा, यदि मैं किसी कम गाय वाले ब्राह्मण से गाय मांगता हूँ तो कहीं ऐसा न हो कि वह अपने अग्निहोत्र आदि कर्मों में लगा हुआ स्‍नातक गौदुग्‍ध के बिना कष्ट में पड़ जाये; अत: जिसके पास बहुत-सी गौऐं हों, उसी से धर्मानुकूल विशुद्ध दान लेने की इच्‍छा रखकर मैंने उस देश में कई बार भ्रमण किया। गंगानन्‍दन! एक देश से दूसरे देश में घूमने पर भी मुझे दूध देने वाली गाय न मिल सकी। मैं लौटकर आया तो देखता हूँ कि छोटे-छोटे बालक आटे के पानी से अश्‍वत्‍थामा को ललचा रहे हैं और वह अज्ञान मोहित बालक उस आटे के जल को ही पीकर मारे हर्ष के फूला नहीं समाता तथा यह कहता हुआ उठकर नाच रहा है कि ‘मैंने दूध पी लिया’। कुरुनन्‍दन! बालकों से घिरे हुए अपने पुत्र को इस प्रकार नाचते और उसकी हंसी उड़ायी जाती देख मेरे मन में बड़ा क्षोभ हुआ। उस समय कुछ लोग इस प्रकार कह रहे थे, ‘इस धनहीन द्रोण को धिक्‍कार है, जो धन का उपार्जन नहीं करता’। ‘जिसका बेटा दूध की लालसा से आटा मिला हुआ जल पीकर आनन्‍दमग्न हो यह कहता हुआ नाच रहा है कि ‘मैंने भी दूध पी लिया।’ इस प्रकार की बातें करने वाले लोगों की आवाज मेरे कानों में पड़ी तो मेरी बुद्धि स्थिर न रह सकी। मैं स्‍वयं ही अपने आप की निन्‍दा करता हुआ मन-ही-मन इस प्रकार सोचने लगा- ‘मुझे दरिद्र जानकर पहले से ही ब्राह्मणों ने मेरा साथ छोड़ दिया। मैं धनाभाव के कारण निन्दित होकर उपवास भले ही कर लूंगा, परंतु धन के लोभ से दूसरों की सेवा, जो अत्‍यन्‍त पाप पूर्ण कर्म है, कदापि नहीं कर सकता’।[2]-

द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमान के विषय में भीष्म को बताना

