वसिष्ठ द्वारा वसुओं को शाप प्राप्त होने की कथा

जब गंगा अपने गर्भ से जन्में सभी वसुओं को एक-एक कर नदी में डूबो देती है तब शान्तनु उससे कहते है, कि तुम कैसी माँ हो? अपने पुत्रों की निर्मम हत्या क्यों कर रही हो? मैं तुमको अब ऐसा नही करने दुगाँ। ऐसा कहते ही गंगा उस आठवें पुत्र को शान्तनु को देकर शर्त के अनुसार वहाँ से विदा लेने की कहती है तब शान्तनु गंगा से वसुओं की हत्या का कारण पुछते है तब गंगा शान्तनु को वसुओं के शाप की कथा सुनाती है। जिसका उल्लेख महाभारत आदिपर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 99 में निम्न प्रकार से हुआ है।[1] शान्‍तनु ने पूछा- देवि! ये आपव नाम के महात्‍मा कौन हैं? और वसुओं का क्‍या अपराध था, जिससे आपव के शाप से उन सबको मनुष्‍य-योनि में आना पड़ा। और तुम्‍हारे दिये हुए इस पुत्र ने कौन-सा कर्म किया है, जिसके कारण यह मनुष्‍य लोक में निवास करेगा। जाह्रवि! वसु तो समस्‍त लोकों के अधीश्वर हैं, वे कैसे मनुष्‍य लोक में उत्‍पन्न हुए? यह सब बात मुझे बताओ।

शाप कथा

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- नरश्रेष्ठ जनमेजय! अपने पति राजा शान्‍तनु के इस प्रकार पूछने पर जह्र-पुत्री गंगा देवी ने उनसे इस प्रकार कहा। गंगा बोली- भरतश्रेष्ठ! पूर्वकाल में वरुण ने जिन्‍हें पुत्ररुप में प्राप्त किया था, वे वसिष्ठ नामक मुनि ही ‘आपव’ नाम से विख्‍यात हैं। गिरिराज मेरु के पार्श्‍वभाग में उनका पवित्र आश्रम है; जो मृग और पक्षियों से भरा रहता है। सभी ॠतुओं में विकसित होने वाले फूल उस आश्रम की शोभा बढ़ाते हैं। भरतवंश शिरोमणे! उस वन में स्‍वादिष्ठ फल, मूल और जल की सुविधा थी, पुण्‍यवानों में श्रेष्ठ वरुणनन्‍दन महर्षि वसिष्ठ उसी में तपस्‍या करते थे। महाराज! दक्ष प्रजापति की पुत्री ने, जो देवी सुरभि नाम से विख्‍यात है, कश्‍यपजी के सहवास से एक गौ को जन्‍म दिया। वह गौ सम्‍पूर्ण जगत् पर अनुग्रह करने के लिये प्रकट हुई थी तथा समस्‍त कामनाओं को देने वालों में श्रेष्ठ थी। वरुण पुत्र धर्मात्‍मा वसिष्ठ ने उस गौ को अपनी होमधेनू के रूप में प्राप्त किया। वह गौ मुनियों द्वारा सेवित उस पवित्र एवं रमणीय तापस वन में रहती हुई सब ओर निर्भय होकर चरती थी। भरतश्रेष्ठ! एक दिन देवर्षि सेवित वन में पृथु आदि वसु तथा सम्‍पूर्ण देवता पधारे। वे अपनी स्त्रियों के साथ उपवन में चारों ओर विचरने तथा रमणीय पर्ततों और वनों में रमण करने लगे। इन्‍द्र के समान पराक्रमी महीपाल! उन वसुओं में से एक की सुन्‍दरी पत्नी ने उस वन घूमते समय उस गौ को देखा। राजेन्‍द्र! सम्‍पूर्ण कामनाओं को देने वालों में उत्तम नन्दिनी नाम वाली उस गाय को देखकर उसकी शील सम्‍पत्ति से वह वसु पत्नी आश्चर्यचकित हो उठी। वृषभ के समान विशाल नेत्रों वाले महाराज! उस देवी ने द्यो नामक वसु को वह शुभ गाय दिखायी, जो भली-भाँति हृष्ट-पुष्ट थी। दूध