जरत्कारु मुनि का नाग कन्या के साथ विवाह

महाभारत आदि पर्व के आस्तीक पर्व के अंतर्गत अध्याय 47 के अनुसार जरत्कारु मुनि का नाग कन्या के साथ विवाह का वर्णन इस प्रकार है[1]-

उग्रश्रवा जी कहते हैं - शौनक उस समय वासुकि ने जरत्कारु मुनि से कहा - ‘द्विजश्रेष्ठ इस कन्या का वही नाम है, जो आपका है। यह मेरी बहिन है और आपकी ही भाँति तपस्विनी भी है। आप इसे ग्रहण करें। आपकी पत्नी का भरण-पोषण मैं करूँगा। तपोधन अपनी सारी शक्ति लगाकर मैं इसकी रक्षा करता रहूँगा। मुनिश्रेष्ठ अब तक आप ही के लिये मैंने इसकी रक्षा की है।'

ऋषि ने कहा - नागराज मैं इसका भरण-पोषण नहीं करूँगा, मेरी वह शर्त तय हो गयी। अब दूसरी शर्त यह है कि तुम्हारी इस बहिन को कभी ऐसा कार्य नहीं करना चाहिये, जो मुझे अप्रिय लगे। यदि वह अप्रिय कार्य कर बैठेगी तो उसी समय मैं इसे त्याग दूँगा।

उग्रश्रवाजी कहते हैं - नागराज ने यह शर्त स्वीकार कर ली कि ‘मैं अपनी बहिन का भरण-पोषण करूँगा।’ तब जरत्कारु मुनि वासुकि के भवन में गये। वहाँ मन्त्रवेत्ताओं में श्रेष्ठ तपोवृद्ध महाव्रती धर्मात्मा जरत्कारु ने शास्त्रीय विधि और मन्त्रोचारण के साथ नाग कन्या का पाणिग्रहण किया। तदनन्तर महर्षियों ने प्रशंसित होते हुए वे नागराज के रमणीय भवन में, जो मन के अनुकूल था, अपनी पत्नी को लेकर गये। वहाँ बहुमूल्य बिछौनों से सजी हुई शय्या बिछी थी। जरत्कारु मुनि अपनी पत्नी के साथ उसी भवन में रहने लगे। उन साधुशिरोमणि ने वहाँ अपनी पत्नी के सामने यह शर्त रखी - ‘तुम्हें ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिये, जो मुझे अप्रिय लगे। साथ ही कभी अप्रिय वचन भी नहीं बोलना चाहिये।' ‘तुमसे अप्रिय कार्य हो जाने पर मैं तुम्हें और तुम्हारे घर में रहना छोड़ दूँगा। मैंने जो कुछ कहा है, मेरे इस वचन को दृढ़तापूर्वक धारण कर लों।' यह सुनकर नागराज की बहिन अत्यन्त उद्विग्‍न हो गयी और उस समय बहुत दुखी होकर बोली - ‘भगवन ऐसा ही होगा।' फिर वह यशखिनी नागकन्या दुःखद स्वभाव वाले पति की उसी शर्त के अनुसार सेवा करने लगी। वह श्वेतकाकीय[2] उपायों से सदा पति का प्रिय करने की इच्छा रखकर निरन्तर उनकी आराधना में लगी रहती थी।