भीष्‍मजी! ऐसा निश्चय करके मैं अपने प्रिय पुत्र और पत्नी को साथ लेकर पहले के स्‍नेह और अनुराग के कारण राजा द्रुपद के यहाँ गया। मैंने सुन रक्‍खा था कि द्रुपद का राज्‍यभिषेक हो चुका है, अत: मैं मन-ही-मन अपने को कृतार्थ मानने लगा और बड़ी प्रसन्नता के साथ राज सिंहासन पर बैठे हुए अपने प्रिय सखा के समीप गया। उस समय मुझे द्रुपद की मैत्री और उनकी कही हुई पूर्वोक्त बातों का बारंबार स्‍मरण हो आता था। तदनन्‍तर अपने पहले के सखा द्रुपद के पास पहुँचकर मैंने कहा- ‘नरश्रेष्ठ! मुझ अपने मित्र को पहचानो तो सही।’ प्रभो! मैं द्रुपद के पास पहुँचने पर उनसे मित्र की ही भाँति मिला। परंतु द्रुपद ने मुझे नीच मनुष्‍य के समान समझकर उपहास करते हुए इस प्रकार कहा- ‘ब्राह्मण! तुम्‍हारी बुद्धि अत्‍यन्‍त असंगत एवं अशुद्ध है। ‘तभी तो तुम मुझसे यह कहने की धृष्टता कर रहे हो कि ‘राजन्! मैं तुम्‍हारा सखा हूं?’ समय के अनुसार मनुष्‍य ज्‍यों–ज्‍यों बूढा़ होता है, त्‍यों-त्‍यों उसकी मैत्री भी क्षीण होती चली जाती है। पहले तुम्‍हारे साथ मेरी जो मित्रता थी, वह सामर्थ्‍य को लेकर थी- उस समय हम दोनों की शक्ति समान थी (किंतु अब वैसी बात नहीं है)। जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रिय (वेदवेत्ता) का, जो रथी नहीं है, वह रथी का सखा नहीं हो सकता।[2] सब बातों में समानता होने से ही मित्रता होती है। विषमता होने पर मैत्री का होना असम्‍भव है। फिर लोक में कभी किसी की मैत्री अजर-अमर नहीं होती। “समय एक मित्र को दूसरे से विलग कर देता है अथवा क्रोध मनुष्‍य को हटा देता है। इस प्रकार क्षीण हाने वाली मैत्री ही उपासना (भरोसा) न करो। हम दोनों एक दूसरे के मित्र थे, इस भाव को हृदय से निकाल दो। ‘द्विजश्रेष्ठ! तुम्‍हारे साथ पहले जो मेरी मित्रता थी, वह ( साथ-साथ खेलने और अध्‍ययन करने आदि ) स्‍वार्थ को लेकर हुई थी। सच्ची बात यह है कि दरिद्र मनुष्‍य धनवान् का, मूर्ख विद्वान् का और कायर शूरवीर का सखा नहीं हो सकता; अत: पहले की मित्रता का क्‍या भरोसा करते हो? मन्‍दमते! बड़े-बड़े राजाओं की तुम्‍हारे जैसे श्रीहीन और निर्धन मनुष्‍यों के साथ कभी मित्रता हो सकती है? जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रिय का, जो रथी नहीं है, वह रथी का तथा जो राजा नहीं है, वह राजा का मित्र नहीं हो सकता। फिर तुम मुझे जीर्ण-शीर्ण मित्रता का स्‍मरण क्‍यों दिलाते हो? मैंने अपने राज्‍य के लिये तुमसे कोई प्रतिज्ञा की थी, इसका मुझे कुछ भी स्‍मरण नहीं है। ‘ब्रह्मन्! तुम्‍हारी इच्‍छा हो तो मैं तुम्‍हें एक रात के लिये अच्‍छी तरह भोजन दे सकता हूँ।’ राजा द्रुपद के यों कहने पर मैं पत्नी और पुत्र के साथ वहाँ से चल दिया। चलते समय मैंने एक प्रतिज्ञा की थी, जिसे शीघ्र पूर्ण करूंगा। द्रुपद के द्वारा जो इस प्रकार तिरस्‍कार पूर्ण वचन मेरे प्रति कहा गया है, उसके कारण मैं क्षोभ से अत्‍यन्‍त व्‍याकुल हो रहा हूँ।[3]-

भीष्म का द्रोण से राजकुमारों को शिक्षा का आग्रह

भीष्‍मजी! मैं गुणवान् शिष्‍यों के द्वारा अभीष्ट की सिद्धि चाहता हुआ आपके मनोरथ को पूर्ण करने के लिये पंचाल देश के कुरुराज्‍य के भीतर इस रमणीय हस्तिनापुर नगर में आया हूँ। बताइये, मैं आपका कौन-सा प्रिय कार्य करूं?। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- द्रोणार्चाय के यों कहने पर भीष्‍म ने उनसे कहा-। भीष्‍मजी बोले- विप्रवर! अब आप अपने धनुष की डोरी उतार दीजिये और यहाँ रहकर राजकुमारों को धनुर्वेद एवं अस्त्र-शस्त्रों की अच्‍छी शिक्षा दीजिये। कौरवों के घर में सदा सम्‍मानित रहकर अत्‍यन्‍त प्रसन्नता के साथ मनोवाञ्छित भोगों का उपभोग कीजिये। कौरवों के पास जो धन, राज्‍य-वैभव तथा राष्ट्र है, उसके आप ही सबसे बड़े राजा हैं। समस्‍त कौरव आपके अधीन हैं।। ब्रह्मन्! आपने जो मांग की है, उसे पूर्ण हुई समझिये। ब्रह्मर्षे! आप आये, यह हमारे लिये सौभाग्‍य की बात है। आपने यहाँ पधारकर मुझ पर महान् अनुग्रह किया है।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 महाभारत आदि पर्व अध्याय 130 श्लोक 35-51
  2. 2.0 2.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 130 श्लोक 52-66
  3. 3.0 3.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 130 श्लोक 52-66

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
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वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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