से भरे हुए उसके थन बड़े सुन्‍दर थे, पूंछ और खुर भी बहुत अच्‍छे थे। वह सुन्‍दर गाय सभी सद्गुणों से सम्‍पन्न और सर्वोत्तम शील-स्‍वाभावस से युक्त थी। पूरुवंश का आनन्‍द बढ़ाने वाले सम्राट! इस प्रकार पूर्वकाल में वसु का आनन्‍द बढ़ाने वाली देवी ने अपने पति वसु को ऐसे सद्गुणों वाली गौ का दर्शन कराया। गजराज के समान पराक्रमी महाराज! द्यो ने उस गाय को देखते ही उसके रुप और गुणों का वर्णन करते हुए अपनी पत्नी से कहा- ‘यह कजरारे नेत्रों वाली उत्तम गौ दिव्‍य है। वरारोहे! यह उन वरुणनन्‍दन महर्षि वसिष्ठ की गाय है, जिनका यह उत्तम तपोवन है। सुमध्‍यमे! जो मनुष्‍य इसका स्‍वादिष्ठ दूध पी लेगा, वह दस हजार वर्षों तक जीवित रहेगा और उतने समय तक उसकी युवावस्‍था स्थिर रहेगी।’ नृपश्रेष्ठ! सुन्‍दर कटि-प्रदेश और निर्दोष अंगों वाली यह देवी यह बात सुनकर अपने तेजस्‍वी पति से बोली- ‘प्राणनाथ! मनुष्य लोक में एक राजकुमारी मेरी सखी है।[1]
उसका नाम है जितवती। वह सुन्‍दर रुप और युवावस्‍था से सुशोभित है। सत्‍यप्रतिज्ञ बुद्धिमान् राजर्षि उशीनर की पुत्री है। रुप सम्‍पत्ति की दृष्टि से मनुष्‍यलोक में उसकी बड़ी ख्‍याति है। महाभाग! उसी के लिये बछड़े सहित यह गाय लेने की मेरी बड़ी इच्‍छा है। ‘सुरश्रेष्ठ! आप पुण्‍यकी वृद्धि करने वाले हैं। इस गाय को शीघ्र ले आइये। मानद! जिससे इसका दूध पीकर मेरी यह सखी मनुष्‍यलोक में अकेली ही जरावस्‍था एवं रोग-व्‍याधि से बची रहे। महाभाग! आप निन्‍दा रहित हैं; मेरे इस मनोरथ को पूर्ण कीजिये। ‘मेरे लिये किसी तरह भी इससे बढ़कर प्रिय अथवा प्रियतर वस्‍तु दूसरी नहीं है। ‘उस देवी यह वचन सुनकर उसका प्रिय करने की इच्‍छा से द्यो नामक वसु ने पृथु आदि अपने भाइयों की सहायता से उस गौ का अपहरण कर लिया। राजन्! कमलदल के समान विशाल नेत्रों वाली पत्नी से प्रेरित होकर द्यो ने गौ का अपहरण तो कर लिया; परंतु उस समय उन महर्षि वसिष्ठ की तीव्र तपस्‍या के प्रभाव की ओर वे दृष्टिपात नहीं कर सके और न यही सोच सके कि ऋषि के कोप से मेरा स्‍वर्ग से पतन हो जायगा। कुछ समय बाद वरुणनन्‍दन वसिष्ठजी फल-मूल लेकर आश्रम पर आये; परंतु उस सुन्‍दर कानन में उन्‍हें बछड़े सहित अपनी गाय नहीं दिखायी दी। तब तपोधन वसिष्ठजी उस वन में गाय की खोज करने लगे; परंतु खो जाने पर भी वे उदार बुद्धि महर्षि उस गाय को न पा सके। तब उन्‍होंने दिव्‍य दृष्टि से देखा और यह जान गये कि वसुओं ने उसका अपहरण किया है। फि‍र तो वे क्रोध के वशीभूत हो गये और तत्‍काल वसुओं को शाप दे दिया-‘वसुओं ने सुन्‍दर पूंछवाली मेरी कामधेनु गाय का अपहरण किया है, इसलिये वे सब-के-सब मनुष्‍य–योनि में जन्‍म लेंगे, इसमें संशय नहीं है’। भरतर्षभ! इस प्रकार मुनिवर भगवान् वसिष्ठ ने क्रोध के आवेश में आकर उन वसुओं को शाप दिया। उन्‍हें शाप देकरउन महाभाग महर्षि ने फि‍र तपस्‍या में ही मन लगाया। राजन्! तपस्‍या