राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना

महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 133 के अनुसार राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना की कथा का वर्णन इस प्रकार है।[1]-

द्रोण का राजकुमारों की पूर्ण शिक्षा का समाचार धृतराष्ट्र को देना

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- भारत! जब द्रोण ने देख कि धृतराष्ट्र के पुत्र तथा पाण्‍डव अस्त्र-विद्या की शिक्षा समाप्त कर चुके, तब उन्‍होंने कृपाचार्य, सोमदत्त, बुद्धिमान् बाह्रीक, गंगानन्‍दन भीष्‍म, महर्षि व्‍यास तथा विदुरजी के निकट राजा धृतराष्ट्र से कहा-। ‘राजन्! आपके कुमार अस्त्र-विद्या की शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं। कुरुश्रेष्ठ! यदि आपकी अनुमति हो तो वे अपनी सीखी हुई अस्त्र संचालन की कला का प्रदर्शन करें’। यह सुनकर महाराज धृतराष्ट्र अत्‍यन्‍त प्रसन्न चित्त से बोले। धृतराष्ट्र ने कहा- द्विजश्रेष्ठ भरद्वाजनन्‍दन! आपने (राजकुमारों को अस्त्र की शिक्षा देकर) बहुत बड़ा कार्य किया है। आप कुमारों की अस्त्र-शिक्षा के प्रदर्शन के लिये जब जो समय ठीक समझें, जिस स्‍थान पर जिस-जिस प्रकार का प्रबन्‍ध आवश्‍यक मानें, उस-उस तरह की तैयारी करने के लिये स्‍वयं ही मुझे आज्ञा दें। आज मैं नेत्रहीन होने के कारण दुखी होकर, जिनके पास आंखें हैं, उन मनुष्‍यों के सुख और सौभाग्‍य को पाने के लिये तरस रहा हूं; क्‍योंकि वे अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन करने के लिये भाँति-भाँति के पराक्रम करने वाले मेरे पुत्रों को देखेंगे। (आचार्य से इतना कहकर राजा धृतराष्ट्र विुदर से बोले-) ‘धर्मवत्‍सल! विदुर! गुरु द्रोणाचार्य जो काम जैसे कहते हैं, उसी प्रकार उसे करो। मेरी राय में इसके समान प्रिय कार्य दूसरा नहीं होगा’।[1]

द्रोण और विदुर द्वारा अस्त्र विद्या प्रदर्शन भूमि का चयन व पूजा

तदनन्‍तर राजा की आज्ञा लेकर विदुरजी (आचार्य द्रोण के साथ) बाहर निकले। महा बुद्धिमान् भरद्वाजनन्‍दन द्रोण ने रंगमण्‍डप के लिये एक भूमि पसंद की और उसका माप करवाया। वह भूमि समतल थी।उसमें वृक्ष या झाड़-झंखाड़ नहीं थे। वह उत्तर दिशा की ओर नीची थी। बक्ताओं में श्रेष्ठ द्रोण ने वास्‍तु पूजन देखने के लिये डिण्डिम- घोष कराके वीर समुदाय को आमन्त्रित किया और उत्तम नक्षत्र से युक्त तिथि में उस भूमि पर वास्‍तु पूजन किया।[1]

