- महाभारत आदि पर्व के ‘मय दर्शन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 231 के अनुसार शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देने की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-
विषय सूची
जरिता के पुत्रों का अग्नि से बचने के लिए आपस में संवाद करना
जरितारि बोला - बुद्धिमान् पुरुष संकटकाल आने के पहले ही सजग हो जाता है, वह संकट का समय आ जाने पर कभी व्यथित नहीं होता। जो मूढ़चित्त जीव आने वाले संकट को नहीं जानता, वह संकट के समय व्यथित होने के कारण महान् कल्याण से वञ्चित रह जाता है। ।२।। सारिसृक्क ने कहा - भैया! तुम धीर और बुद्धिमान् हो और हमारे लिये यह प्राणसंकट का समय है (अतः इससे तुम्हीं हमारी रक्षा कर सकते हो); क्योंकि बहुतों में कोई एक ही बुद्धिमान् और शूरवीर होता है, इसमें संशय नहीं है। स्तम्बमित्र बोला - बड़ा भाई पिता के तुल्य है, बड़ा भाई ही संकट से छुड़ाता है। यदि बड़ा भाई ही आने वाले भय और उससे बचने के उपाय को न जाने तो छोटा भाई क्या करेगा ? द्रोण ने कहा - यह जाज्वल्यमान अग्नि हमारे घोंसले की और तीव्र वेग से आ रहा है। इसके मुख में सात जिह्वाएँ हैं और यह क्रूर अग्नि समस्त वृक्षों को चाटता हुआ सब ओर फैल रहा है।[1]
जरिता के पुत्रों का अग्निदेव की स्तुति करना
वैशम्पायन जी कहते है - राजन्! इस प्रकार आपस में बातें करते मन्दपाल के वे पुत्र एकाग्रचित्त हो अग्निदेव की स्तुति करने लगे; वह स्तुति सुनो। जरितारि ने कहा - अग्निदेव! आप वायु के आत्मस्वरूप और वनस्पतियों के शरीर हैं। तृण लता आदि की योनि पृथ्वी और जल तुम्हारे वीर्य हैं, जल की योनि भी तुम्हीं हो। महावीर्य! आपकी ज्वालाएँ सूर्य की किरणों के समान ऊपर-नीचे, आगे-पीछे तथा अगल-बगल सब ओर फैल रही है। सारिसृक्क बोला - धूममयी ध्वजा से सुशोभित अग्निदेव! हमारी माता चली गयी, पिता का भी हमें पता नहीं है और हमारे अभी पंख तक नहीं निकले हैं। हमारा आपके सिवा दूसरा कोई रक्षक नहीं है; अतः आप ही हम बालकों की रक्षा करें। अग्ने! आपका जो कल्याणमय स्वरूप है तथा आपकी जो सात ज्वालाएँ हैं उन सबके द्वारा आप शरण में आने की इच्छा वाले हम आर्त प्राणियों की रक्षा कीजिये। जातवेदा! एकमात्र आप ही सर्वत्र तपते हैं। देव! सूर्य की किरणों में तपने वाले पुरुष भी आपसे भिन्न नहीं है। हव्यवाहन! हम बालक ऋषि हैं; हमारी रक्षा कीजिये। हमसे दूर चले जाइये। स्तम्बमित्र ने कहा - अग्ने! एकमात्र आप ही सबकुछ हैं, यह सम्पूर्ण जगत् आप में ही प्रतिष्ठित है। आप ही प्राणियों का पालन और जगत् को धारण करते हैं। आप ही अग्नि, आप ही हव्य का वहन करने वाले और आप ही उत्तम हविष्य है। मनीषी पुरुष आपको ही अनेक और एकरूप में स्थित जानते हैं। हव्यवाह! आप इन तीनों लोकों की सृष्टि करके प्रलयकाल आने पर पुनः प्रज्वलित हो इन सबका संहार कर देते हैं। अतः अग्ने! आप सम्पूर्ण जगत् के उत्पत्ति स्थान हैं और आप ही इसके लयस्थान भी हैं। द्रोण बोला - जगत्पते! आप ही शरीर के भीतर रहकर प्राणियों द्वारा खाये हुए अन्न को सदा उद्दीप्त होकर पचाते हैं। सम्पूर्ण विश्व आप में ही प्रतिष्ठित है।[1] शुक्लवर्ण वाले सर्वज्ञ अग्निदेव! आप ही सूर्य होकर अपनी किरणों द्वारा पृथ्वी से जल को और सम्पूर्ण पार्थिव रसों को ग्रहण करते हैं तथा पुनः समय आने पर आवश्यकता देखकर वर्षा के द्वारा इस पृथ्वी पर जल रूप में उन सब रसों को प्रस्तुत कर देते हैं। उज्ज्वल वर्ण वाले अग्ने! फिर आपसे ही हरे-हरे पत्तों वाले वनस्पति उत्पन्न होते हैं और आपसे ही पोखरियाँ तथा कल्याणमय महासागर पूर्ण होते हैं। प्रचण्ड किरणों वाले अग्निदेव! हमारा यह शरीर रूप घर रसनेन्द्रियाधिपति वरुण देव का आलम्बन है। आप आज शीतल एवं कल्याणमय बनकर हमारे रक्षक होइये; हमें नष्ट न कीजिये। पिंगल नेत्र तथा लोहित ग्रीवा वाले हुताशन! आप कृष्णवत्र्मा हैं। समुद्र तटवर्ती गृहों की भाँति हमें भी छोड़ दीजिये। दूर से ही निकल जाइये।[2]-
द्रोण की स्तुति से अग्निदेव का प्रसन्न होना
