गंगा द्वारा देवव्रत के गुणों व शिक्षा का वर्णन करने के बाद गंगा देवव्रत को शान्तनु को सौंप कर चली जाती है। शान्तनु देवव्रत को अपने राज्य ले आते है। और अपने गुणवान पुत्र के साथ राज्य का कार्य भार सम्भालते है। परन्तु एक दिन जब वह नदी के किनारे जाते है तो वहाँ एक सुगन्ध से विचलित हो उस दिशा की ओर जाते है तभी वहाँ उनकी मुलाकात सत्यवती से होती है। वह सत्यवती के रूप व गुणों पर मोहित हो जाते है और सत्यवती के पिता से उसे वरण करने का आग्रह करते है लेकिन सत्यवती के पिता उनसे एक शर्त रखते है उस शर्त की कथा का सम्पूर्ण उल्लेख महाभारत आदिपर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 100 में इस प्रकार हुआ है।[1]
विषय सूची
- 1 शान्तनु का सत्यवती से मिलना
- 2 शान्तनु का निषादराज से सत्यवती को माँगना
- 3 निषाद की शर्त
- 4 देवव्रत का पिता की चिन्ता का कारण पूछना
- 5 देवव्रत का पिता के मंत्री व सारथी से पूछताछ
- 6 देवव्रत का सत्यवती के पिता के पास जाना
- 7 देवव्रत की प्रतिज्ञा
- 8 देवव्रत का सत्यवती को शान्तनु को सौंपना
- 9 टीका टिप्पणी और संदर्भ
- 10 संबंधित लेख
शान्तनु का सत्यवती से मिलना
वैशम्पायनजी कहते हैं-ऐसा कहकर महाभागा गंगा देवी वहीं अन्तर्धान हो गयीं। गंगाजी के इस प्रकार आज्ञा देने पर महाराज शान्तनु सूर्य के समान प्रकाशित होने वाले अपने पुत्र को लेकर राजधानी में आये। उनका अस्तिनापुर इन्द्र नगरी अमरावती के समान सुन्दर था। पूरूवंशी राजा शान्तनु पुत्र सहित उसमें जाकर अपने आपको सम्पूर्ण कामनाओं से सम्पन्न एवं सफल मनोरथ मानने लगे। तदनन्तर उन्होंने सबको अभय देने वाले महात्मा एंव गुणवान् पुत्र को राजकाज में सहयोग करने के लिये समस्त पौरवों के बीच में युवराज पद पर अभिषिक्त कर दिया। जनमेजय! शान्तनु के उस महायशस्वी पुत्र ने अपने आचार-व्यवहार से पिता को, पौरव समाज को तथा समूचे राष्ट्र को प्रसन्न कर लिया। अमित पराक्रमी राजा शान्तनु ने वैसे गुणवान् पुत्र के साथ आनन्द पूर्वक रहते हुए चार वर्ष व्यतीत किये। एक दिन वे यमुना नदी के निकटवर्ती वन में गये। वहाँ राजा को अवर्णीय एवं परम उत्तम सुगन्ध का अनुभव हुआ। वे उसके उद्गम स्थान का पता लगाते हुए सब ओर विचरने लगे। घूमते-घूमते उन्होंने मल्लाओं की एक कन्या देखी, जो देवांगनाओं के समान रुपवती थी। श्याम नेत्रों वाली उस कन्या को देखते ही राजा ने पूछा- ‘भीरु! तू कौन है, किसी पुत्री है और क्या करना चाहती है?’ वह बोली- राजन्! आपका कल्याण हो। मैं निषाद कन्या हूँ और अपने पिता महामना निषादराज की आज्ञा से धर्मार्थ नाव चलाती हूँ।’
शान्तनु का निषादराज से सत्यवती को माँगना
राजा शान्तनु ने रुप, माधुर्य तथा सुगन्ध से युक्त देवांगना के तुल्य उसके पिता के समीप जाकर उन्होंने उसका वरण किया। उन्होंने उसके पिता से पूछा- ‘मैं अपने लिये तुम्हारी कन्या चाहता हूँ। ‘यह सुनकर निषादराज ने राजा शान्तनु को यह उत्तर दिया-‘जनेश्वर! जब से इस सुन्दरी कन्या का जन्म हुआ है, तभी से मेरे मन में यह चिन्ता है कि इसका किसी श्रेष्ठ वर के साथ विवाह करना चाहिये; किंतु मेरे हृदय में एक अभिलाषा है, उसे सुन लीजिये। ‘पाप रहित नरेश! यदि इस कन्या को अपनी धर्मपत्नी बनाने के लिये आप मुझसे मांग रहे हैं, तो सत्य को सामने रखकर मेरी इच्छा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा कीजिये; क्योंकि आप सत्यवादी हैं। ‘राजन! मैं इस कन्या को एक शर्त के साथ आपकी सेवा में दूंगा। मुझे आपके समान दूसरा कोई श्रेष्ठ वर कभी नहीं मिलेगा’। शान्तनु ने कहा- निषाद! पहले तुम्हारे अभी फिर वर को सुन लेने पर मैं उसके विषय में कुछ निश्चय कर सकता हूँ। यदि देने योग्य होगा, तो दूंगा और देने योग्य नहीं होगा, तो कदापि नहीं दे सकता।
निषाद की शर्त