के धनी महर्षि वसिष्ठ का प्रभाव बहुत बड़ा है। इसीलिये उन्‍होंने क्रोध में भरकर देवात होने पर भी उन आठों वसुओं को शाप दे दिया। तदनन्‍तर हमें शाप मिला है, यह जानकर वे वसु पुन: महामना वसिष्ठ के आश्रम पर आये और उन महर्षि को प्रसन्न करने कीचेष्टा करने लगे। नृपश्रेष्ठ! महर्षि आपव समस्‍त धर्मों के ज्ञान में निपुण थे। महाराज! उनको प्रसन्न करने की पूरी चेष्टा करने पर भी वे वसु उन मुनिश्रेष्ठ से उनका कृपा प्रसाद न पा सके। उस समय धर्मात्‍मा वसिष्ठ ने उनसे कहा- ‘मैंने धर आदि तुम सभी वसुओं को शाप दे दिया है; परंतु तुम लोग तो प्रति वर्ष एक-एक करके सब-के-सब शाप से मुक्त हो जाओगे। ‘किंतु यह द्यो, जिसके कारण तुम सबको शाप मिला है, मनुष्‍यलोक में अपने कर्मानुसार दीर्घकाल तक निवास करेगा। ‘मैंने क्रोध में आकर तुम लोगों से जो कुछ कहा है, उसे असत्‍य करना नहीं चाहता। ये महामना जो मनुष्‍यलोक में संतान की उत्‍पत्ति नहीं करेंगे। ‘और धर्मात्‍मा तथा सब शास्त्रों में निपुण विद्वान् होंगे; पिता के प्रिय एवं हित में तत्‍पर रहकर स्त्री-सम्‍बन्‍धी भोगों का परित्‍याग कर देंगे’।[2]
उन सब वसुओं से ऐसी बात कहकर वे महर्षि वहाँ से चल दिये। तब वे सब वसु एकत्र होकर मेरे पास आये। राजन्! उस समय उन्‍होंने मुझसे चायन की और मैंने उसे पूर्ण किया। उनकी याचना इस प्रकार थी- ‘गंगे! हम ज्‍यों–ज्‍यों जन्‍म लें, तूम स्‍वयं हमें अपने जल डाल देना’। राजशिरोमणे! इस प्रकार उन शापग्रस्‍त वसुओं को इस मनुष्‍यलोक से मुक्त करने के लिये मैंने यथावत् प्रयत्न किया है। भारत! नृपश्रेष्ठ! यह एकमात्र द्यो ही महर्षि शाप से दीर्घकाल तक मनुष्‍यलोक में निवास करेगा। राजन्! यह पुत्र देवव्रत और गंगादत्त – नामों से विख्‍यात होगा। आपका बालक गुणों में आपसे भी बढ़कर होगा। ( अच्‍छा, अब जाती हूँ ) आपका यह पुत्र अभी शिशु-अवस्‍था में है। बड़ा होने पर फि‍र आपके पास आ जायगा और आप जब मुझे बुलायेंगे तभी मैं आपके सामने उपस्थित हो जाऊंगी। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! यह सब बातें बता कर गंगादेवी उस नवजात शिशु को साथ ले वहीं अन्‍तर्धान हो गयीं और अपने अभीष्ट स्‍थान को चली गयीं। उस बालक का नाम हुआ देवव्रत। कुछ लोग गांगेय भी कहते थे। द्यु नाम वाले वसु शान्‍तनु के पुत्र होकर गुणों में उनसे भी बढ़ गये। इधर शान्‍तनु शोक से आतुर हो पुन: अपने नगर को लौट गये। शान्‍तनु ने उत्तम गुणों का मैं आगे चलकर वर्णन करूंगा। उन भरतवंशी महात्‍मा नरेश के महान् सौभाग्‍य का भी मैं वर्णन करूंगा, जिनका उज्ज्वल इतिहास ‘महाभारत’ नाम से विख्‍यात है।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 99 श्लोक 1-21
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 99 श्लोक 22-41
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 99 श्लोक 42-49