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! ब्रह्मवादी द्रोण के द्वारा इस प्रकार प्रार्थना की जाने पर प्रसन्नचित्त हुए अग्नि ने मन्दपाल से की हुई ‘प्रतिज्ञा का स्मरण करके द्रोण से कहा। अग्नि बोले - जान पड़ता है, तुम द्रोण ऋषि हो; क्योंकि तुमने उस ब्रह्म का ही प्रतिपादन किया है। मैं तुम्हारा अभीष्ट सिद्ध करूँगा, तुम्हें कोई भय नहीं है। मन्दपाल मुनि ने पहले ही मुझसे तुम लोगों के विषय में निवेदन किया था कि ‘आप खाण्डववन का दाह करते समय मेरे पुत्रों को बचा दीजियेगा। द्रोण! तुम्हारे पिता का वह वचन और तुमने यहाँ जो कुछ कहा है, वह भी मेरे लिये गौरव की वस्तु है। बोलो, तुम्हारी और कौन सी इच्छा पूर्ण करूँ ? ब्रह्मन्! साधुशिरोमणे! तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारे इस स्त्रोत से मैं बहुत प्रसन्न हूँ। द्रोण ने कहा - शुक्लस्वरूप अग्ने! ये बिलाव हमें प्रतिदिन उद्विग्न करते रहते हैं। हुताशन! आप इन्हें बन्धु-बान्धवों सहित भस्म कर डालिये। वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! शांर्गकों की अनुमति से अग्निदेव ने वैसा ही किया और प्रज्वलित होकर वे सम्पूर्ण खाण्डववन को जलाने लगे।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 महाभारत आदि पर्व अध्याय 231 श्लोक 1-15
- ↑ 2.0 2.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 231 श्लोक 16-25
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| द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना
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पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता
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| पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश
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| लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत
| विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण
| लाक्षागृह का दाह
| विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना
| हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश
| कुन्ती के लिए भीम का जल लाना
| माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना
| भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध
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| भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध
| युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना
| हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना
| भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन
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| पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
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| ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार
| ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना
| ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन
| कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना
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| भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव
| भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना
| भीम और वकासुर का युद्ध
| वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
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पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना
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| अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता
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| तपती और संवरण की बातचीत
| वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति
| गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना
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| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत
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| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
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| अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना
| भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा
| कृष्ण-बलराम का वार्तालाप
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