निषाद बोला- पृथ्वीपते! इसके गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न हो, आपके बाद उसी का राजा के पद पर अभिषेक किया जाय, अन्य किसी राजकुमार का नहीं। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! राजा शान्तनु प्रचण्ड कामाग्नि से जल रहे थे, तो भी उनके मन में निषाद को वह वर देने की इच्छा नहीं हुई। काम की वेदना सेउनका चित्त चञ्चल था। वे उस निषाद कन्या का ही चिन्तन करते हुए उस समय हस्तिनापुर को लौट गये।[1]
देवव्रत का पिता की चिन्ता का कारण पूछना
तदनन्तर एक दिन राजा शान्तनु ध्यानस्थ होकर कुछ सोच रहे थे- चिन्ता में पड़े थे। इसी समय उनके पुत्र देवव्रत अपने पिता के पास आये और इस प्रकार बोले।
‘पिताजी! आपका तो सब ओर से कुशल-मंगल है, भू-मण्डल के सभी नरेश आपकी आज्ञा के अधीन हैं; फिर किसलिये आप निरन्तर दुखी होकर शोक और चिन्ता में डूबे रहते हैं। ‘राजन! आप इस तरह मौन बैठे रहते हैं, मानो किसी का ध्यान कर रहे हों; मुझसे कोई बातचीत तक नहीं करते। घोड़े पर सवार हो कहीं बाहर भी नहीं निकलते। आपकी कान्ति मलिन होती जा रही है। आप पीले और दुबले हो गये हैं। ‘आपको कौन-सा रोग लग गया है, वह मैं जानना चाहता हूं, जिससे उसका प्रतीकार कर सकूं।’ पुत्र के ऐसा कहने पर शान्तनु ने उत्तर दिया-‘बेटा! इसमें संदेह नहीं कि मैं चिन्ता में डूबा रहता हूँ। वह चिन्ता कैसी है, सो बताता हूं, सुनो। भारत! तुम इस विशाल वंश में मेरे एक ही पुत्र हो। ‘तुम भी सदा अस्त्र-शस्त्रों के अभ्यास में लगे रहते हो और पुरुषार्थ के लिये सदैव उद्यत रहते हो। बेटा! मैं इस जगत् की अनित्या को लेकर निरन्तर शोक ग्रस्त एवं चिन्तित रहता हूँ। ‘गंगानन्दन! यदि किसी प्रकार तुम पर कोई विपत्ति आयी, तो उसी दिन हमारा यह वंश समाप्त हो जायेगा। इसमें संदेह नहीं कि तुम अकेले ही मेरे लिये सौ पुत्रों से भी बढ़कर हो। ‘मैं पुन: व्यर्थ विवाह नहीं करना चाहता; किंतु हमारी वंश परम्परा का लोप न हो, इसी के लिये मुझे पुन: पत्नी की कामना हुई है। तुम्हारा कल्याण हो। ‘धर्मवादी विद्वान् कहते हैं कि एक पुत्र का होना संतान हीनता के ही तुल्य है। भारत! एक आंख अथवा एक पुत्र यदि है, तो वह भी नहीं के बराबर है। नेत्र का नाश होने पर मानो शरीर का ही नाश हो जाता है, इसी प्रकार पुत्र के नष्ट होने पर कुल-परम्परा ही नष्ट हो जाती है। अग्निहोत्र, तीनों वेद तथा शिष्य-प्रशिष्य के क्रम से चलने वाले विद्या जनित वंश की अक्षय परम्परा- ये सब मिलकर भी जन्म से होने वाली संतान की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं है। ‘भारत! महाप्राज्ञ! इस बात में तनिक भी संदेह नहीं कि संतान, कर्म और विद्या- ये तीन ज्योतियां हैं; इनमें भी जो संतान है, उसका महत्त्व सबसे अधिक है। यही वेदत्रयी पुराण तथा देवताओं का भी सनातन मत है। तात! मेरी चिन्ता का जो कारण है, वह सब तुम्हें स्पष्ट बता दिया। ‘भारत! तुम शूरवीर हो। तुम कभी किसी की बात सहन नहीं कर सकते और सदा अस्त्र-शस्त्रों के अभ्यास में ही लगे रहते हो; अत: युद्ध के सिवा और किसी कारण से कभी तुम्हारी मृत्यु होने की सम्भावना नहीं है। ‘इसलिये मैं इस संदेह में पड़ा हूँ कि तुम्हारे शान्त हो जाने पर इस वंश परम्परा का निर्वाह कैसे होगा? तात! यही मेरे दु:ख का कारण है; वह सब-का-सब तुम्हें बता दिया’।[2]
देवव्रत का पिता के मंत्री व सारथी से पूछताछ
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! राजा के दु:ख का वह सारा कारण जानकर परम बुद्धिमान् देवव्रत ने अपनी बुद्धि से भी उस पर विचार किया। तदनन्तर वे उसी समय तुरंत अपने पिता के हितैषी बूढ़े मन्त्री के पास गये और पिता के शोक का वास्तविक कारण क्या है, इसके विषय में उनसे पूछ-ताछ की। भरतश्रेष्ठ! कुरुवंश के श्रेष्ठ पुरुष देवव्रत के भली-भाँति पूछने पर वृद्ध मन्त्री ने बताया कि महाराज एक कन्या से विवाह करना चाहते हैं। उसके बाद भी दु:ख से दुखी देवव्रत ने पिता के सारथि को बुलाया। राजकुमारी की आज्ञा पाकर कुरुराज शान्तनु का सारथि उनके पास आया। तब महाप्राज्ञ भीष्म ने पिता के सारथि से पूछा। भीष्म