खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा

महाभारत आदि पर्व के ‘मय दर्शन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 227 के अनुसार खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

इन्द्र व सभी देवताओं का कृष्ण और अर्जुन से भयभीत होना

वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय! इस प्रकार पर्वत शिखर के गिरने से खाण्डववन में रहने वाले दानव, राक्षस, नाग, चीते तथा रीछ आदि वनचर प्राणी भयभीत हो उठे। मद की धारा बहाने वाले हाथी, शार्दूल, केसरी, सिंह, मृग, भैंस, सैंकड़ों पक्षी तथा दूसरी-दूसरी जाति के प्राणी अत्यन्त उदिग्न हो इधर-अधर भागने लगे। उन्होंने उस जलते हुए वन को और मारने के लिये अस्त्र उठाये श्रीकृष्ण और अर्जुन को देखा। उत्पात और आर्तनाद के शब्द से उस वन में खडे़ हुए वे सभी प्राणी संत्रस्त से हो उठे थे। उस वन को अनेक प्रकार से दग्ध होते देख और अस्त्र उठाये हुए श्रीकृष्ण पर दृष्टि डाल भयानक आर्तनाद करने लगे। उस भयंकर आर्तनाद और अग्निदेव की गर्जना से वहाँ का सम्पूर्ण आकाश मानो उत्पातकालिक मेघों की गर्जना से गूँज रहा था। तब महाबाहु श्रीकृष्ण ने अपने तेज से प्रकाशित होने वाले उस अत्यन्त भयंकर महान् चक्र को उन दैत्य आदि प्राणियों के विनाश के लिये छोड़ा। उस चक्र के प्रहार से पीड़ित हो दानव, निशाचर आदि समस्त क्षुद्र प्राणी सौ-सौ टुकडे़ होकर क्षणभर में आग में गिर गये। श्रीकृष्ण के चक्र से विदीर्ण हुए दैत्य मेदा तथा श्रक्त में सनकर संध्याकाल के मेघों की भाँति दिखायी देने लगे। भारत! भगवान् श्रीकृष्ण वहाँ सहस्रों पिशाचों, पक्षियों, नागों तथा पशुओं का वध करते हुए काल के समान विचर रहे थे। शत्रुघाती श्रीकष्ण के द्वारा बार-बार चलाया हुआ वह चक्र अनेक प्राणियों का संहार करके पुनः उनके हाथ में चला आता था। इस प्रकार पिशाच, नाग तथा राक्षसों का संहार करने वाले सर्वभूतात्मा भगवान् श्रीकृष्ण का स्वरूप उस समय बड़ा भयंकर जान पड़ता था। वहाँ सब ओर से सम्पूर्ण दानव एकत्र हो गये थे, तथापि उनमें से एक भी ऐसा नहीं निकला, जो युद्ध में श्रीकृष्ण और अर्जुन को जीत सके।। जब देवता लोग उन दोनों के बल से खाण्डववन की रक्षा करने और उस आग को बुझाने में सफल न हो सके, सब पीठ दिखाकर चल दिये। राजन्! शतक्रतु इन्द्र देवताओं के विमुख हुआ देख श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा करते हुए बड़े प्रसन्न हुए। देवताओं के लौट आने पर इन्द्र को सम्बोधित करके बड़े गम्भीर स्वर से आकाशवाणी हुई -। ‘वासव! तुम्हारे सखा नागप्रवर तक्ष कइस समय यहाँ नहीं हैं। वे खाण्डवदाह के समय कुरुक्षेत्र चले गये थे। ‘भगवान् वासुदेव तथा अर्जुन को किसी प्रकार युद्ध से जीता नहीं जा सकता। मेरे कहने से तुम इस बात को समझ लो। वे दोनों पहले के देवता नर और नारायण हैं। देवलोक में भी इनकी ख्याति है। इनका बल और पराक्रम कैसा है, यह तुम भी जानते हो। ये अपराजित और दुर्घर्ष वीर हैं। सम्पूर्ण लोकों में किसी के द्वारा भी वे युद्ध में जीते नहीं जा सकते।[1]