तदनन्तर किसी समय ऋतुकाल आने पर वासुकि की बहिन स्नान करके न्यायपूर्वक अपने पति महामुनि जरत्कारु की सेवा में उपस्थित हुई। वहाँ उसे गर्भ ठहर गया, जो प्रज्वलित अग्नि के समान अत्यन्त तेजस्वी तथा पतःशक्ति से सम्पन्न था। उसकी अंगकान्ति अग्नि के तुल्य थी। जैसे शुक्‍लपक्ष में चन्द्रमा बढ़ते हैं, उसी प्रकार वह गर्भ भी नित्य परिपुष्ट होने लगा। तत्पश्चात् कुछ दिनों के बाद महातपस्वी जरत्कारु कुछ खिन्न से होकर अपनी पत्नी की गोद में सिर रखकर सो गये। उन विप्रवर जरत्कारु के सोते समय ही सूर्य अस्ताचल को जाने लगे। ब्राम्हन दिन समाप्त होने ही वाला था। अतः वासुकि की मनस्विनी बहिन जरत्कारु अपने पति के धर्मलोप से भयभीत हो जगाना मेरे लिये अच्छा (धर्मानुकुल) होगा या नहीं? मेरे धर्मात्मा पति का स्वभाव बड़ा दुःखद है। मैं कैसा बर्ताव करूँ, जिससे उनकी दृष्टि में अपराधिनी न बनूँ। ‘यदि इन्हें जगाऊँगी तो निश्चय ही इन्हें मुझ पर क्रोध होगा और यदि सोते-सोते संध्योपासना का समय बीत गया तो अवश्य इनके धर्म का लोप हो जायेगा, ऐसी दशा में धर्मात्मा पति का कोप स्वीकार करूँ या उनके धर्म का लोप? इन दोनों में धर्म का लोप ही भारी जान पड़ता है।’ अतः जिससे उनके धर्म का लोप न हो, वही कार्य करने का उसने निश्चय किया। मन-ही-मन ऐसा निश्चय करके मीठे वचन बोलने वाली नागकन्या जरत्कारु ने वहाँ सोते हुए अग्नि के समान तेजस्वी एवं तीव्र तपस्वी महर्षि से मधुर वाणी में यों कहा - ‘महाभाग उठिये, सूर्यदेव अस्ताचल को जा रहे हैं।[1]

‘भगवन आप संयम पूर्वक आचमन करके संध्योपासन कीजिये। अब अग्निहोत्र की बेला हो रही है। यह मुहूर्त धर्म का साधन होने के कारण अत्यन्त रमणीय जान पड़ता है। इसमें भूमि आदि प्राणी विचरते हैं, अतः भयंकर भी है। प्रमो पश्चिम दिशा में संध्या प्रकट हो रही है - उधर का आकाश लाल हो रहा है।' नागकन्या के ऐसा कहने पर महातपस्वी भगवान जरत्कारू जाग उठे। उस समय क्रोध के मारे उनके होंठ काँपने लगे। वे इस प्रकार बोले - ‘नागकन्ये तूने मेरा यह अपमान किया है। ‘इसलिये अब मैं तेरे पास नहीं रहूँगा। जैसे आया हूँ, वैसे ही चला जाऊँगा। वामोरू सूर्य में इतनी शक्ति नहीं है कि मैं सोता रहूँ और वे अस्त हो जायें। यह मेरे हृदय में निश्चय है। जिसका कहीं अपमान हो जाये ऐसे किसी भी पुरुष को वहाँ रहना अच्‍छा नहीं लगता। फिर मेरी अथवा मेरे जैसे दूसरे धर्मशील पुरुष की तो बात ही क्या है।' जब पति ने इस प्रकार हृदय में कँप- कँपी पैदा करने वाली बात कही, तब उस घर में स्थित वासुकि की बहिन इस प्रकार बोली - ‘विप्रवर मैंने अपमान करने के लिये आपको नहीं जगाया था। आपके धर्म का लोप न हो जाये, यही ध्यान में रखकर मैंने ऐसा किया है।’ यह सुनकर क्रोध में भरे हुए महातपस्वी ऋषि जरत्कारु ने अपनी पत्नी नाग कन्या को त्याग देने की इच्छा रखकर उससे कहा - ‘नागकन्ये मैंने कभी झूठी बात मुँह से नहीं निकाली है, अतः मैं अवश्य जाऊँगा।' ‘मैंने तुम्हारे साथ आपस में पहले ही ऐसी शर्त कर ली थी।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 47 श्लोक 1-20
  2. श्वतेकाक का अर्थ यह हैं - श्वा, एत और काक; जिसका क्रमशः अर्थ है - कुत्ता, हिरण और कौआ (श्वा+एत में पररूप हुआ है) तात्पर्य यह है कि वह कुतिया की भाँति सदा जागती और कम सोती थी, हिरण के समान भय से चकित रहती और कौए की भाँति उनके इंगित (इशारे) समझने के लिये सावधान रहती थी।
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 47 श्लोक 21-43

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
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स्वयंवर पर्व
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धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
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