बोले- सारथे! तुम मेरेपिता के सखा हो, क्योंकि उनका रथ जोतने वाले हो, क्या तुम जानते हो कि महाराज का अनुराग किस स्त्री में है? मेरे पूछने पर तुम जैसा कहोगे, वैसा ही करूंगा, उसके विपरीत नहीं करूंगा। सूत बोला- नरश्रेष्ठ! एक धीवर की कन्या है, उसी के प्रति आपके पिता का अनुराग हो गया है। महाराज ने धीवर से उस कन्या को मांगा भी था, परंतु उस समय उसने यह शर्त रक्खी कि ‘इसके गर्भ से जो पुत्र हो, वही आपके बाद राजा होना चाहिये। ‘आपके पिताजी के मन में धीवर को ऐसा वर देने की इच्छा नहीं हुई। इधर उसका भी पक्का निश्चय है कि यह शर्त स्वीकार किये बिना मैं अपनी कन्या नहीं दूंगा। वीर! यही वृत्तान्त है, जो मैंने आपसे निवेदन कर दिया। इसके बाद आप जैसा उचित समझें वैसा करें।[3]
देवव्रत का सत्यवती के पिता के पास जाना
यह सुनकर कुमार देवव्रत ने उस समय बूढ़े क्षत्रियों के साथ निषाद राज के पास जाकर स्वयं आने पिता के लिये उसकी कन्या मांगी। भारत! उस समय निषाद ने उनका बड़ा सत्कार किया और विधि पूर्वक पूजा करके आसन पर बैठने के पश्चात् साथ आये हएु क्षत्रियों की मण्डली में दाशराज ने उनसे कहा। दाशराज बोला- याचकों में श्रेष्ठ राजकुमार! इस कन्या को देने में मैंने राज्य को ही शुल्क रक्खा है। इसके गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न हो, वही पिता के बाद राजा हो। भरतर्षभ! राजा शान्तनु के पुत्र अकेले आप ही सबकी रक्षा के लिये पर्याप्त हैं। शस्त्रधारियों में आप सबसे श्रेष्ठ समझे जाते हैं; परंतु तो भी मैं अपनी बात आपके सामने रक्खूंगा। ऐसे मनुअनुकूल और स्पृहणीय उत्तम विवाह-सम्बन्ध को ठुकराकर कौन ऐसा मनुष्य होगा जिसके मन में संताप न हो? भले ही वह साक्षात इन्द्र ही क्यों न हो। यह कन्या एक आर्य पुरुष की संतान है, जो गुणों में आप लोगों के ही समान हैं और जिनके वीर्य से सुन्दरी सत्यवती का जन्म हुआ है। तात! उन्होंने अनेक बार मुझसे आकपे पिता के विषय में चर्चा की थी। वे कहते थे, सत्यवती को व्याहने के योग्य तो केवल धर्मज्ञ राजा शान्तनु ही हैं। महान् कीर्तिवाले राजर्षि शान्तनु सत्यवती को पहले भी बहुत आग्रह पूर्वक मांग चुके हैं; किंतु उनके मांगने पर भी मैंने उनकी बात अस्वीकार कर दी थी। युवराज! मैं कन्या का पिता होने के कारण कुछ आपसे भी कहूंगा ही। आपके यहाँ जो सम्वन्ध हो रहा है, उसमें मुझे केवल एक दोष दिखाई देता है, बलवान् के साथ शत्रुता। परंतप! आप जिसके शत्रु होंगे, वह गन्धर्व हो या असुर, आपके कुपित होने पर कभी चिरजीवी नहीं हो सकता। पृथ्वीनाथ! बस, विवाह में इतना ही दोष है, दूसरा कोई नहीं। परंतप! आपका कल्याण हो, कन्या को देने या न देने में केवल यही दोष विचारणीय है; इस बात को आप अच्छी तरह समझ लें।[3]
देवव्रत की प्रतिज्ञा
वैशम्पायनजी कहते हैं- जनजमेजय! निषाद के ऐसा कहने पर गंगानन्दन देवव्रत ने पिता के मनोरथ को पूर्ण करने के लिये सब राजाओं के सुनत-सुनते यह उचित उत्तर दिया- ‘सत्यवानों में श्रेष्ठ निषादराज! मेरी यह सच्ची प्रतिज्ञा सुनो और ग्रहण करो। ऐसी बात कह सकने वाला कोई मनुष्य न अब तक पैदा हुआ है और न आगे पैदा होगा। ‘लो, तुम जो कुछ चाहते या कहते हो, वैसा ही करूंगा। इस सत्यवती के गर्भ से जो पुत्र पैदा होगा, वही हमारा राजा बनेगा’। भरतवंश जनमेजय! देवव्रत! के ऐसा कहने पर निषाद उनसे फिर बोला। वह राज्य के लिये उनसे कोई दुष्कर प्रतिज्ञा कराना चाहता था। उसने कहा -‘अमित तेजस्वी युवाराज! आप ही महाराज शान्तनु की ओर से मालिक बनकर यहाँ आये हैं। धर्मात्मन्! इस कन्या पर भी आपका पूरा अधिकार है। आप जिसे चाहें, इसे दे सकते हैं। आप सब कुछ करने समर्थ हैं। ‘परंतु सौम्य! इस विषय में मुझे आपसे कुछ और कहना है और वह आवश्यक कार्य है; अत: आप मेरे इस कथन को सुनिये। शत्रुदमन! कन्याओं में प्रति स्नेह रखने वाले सगे-सम्बन्धियों का जैसा स्वभाव होता है, उसी से प्रेरित होकर मैं आपसे कुछ निवेदन करूंगा। ‘सत्यधर्म पारायण