कृष्ण और अर्जुन द्वारा अग्निदेव को इच्छानुसार भोजन की प्राप्ति

ये दोनों पुरातन ऋषिदेव नर नारायण सम्पूर्ण देवताओं, असुरों, यक्षों, राक्षसों, गन्धर्वों, मनुष्यों, किन्नरों तथा नागों के लिये भी परम पूजनीय हैं। ‘अतः इन्द्र! तुम्हें देवताओं के साथ यहाँ से चले जाना ही उचित है। खाण्डववन के इस विनाश को तुम प्रारब्ध का ही कार्य समझो’। यह आकाशवाणी सुनकर देवराज इन्द्र ने इसे ही सत्य माना और क्रोध तथा अमर्ष छोड़कर वे उसी समय स्वर्ग लोक को लौट गये राजन्! महात्मा इन्द्र को वहाँ से प्रस्थान करते देख समस्त स्वर्गवासी देवता सेनासहित उनके पीछे-पीछे चले गये। उस समय देवताओं सहित देवराज इन्द्र को जाते देख वीरवर श्रीकृष्ण और अर्जुन ने सिंहनाद किया। राजन्! देवराज के चले जाने पर वीरवर केशव और अर्जुन अत्यन्त प्रसन्न हो उस समय बेखटके खाण्डववन का दाह कराने लगे। जैसे प्रबल वायु बादलों को छिन्न-भिन्न कर देती हैं, उसी प्रकार अर्जुन ने देवताओं को भगाकर अपने बाणों के समुदाय से खाण्डववासी प्राणियों को मारना आरम्भ किया। सव्यसाची अर्जुन के बाण चलाते समय उनके बाणों से कट जाने के कारण कोई भी जीव वहाँ से बाहर न निकल सका। अमोघ अस्त्रधारी अर्जुन को उस समय बड़े से बड़े प्राणी देख भी न सके, फिर रणभूमि में युद्ध तो कर ही कैसे सकते थे। वे कभी एक ही बाण से सैंकड़ों को बींध डालते थे और कभ एक ही को सौ बाणों से घायल कर देते थे। वे सभी प्राणी प्राणशून्य होकर साक्षात् काल से मारे हुए की भाँति आग में गिर पड़ते थे। वे वन के किनारे ही या दुर्गम स्थानों में हों, कहीं भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती थी। पितरों और देवताओं के लोक में भी खाण्डववन के दाह की गर्मी पहुँचने लगी। बहुतेरे प्राणियों के समुदाय कातर ही जोर-जोर से चीत्कार करने लगे हाथी, मृग और चीते भी रोदन करते थे। उनके आर्तनाद ने गंगा तथा समुद्र के भीतर रहने वाले मत्सय भी थर्रा उठे। उस वन में रहने वाले जो विद्याधर जाति के लोग थे, उनकी भी वही दशा थी। महाबाहो! उस समय कोई श्रीकृष्ण और अर्जुन की ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सकता था; फिर युद्ध करने की तो बात ही क्या है। जो कोई राक्षस, दानव और नाग वहाँ एक साथ संघ बनाकर निकलते थे, उन सबको भगवान् श्रीहरि चक्र द्वारा मार देते थे। वे तथा दूसरे विशालकाय प्राणी चक्र के वेग से शरीर और मस्तक छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण निर्जीव ही प्रज्वलित आग में गिर पड़ते थे। इस प्रकार वन जन्तुओं के मांस, रूधिर और मेदे के समूह से अत्यन्त तृृप्त हो अग्निदेव ऊपर आकाशचारी होकर धूमरहित हो गये। उनकी आँखे चमक उठीं, जिह्वा में दीप्ति आ गयी और उनका विशाल मुख भी अत्यन्त तेज से प्रकाशित होने लगा। उनके चमकीले केश ऊपर की ओर उठे हुए थे, आँखे पिंगल वर्ण की थी और वे प्राणियों के मेदे का रस पी रहे थे। श्रीकृष्ण और अर्जुन का दिया हुआ वह इच्छानुसार भोजन पाकर अग्निदेव बड़े प्रसन्न और पूर्ण तृप्त हो गये। उन्हें बड़ी शान्ति मिली।[2]

अर्जुन द्वारा मयासुर की रक्षा

इसी समय तक्षक के निवास स्थान से निकलकर सहसा भागते हुए मयासुर पर मधुसूदन की दृष्टि पड़ी। वातसारथि अग्निदेव मूर्तिमान् हो सिर पर जटा धारण किये मेघ के समान गर्जना करने लगे और उस असुर को जला डालने की इच्छा से माँगने लगे। मय दानवेन्द्रों के शिल्पियों में श्रेष्ठ था, उसे पहचानकर भगवान् वासुदेव उसका वध करने के लिये चक्र लेकर खडे़ हो गये। मय ने देखा एक ओर मुझे मारने के लिये चक्र उठा है, दूसरी और अग्निदेव मुझे भस्म कर डालना चाहते है; तब वह अर्जुन की शरण में गया और बोला - ‘अर्जुन! दौड़ो मुझे बचाओ, बचाओ’। भारत्! उसका भययुक्त स्वर सुनकर कुन्तीकुमार धनंजय ने उसे जीवनदान देते हुए कहा - ‘डरो मत’। अर्जुन के मन में दया आ गयी, अतः उन्होंने मयासुर से फिर कहा - ‘तुम्हें डरना नहीं चाहिये’।[3] अर्जुन के अभय-दान देने पर भगवान् श्रीकृष्ण ने नमुचि के भ्राता मयासुर को मारने की इच्छा त्याग दी और अग्निदेव ने भी उसे नहीं जलाया। वैशम्पायन जी कहते हैं - परम बुद्धिमान् अग्निदेव ने श्रीकृष्ण और अर्जुन के द्वारा इन्द्र के आक्रमण से सुरक्षित रहकर खाण्डववन को पंद्रह दिनों तक जलाया। उस वन के जलाये जाते समय अश्वसेन नाग, मयासुर तथा चार शांर्गक नाम वाले पक्षियों को अग्नि ने नहीं जलाया।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 227 श्लोक 1-19
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 227 श्लोक 20-38
  3. 3.0 3.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 227 श्लोक 39-47

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
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सुभद्रा हरण पर्व
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हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
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खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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