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विदुर की उत्पत्ति | महर्षि माण्डव्य का शूली पर चढ़ाया जाना | माण्डव्य का धर्मराज को शाप देना | कुरुदेश की सर्वागीण उन्नति का दिग्दर्शन | धृतराष्ट्र का विवाह | कुन्ती को दुर्वासा से मंत्र की प्राप्ति | कुन्ती द्वारा सूर्यदेव का आवाहन एवं कर्ण का जन्म | कर्ण द्वारा इन्द्र को कवच-कुण्डलों का दान | कुन्ती द्वारा स्वयंवर में पाण्डु का वरण एवं विवाह | माद्री के साथ पाण्डु का विवाह | पाण्डु का पत्नियों सहित वन में निवास | विदुर का विवाह | धृतराष्ट्र के गांधारी से सौ पुत्र और एक पुत्री की उत्पत्ति | धृतराष्ट्र को सेवा करने वाली वैश्य जातीय युवती से युयुत्सु की प्राप्ति | दु:शला के जन्म की कथा | धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों की नामावली | पाण्डु द्वारा मृगरूप धारी मुनि का वध | पाण्डु का अनुताप, संन्यास लेने का निश्चय | पाण्डु का पत्नियों के अनुरोध से वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश | पाण्डु का कुन्ती को पुत्र-प्राप्ति का आदेश | कुन्ती का पाण्डु को भद्रा द्वारा पुत्र-प्राप्ति का कथन | पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती का पुत्रोत्पत्ति के लिए धर्मदेवता का आवाहन | युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की उत्पत्ति | नकुल और सहदेव की उत्पत्ति | पाण्डु पुत्रों का नामकरण संस्कार | पाण्डु की मृत्यु और माद्री का चितारोहण | ऋषियों का कुन्ती और पाण्डवों को लेकर हस्तिनापुर जाना | पाण्डु और माद्री की अस्थियों का दाह-संस्कार | पाण्डवों और धृतराष्ट्र पुत्रों की बालक्रीडाएँ | दुर्योधन का भीम को विष खिलाना | भीम का नागलोक में पहुँच आठ कुण्डों का दिव्य रस पान करना | भीम के न आने से कुन्ती की चिन्ता | नागलोक से भीम का आगमन | कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति | द्रोण को परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की प्राप्ति | द्रोण का द्रुपद से तिरस्कृत हो हस्तिनापुर में आना | द्रोण की राजकुमारों से भेंट | भीष्म का द्रोण को सम्मानपूर्वक रखना | द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा | एकलव्य की गुरु-भक्ति | द्रोणाचार्य द्वारा शिष्यों की परीक्षा | अर्जुन द्वारा लक्ष्यवेध | द्रोण का ग्राह से छुटकारा | अर्जुन को ब्रह्मशिर अस्त्र की प्राप्ति | राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना | भीम, दुर्योधन और अर्जुन द्वारा अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन | कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक | भीम द्वारा कर्ण का तिरस्कार और दुर्योधन द्वारा 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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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