राजकुमार! आपने सत्यवती के हित के लिये इन राजाओं के बीच में जो प्रतिज्ञाक की है, वह आपके ही योग्य है। ‘महाबाहो! वह टल नहीं सकती; उसके विषय में मुझे कोई संदेह नहीं है, परंतु आपका जो पुत्र होगा, वह शायद इस प्रतिज्ञा पर दृढ़ न रहे, यही हमारे मन में बड़ा भारी संशय है’। वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन्! निषादराज के इस अभिप्राय को समझकर सत्यधर्म में तत्पर रहने वाले कुमार देवव्रत ने उस समय पिता का प्रिय करने की इच्छा से यह कठोर प्रतिज्ञा की। भीष्म ने कहा- नरेश्रेष्ठ निषादराज! मेरी यह बात सुनो। जो-जो ऋषि एवं अन्तरिक्ष के प्राणी यहाँ हों, वे सब भी सुनें। मेरे समान वचन देने वाला दूसरा नहीं है। निषाद! मैं सत्य कहता हूं, पिता के हित के लिये सब भूमिपालों के सुनते हुए मैं जो कुछ कहता हूं, मेरी इस बात को समझो। राजाओ! राज्य तो मैंने पहले ही छोड़ दिया है; अब संतान के लिये भी अटल निश्चय कर रहा हूँ। निषादराज! आज से मेरा आजीवन अखण्ड व्रह्मचर्य व्रत चलता रहेगा। मेरे पुत्र न होने पर भी स्वर्ग में मुझे अक्षय लोक प्राप्त होंगे। मैंने जन्म से लेकर अब तक कोई झूठ बात नहीं कही है। जब तक मेरे शरीर में प्राण रहेंगे, तब तक मैं संतान नहीं उत्पन्न करूंगा। तुम पिताजी के लिये अपनी कन्या दे दो। काश! मैं राज्य तथा मैथुन का सर्वथा परित्याग करूंगा और उर्ध्वरेता (नैष्ठिक व्रह्मचारी) होकर रहूंगा- यह मैं तुमसे सत्य कहता हूँ। वैशम्पायनजी कहते हैं- देवव्रत का यह वचन सुन कर धर्मात्मा निषादराज के रोंगटे खड़े हो गये। उसने तुरंत उत्तर दिया- ‘मैं यह कन्या आपके पिता के लिये अवश्य देता हूं’। उस समय अन्तरिक्ष में अप्सरा, देवता तथा ऋषिगण फूलों की वर्षा करने लगे और बोल उठे- ‘ये भयंकर प्रतिज्ञा करने वाले राजकुमार भीष्म हैं (अर्थात भीष्म के नाम से इनकी ख्याति होगी)’।[4]
देवव्रत का सत्यवती को शान्तनु को सौंपना
तत्पश्चात् भीष्म पिता के मनोरथ की सिद्धि के लिये उस यशस्विनी निषाद कन्या से बोले- ‘माताजी! इस रथ पर बैठिये। अब हम लोग अपने घर चलें’। वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर भीष्म ने उस भामिनी को रथ पर बैठा लिया और हस्तिनापुर आकर उसे महाराज शान्तनु को सौंप दिया। उनके इस दुष्कर कर्म की सब राजा लोग एकत्र होकरऔर अलग-अलग भी प्रशंसा करने लगे। सबने एक स्वर से कहा, ‘यह राजकुमार वास्तव में भीष्म है’। भीष्म के द्वारा किये हुए उस दुष्कर कर्म की बात सुनकर राजा शान्तनु बहुत संतुष्ट हुए और उन्होंने उन महात्मा भीष्म को स्वच्छन्द मृत्यु का वरदान दिया। वे बोले- ‘मेरेनिष्पाप पुत्र! तुम जब तक यहाँ जीवित रहना चाहोगे, तब तक मृत्यु तुम्हारे ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। तुमसे आज्ञा लेकर ही मृत्यु तुम पर अपना प्रभाव प्रकट कर सकती है’।[5]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 100 श्लोक 40-59
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 100 श्लोक 60-73
- ↑ 3.0 3.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 100 श्लोक 74-84
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 100 श्लोक 85-98
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 100 श्लोक 99-103
संबंधित लेख
महाभारत आदिपर्व में उल्लेखित कथाएँ
पर्वसंग्रह पर्व
समन्तपंचक क्षेत्र
| अक्षोहिणी सेना
| महाभारत में वर्णित पर्व
पौष्य पर्व
जनमेजय को सरमा का शाप
| जनमेजय द्वारा सोमश्रवा का पुरोहित पद
| आरुणी, उपमन्यु, वेद और उत्तंक की गुरुभक्ति
| उत्तंक का सर्पयज्ञ
पौलोम पर्व
महर्षि च्यवन का जन्म
| भृगु द्वारा अग्निदेव को शाप
| अग्निदेव का अदृश्य होना
| प्रमद्वरा का जन्म
| प्रमद्वरा की सर्प के काटने से मृत्यु
| प्रमद्वरा और रुरु का विवाह
| रुरु-डुण्डुभ संवाद
| डुण्डुभ की आत्मकथा
| जनमेजय के सर्पसत्र के विषय में रुरु की जिज्ञासा
आस्तीक पर्व
पितरों के अनुरोध से जरत्कारु की विवाह स्वीकृति