प्रेक्षागृह में सभी प्रबन्ध व सजावट

तत्‍पश्चात् उनके शिल्पियों ने उस रंगभूमि में वास्‍तु–शास्त्र के अनुसार विविधपूर्वक एक अति विशाल प्रेक्षागृह की नींव डाली तथा राजा और राजघराने की स्त्रियों के बैठने के लिये वहाँ सब प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सम्‍पन्न बहुत सुन्‍दर भवन बनाया। जनपद् के लोगों ने अपने बैठने के लिये वहाँ ऊंचे और विशाल मञ्च बनवाये तथा (स्त्रियों को लाने के लिये) बहुमूल्‍य शिबिकाऐं तैयार करायीं। तत्‍पश्चात् जब निश्चित दिन आया, तब मन्त्रियों सहित राजा धृतराष्ट्र भीष्‍मजी तथा आचार्य प्रवर कृप को आगे करके बाह्रीक, सोमदत्त, भूरिश्रवा तथा अन्‍यान्‍य कौरवों और मन्त्रियों को साथ ले नगर से बाहर उस दिव्‍य प्रेक्षागृह में आये। उसमें मोतियों की झालरें लगी थीं, वैदूर्य मणियों से उस भवन को सजाया गया था तथा दीवारों में स्‍वर्ण खण्‍ड मढ़े गये थे। विजयी धीरों में श्रेष्ठ जनमेजय! परम सौभाग्‍यशालिनी गान्‍धारी, कुन्‍ती तथा राजभवन की सभी स्त्रियां वस्त्राभूषणों से सज-धजकर दास-दासियों और आवश्‍यक सामग्रियों के साथ उस भवन में आयीं तथा जैसे देवांगनाऐं मेरु पर्वत पर चढ़ती हैं, उसी प्रकार वे हर्षपूर्वक मञ्चों पर चढ़ गयीं। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चारों वर्णों के लोग कुमारों का अस्त्र-कौशल देखने की इच्‍छा से तुरंत नगर से निकलकर आ गये। क्षणभर में वहाँ विशाल जनसमुदाय एकत्र हो गया। अनेक प्रकार के बाजों के बजने से तथा मनुष्‍यों के बढ़ते हुए कौतुहल से वह जनसमूह उस समय क्षुब्‍ध महासागर के समान जान पड़ता था।[1]

सभी राजकुमारों व राज्य के सभी लोगों का रंगभूमि में उपस्थित होना

तदनन्‍तर श्‍वेत वस्त्र और श्‍वेत यज्ञोपवीत धारण किये आचार्य द्रोण ने अपने पुत्र अश्‍वत्‍थामा के साथ रंगभूमि में प्रवेश किया; मानो मेघरहित आकाश में चन्‍द्रमा ने मंगल के साथ पदार्पण किया हो। अचार्य के सिर और दाढ़ी-मूंछ के बाल सफेद हो गये थे। वे श्‍वेत पुष्‍पों की माला और चन्‍दन से सुशोभित हो रहे थे। बलवानों में श्रेष्ठ द्रोण ने यथा समय देव-पूजा की और श्रेष्ठ मन्‍त्रवेत्ता ब्राह्मणों से मंगल पाठ कराया। उस समय राजा धृतराष्ट्र ने सुवर्ण, मणि, रत्न तथा नाना प्रकार के वस्त्र आचार्य द्रोण और कृप को दक्षिणा के रूप में दिये। फि‍र सुखमय पुण्‍य वाचन तथा दान-होम आदि पुण्‍यकर्मों के अनन्‍तर नाना प्रकार की शस्त्र-सामग्री लेकर बहुत-से मनुष्‍यों ने उस रंगमण्‍डप में प्रवेश किया। उसके बाद भरतवंशियों में श्रेष्ठ वीर राजकुमार बड़े-बड़े रथों के साथ दस्‍ताने पहने, कमर कसे, पीठ पर तूणीर बांधे और धनुष लिये उस रंगमण्‍डप के भीतर आये। नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर आदि उन राजकुमारों ने जेठे-छोटे के क्रम से स्थित हो उस रंगभूमि के मध्‍य भाग में बैठे हुए आचार्य द्रोण को प्रणाम करके द्रोण और कृप दोनों आचार्यों की यथोचित पूजा की। फि‍र उनसे आर्शीवाद पाकर उन सबका मन प्रसन्न हो गया। तत्‍पश्चात् पूजा के पुष्‍पों से आच्‍छादित अस्त्र-शस्त्रों को प्रणाम करके कौरवों ने रक्त चन्‍दन और फलों द्वारा पुन: स्‍वयं उनका पूजन किया वे सब-के-सब लाल चन्‍दन से चर्चित तथा लाल रंग की मालाओं से विभूषित थे। सब के रथों पर लाल रंग की पताकाऐं थीं। सभी के नेत्रों के कोने लाल रंग के थे।[2]-