| जरत्कारू द्वारा वासुकि की बहिन का पाणिग्रहण
| आस्तीक का जन्म
| कद्रु-विनता को पुत्र प्राप्ति
| मेरु पर्वत पर भगवान नारायण का समुद्र-मंथन के लिए आदेश
| भगवान नारायण का मोहिनी रूप
| देवासुर संग्राम
| कद्रु और विनता की होड़
| कद्रु द्वारा अपने पुत्रों को शाप
| नाग और उच्चैश्रवा
| विनता का कद्रु की दासी होना
| गरुड़ की उत्पत्ति
| गरुड़ द्वारा अपने तेज और शरीर का संकोच
| कद्रु द्वारा इंद्रदेव की स्तुति
| गरुड़ का दास्यभाव
| गरुड़ का अमृत के लिए जाना और निषादों का भक्षण
| कश्यप का गरुड़ को पूर्व जन्म की कथा सुनाना
| गरुड़ का कश्यप जी से मिलना
| इन्द्र द्वारा वालखिल्यों का अपमान
| अरुण-गरुड़ की उत्पत्ति
| गरुड़ का देवताओं से युद्ध
| गरुड़ का विष्णु से वर पाना
| इन्द्र और गरुड़ की मित्रता
| इन्द्र द्वारा अमृत अपहरण
| शेषनाग की तपस्या
| जरत्कारु का जरत्कारु मुनि के साथ विवाह
| जरत्कारु की तपस्या
| परीक्षित का उपाख्यान
| श्रृंगी ऋषि का परीक्षित को शाप
| तक्षक नाग और कश्यप
| जनमेजय का राज्यभिषेक और विवाह
| जरत्कारु को पितरों के दर्शन
| जरत्कारु का शर्त के साथ विवाह
| जरत्कारु मुनि का नाग कन्या के साथ विवाह
| परीक्षित के धर्ममय आचार
| परीक्षित द्वारा शमीक मुनि का तिरस्कार
| श्रृंगी ऋषि का परिक्षित को शाप
| जनमेजय की प्रतिज्ञा
| जनमेजय के सर्पयज्ञ का उपक्रम
| सर्पयज्ञ के ऋत्विजों की नामावली
| तक्षक का इंद्र की शरण में जाना
| आस्तीक का सर्पयज्ञ में जाना
| आस्तीक द्वारा यजमान, यज्ञ, ऋत्विज, अग्निदेव आदि की स्तुति
| सर्पयज्ञ में दग्ध हुए सर्पों के नाम
| आस्तीक का सर्पों से वर प्राप्त करना
अंशावतरण पर्व
महाभारत का उपक्रम
जनमेजय के यज्ञ में व्यास का आगमन
| व्यास का वैशम्पायन से महाभारत कथा सुनाने की कहना
| कौरव-पाण्डवों में फूट और युद्ध होने का वृत्तांत
| महाभारत की महत्ता
| उपरिचर का चरित्र
| सत्यवती, व्यास की संक्षिप्त जन्म कथा
| ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रिय वंश की उत्पत्ति एवं वृद्धि
| असुरों का जन्म और पृथ्वी का ब्रह्माजी की शरण में जाना
| ब्रह्माजी का देवताओं को पृथ्वी पर जन्म लेने का आदेश
सम्भव पर्व
मरिचि आदि महर्षियों तथा अदिति आदि दक्ष कन्याओं के वंश का विवरण
| महर्षियों तथा कश्यप-पत्नियों की संतान परंपरा का वर्णन
| देवता और दैत्यों के अंशावतारों का दिग्दर्शन
| दुष्यंत की राज्य-शासन क्षमता का वर्णन
| दुष्यंत का शिकार के लिए वन में जाना
| दुष्यंत का हिंसक वन-जन्तुओं का वध करना
| तपोवन और कण्व के आश्रम का वर्णन
| दुष्यंत का कण्व के आश्रम में प्रवेश
| दुष्यंत-शकुन्तला वार्तालाप
| शकुन्तला द्वारा अपने जन्म का कारण बताना
| विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए इंद्र द्वारा मेनका को भेजना
| मेनका-विश्वामित्र का मिलन
| कण्व द्वारा शकुन्तला का पालन-पोषण
| शकुन्तला और दुष्यंत का गन्धर्व विवाह
| कण्व द्वारा शकुन्तला विवाह का अनुमोदन
| शकुन्तला को अद्भुत शक्तिशाली पुत्र की प्राप्ति
| पुत्र सहित शकुन्तला का दुष्यंत के पास जाना
| आकाशवाणी द्वारा शकुन्तला की शुद्धि का समर्थन
| भरत का राज्याभिषेक
| दक्ष, वैवस्वत मनु तथा उनके पुत्रों की उत्पत्ति
| पुरुरवा, नहुष और ययाति के चरित्रों का वर्णन
| कच का शुक्राचार्य-देवयानी की सेवा में सलंग्न होना
| देवयानी का कच से पाणिग्रहण के लिए अनुरोध
| देवयानी-शर्मिष्ठा का कलह
| शर्मिष्ठा द्वारा कुएँ में गिरायी गयी देवयानी को ययाति का निकालना
| देवयानी शुक्राचार्य से वार्तालाप
| शुक्राचार्य द्वारा देवयानी को समझाना
| शुक्राचार्य का वृषपर्वा को फटकारना
| शर्मिष्ठा का दासी बनकर शुक्राचार्य-देवयानी को संतुष्ट करना
| सखियों सहित देवयानी और शर्मिष्ठा का वन-विहार
| ययाति और देवयानी का विवाह
| ययाति से देवयानी को पुत्र प्राप्ति
| ययाति-शर्मिष्ठा का एकान्त मिलन