द्रोण की आज्ञा से सभी राजकुमारों द्वारा अस्त्र विद्या का प्रदर्शन

तदनन्‍तर तपाये हुए स्‍वर्ण के आभूषणों से विभूषित एवं शत्रुओं को संताप देने वाले कौरव-राजकुमारों ने आचार्य की द्रोण की आज्ञा पाकर पहले अपने अस्त्र एवं धनुष लेकर डोरी चढ़ायी और उस पर भाँति-भाँति की आकृति के बाणों का संधान करके प्रत्‍यञ्चा का टंकार करते और ताल ठोकते हुए समस्‍त प्राणियों का आदर किया। तत्‍पश्चात् वे महापराक्रमी राजकुमार वहाँ परम अद्भुत अस्त्र-कौशल प्रकट करने लगे। कितने ही मनुष्‍य बाण लग जाने के डर से अपना मस्‍तक झुका देते थे। दूसरे लोग अत्‍यन्‍त विस्मित होकर बिना किसी भय के सब कुछ देखते थे। वे राजकुमार घोड़ों पर सबार हो अपने नाम के अक्षरों से सुशोभित और बड़ी फुर्ती के साथ छोड़े हुए नाना प्रकार के बाणों द्वारा शीघ्रतापूर्वक लक्ष्‍य भेद करने लगे। धनुष-बाण लिये राजकुमारों के उस समुदाय को गन्‍धर्व नगर के समान अद्भुत देख वहाँ समस्‍त दर्शक आश्चर्यकित हो गये। जनमेजय! सैकड़ों और हजारों की संख्‍या में एक-एक जगह बैठे हुए लोग आश्चर्यकित नेत्रों से देखते हुए सहसा ‘साधु-साधु’ (वाह-वाह)’ कहकर कोलाहल मचा देते थे। उन महाबली राजकुमारों ने पहले धनुष-बाण के पैतरे दिखाये। तदनन्‍तर रथ –संचालन के विविध मार्गो (शीघ्र ले जाना,लौटा लाना, दायें, बाऐं और मण्‍डलाकार चलाना आदि) का अवलोकन कराया। फि‍र कुस्‍ती लड़ने तथा हाथी और घोड़े की पीठ पर बैठकर युद्ध करने की चातुरी का परिचय दिया। इसके बाद वे ढा़ल और तलवार लेकर एक-दूसरे पर प्रहार करते हुए खड्ग चलाने के शास्त्रोक्त मार्ग ( ऊपर-नीचे ) और अगल-बगल में घुमाने की कला) का प्रदर्शन करने लगे। उन्‍होंने रथ, हाथी, घोड़े और भूमि- इन सभी भूमियों पर यह युद्ध-कौशल दिखाया।[2]
दर्शकों ने उन सब-के ढ़ाल-तलवार के प्रयोगों को देखा। उस कला में उनकी फुर्ती, चतुरता, शोभा, स्थिरत और मुट्ठी की दृढता का अवलोकन किया। तदनन्‍तर सदा एक-दूसरे को जीतने का उत्‍साह रखने वाले दुर्योधन और भीमसेन हाथ में गदा लिये रंगभूमि में उतरे। उस समय वे एक-एम शिखर वाले दो पर्वतों की भाँति शोभा पा रहे थे। वे दोनों महाबाहु कमर कसकर पुरुषार्थ दिखाने के लिये आमने-सामने डटकर खड़े थे और गर्जना कर रहे थे, मानो दो मतवाले गजराज किसी हथिनी के लिये एक-दूसरे से भिड़ना चाहते और चिंघाड़ते हों। वे दोनों महाबली युद्धा अपनी-अपनी गदा को दायें-बायें मण्‍डलाकार घुमाते हुए मदोन्‍नमत्त हाथियों की भाँति मण्‍डल के भीतर विचरने लगे। विदुर धृतराष्ट्र को और पाण्‍डव जननी कुन्‍ती गान्‍धारी को उन राजकुमारों की सारी चेष्टाऐं बताती जाती थी।[3]



टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 महाभारत आदि पर्व अध्याय 133 श्लोक 1-18
  2. 2.0 2.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 133 श्लोक 19-30
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 133 श्लोक 31-35

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
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चैत्ररथ पर्व
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स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
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पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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