| देवयानी-शर्मिष्ठा संवाद
| शुक्राचार्य का ययाति को शाप देना
| ययाति का अपने पुत्रों से आग्रह
| ययाति का अपने पुत्रों को शाप देना
| ययाति का अपने पुत्र पुरु की युवावस्था लेना
| ययाति का विषय सेवन एवं वैराग्य
| ययाति द्वारा पुरु का राज्याभिषेक करके वन में जाना
| ययाति की तपस्या
| ययाति द्वारा पुरु के उपदेश की चर्चा करना
| ययाति का स्वर्ग से पतन
| ययाति और अष्टक का संवाद
| अष्टक और ययाति का संवाद
| ययाति और अष्टक का आश्रम-धर्म संबंधी संवाद
| ययाति द्वारा दूसरों के पुण्यदान को अस्वीकार करना
| ययाति का वसुमान और शिबि के प्रतिग्रह को अस्वीकार करना
| ययाति का अष्टक के साथ स्वर्ग में जाना
| पुरुवंश का वर्णन
| पुरुवंश, भरतवंश एवं पाण्डुवंश की परम्परा का वर्णन
| महाभिष को ब्रह्माजी का शाप
| शापग्रस्त वसुओं के साथ गंगा की बातचीत
| प्रतीक का गंगा को पुत्र वधू के रूप में स्वीकार करना
| शान्तनु का जन्म एवं राज्याभिषेक
| शान्तनु और गंगा का शर्तों के साथ विवाह
| वसुओं का जन्म एवं शाप से उद्धार
| भीष्म का जन्म
| वसिष्ठ द्वारा वसुओं को शाप प्राप्त होने की कथा
| शान्तनु के रूप, गुण और सदाचार की प्रशंसा
| गंगाजी को सुशिक्षित पुत्र की प्राप्ति
| देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा
| सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद, विचित्रवीर्य की उत्पत्ति
| शान्तनु और चित्रांगद का निधन
| विचित्रवीर्य का राज्याभिषेक
| भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का हरण
| भीष्म द्वारा सब राजाओं एवं शाल्व की पराजय
| अम्बिका, अम्बालिका के साथ विचित्रवीर्य का विवाह
| विचित्रवीर्य का निधन
| सत्यवती का भीष्म से राज्य-ग्रहण का आग्रह
| भीष्म की सम्मति से सत्यवती द्वारा व्यास का आवाहन
| सत्यवती की आज्ञा से व्यास को अम्बिका, अम्बालिका के गर्भ में संतानोत्पादन की स्वीकृति
| व्यास द्वारा विचित्रवीर्य के क्षेत्र से धृतराष्ट्र, पाण्डु, विदुर की उत्पत्ति
| महर्षि माण्डव्य का शूली पर चढ़ाया जाना
| माण्डव्य का धर्मराज को शाप देना
| कुरुदेश की सर्वागीण उन्नति का दिग्दर्शन
| धृतराष्ट्र का विवाह
| कुन्ती को दुर्वासा से मंत्र की प्राप्ति
| कुन्ती द्वारा सूर्यदेव का आवाहन एवं कर्ण का जन्म
| कर्ण द्वारा इन्द्र को कवच-कुण्डलों का दान
| कुन्ती द्वारा स्वयंवर में पाण्डु का वरण एवं विवाह
| माद्री के साथ पाण्डु का विवाह
| पाण्डु का पत्नियों सहित वन में निवास
| विदुर का विवाह
| धृतराष्ट्र के गांधारी से सौ पुत्र और एक पुत्री की उत्पत्ति
| धृतराष्ट्र को सेवा करने वाली वैश्य जातीय युवती से युयुत्सु की प्राप्ति
| दु:शला के जन्म की कथा
| धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों की नामावली
| पाण्डु द्वारा मृगरूप धारी मुनि का वध
| पाण्डु का अनुताप, संन्यास लेने का निश्चय
| पाण्डु का पत्नियों के अनुरोध से वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश
| पाण्डु का कुन्ती को पुत्र-प्राप्ति का आदेश
| कुन्ती का पाण्डु को भद्रा द्वारा पुत्र-प्राप्ति का कथन
| पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती का पुत्रोत्पत्ति के लिए धर्मदेवता का आवाहन
| युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की उत्पत्ति
| नकुल और सहदेव की उत्पत्ति
| पाण्डु पुत्रों का नामकरण संस्कार
| पाण्डु की मृत्यु और माद्री का चितारोहण
| ऋषियों का कुन्ती और पाण्डवों को लेकर हस्तिनापुर जाना
| पाण्डु और माद्री की अस्थियों का दाह-संस्कार
| पाण्डवों और धृतराष्ट्र पुत्रों की बालक्रीडाएँ
| दुर्योधन का भीम को विष खिलाना
| भीम का नागलोक में पहुँच आठ कुण्डों का दिव्य रस पान करना
| भीम के न आने से कुन्ती की चिन्ता
| नागलोक से भीम का आगमन
| कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति
| द्रोण को परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की प्राप्ति
| द्रोण का द्रुपद से तिरस्कृत हो हस्तिनापुर में आना
| द्रोण की राजकुमारों से भेंट
| भीष्म का द्रोण को सम्मानपूर्वक रखना
| द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा
| एकलव्य की गुरु-भक्ति
| द्रोणाचार्य द्वारा शिष्यों की परीक्षा
| अर्जुन द्वारा लक्ष्यवेध
| द्रोण का ग्राह से छुटकारा
| अर्जुन को ब्रह्मशिर अस्त्र की प्राप्ति
| राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना
| भीम, दुर्योधन और अर्जुन द्वारा अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन
| कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक
| भीम द्वारा कर्ण का तिरस्कार और दुर्योधन द्वारा सम्मान
| द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण
| अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना
| द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना
| युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक
| पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता
| कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश
जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता
| दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव
| धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा
| दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना
| पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश
| वारणावत में पाण्डवों का स्वागत
| लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत
| विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण
| लाक्षागृह का दाह
| विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना
| हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश
| कुन्ती के लिए भीम का जल लाना
| माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना
| भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध
| हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना
| भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध
| युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना
| हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना
| भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन
| घटोत्कच की उत्पत्ति
| पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत
| ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार
| ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना
| ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन
| कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना
| कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना
| कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत
| भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव
| भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना
| भीम और वकासुर का युद्ध
| वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना
| द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत
| द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म
| कुन्ती का पांचाल देश में जाना
| व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना
| पाण्डवों की पांचाल यात्रा
| अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता
| राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना
| तपती और संवरण की बातचीत
| वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति
| गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना
| वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव
| शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना
| कल्माषपाद का शाप से उद्धार
| वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति
| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत
| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
| धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना
| राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना
| अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना
| भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा
| कृष्ण-बलराम का वार्तालाप
| अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय
| द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना
| कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत
| पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह
| श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट
| धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना
| द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना
| पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान
| द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन
| द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार
| व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना
| द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना
| द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह
| कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता
| धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा
| धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय
| पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति
| भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह
| द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति
| विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन
| धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना
| पाण्डवों का हस्तिनापुर आना
| इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण
| श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान
| पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन
| नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव
| सुन्द-उपसुन्द की तपस्या
| सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय
| तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान
| तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई
| तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान
| पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग
| अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन
| अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण
| अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार
| वर्गा की आत्मकथा
| अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना
| यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह
| अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना
| द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता
| अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना
| राजा श्वेतकि की कथा
| अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना
| अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना
| खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा
| देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा
| मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति
| जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना
| जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद
| शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना
| मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना
| इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज