वर्गा की आत्मकथा

महाभारत आदि पर्व के ‘अर्जुनवनवास पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 216 के अनुसार वर्गा की आत्मकथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

वर्गा बोली - भरतवंश के महापुरुष! उन ब्राह्मण का शाप सुनकर हमें बड़ा दुःख हुआ। तब हम सब की सब अपने धर्म से च्युत न होने वाले उन तपस्वी विप्र की शरण में गयीं। (और इस प्रकार बोलीं -) ब्राह्मण! हम रूप, यौवन और काम से उन्मत्त हो गयी थीं। इसीलिये यह अनुचित कार्य कर बैठी। आप कृपापूर्वक हमारा अपराध क्षमा करें। ‘तपोधन! हमारा तो पूर्ण रूप से यही मरण हो गया कि हम आप जैसे शुद्धात्मा मुनि को लुभाने के लिये यहाँ आयीं। ‘धर्मात्म पुरुष ऐसा मानते हैं कि स्त्रियाँ अवध्य बनायी गयी हैं। अतः आप अपने धर्माचरण द्वारा निरन्तर उन्नति कीजिये। आपको इस अवलाओं की हत्या नहीं करनी चाहिये। ‘धर्मज्ञ! ब्राह्मण समस्त प्राणियों पर मैत्रीभाव रखने वाला कहा जाता है। भद्रपुरुष! मनीषी पुरुषों का यह कथन सत्य होना चाहिये। ‘श्रेष्ठ महात्मा शरणागतों की रक्षा करते हैं। हम भी आप की शरण में आयी हैं; अतः आप हमारे अपराध क्षमा करें।’

वैशम्पायनजी कहते हैं - वीरवर! उनके ऐसा कहने पर सूर्य और चन्द्रमा के समान तेजस्वी तथा शुभ कर्म करने वाले उन धर्मात्मा ब्राह्मण ने उन सब पर कृपा की। ब्राह्मण बोले - ‘शत’ और ‘शतसहस्र’ शब्द ये सभी अनन्त संख्या के वाचक हैं, परंतु यहाँ जो मैंने ‘शतं समाः’ (तुम लोगों को सौ वर्षों तक ग्राह होने के लिये) कहा है, उसमें शत शब्द सौ वर्ष के परिमाण का ही वाचक है। अनन्त काल का वाचक नहीं है। जब जल में ग्राह बनकर लोगों को पकड़ने वाली तुम सब अप्सराओं को कोई श्रेष्ठ पुरुष जल से बाहर स्थल पर खींच लायेगा, उस समय तुम सब लोग फिर अपना दिव्य रूप प्राप्त कर लोगी। मैंने पहले कभी हँसी में भी झूठ नहीं कहा है। तुम लोगों का उद्धार हो जाने के बाद वे सभी तीर्थ इस जगत में नारीतीर्थ के नाम से विष्यात होंगे और मनीषी पुरुषों को भी पवित्र करने वाले पुण्य तीर्थ बन जायँगे।

वर्गा कहती है - भारत! तदनन्तर उन ब्राह्मण को प्रणाम और उनकी प्रदक्षिणा करके अत्यन्त दुःखी हो हमसे उस स्थान से अन्यत्र चली आयीं और इस चिन्ता में पड़ गयी कि कहाँ जाकर हम सब लोग रहें, जिससे थोड़े ही समय में हमें वह मनुष्य मिल जाय, जो हमें पुनः हमारे पूर्व स्वरूप की प्राप्ति करायेगा। भरतश्रेष्ठ! हम लोग दो घड़ी से इस प्रकार सोच-विचार कर ही रही थीं कि हमको महाभाग देवर्षि नारद जी का दर्शन प्राप्त हुआ। कुन्तीनन्दन! उन अमित तेजस्वी देवर्षि को देखकर हमें बड़ा हर्ष हुआ और उन्हें प्रणाम करके हम लज्जावश सिर झुकाकर वहाँ खड़ी हो गयीं। फिर उन्होंने हमारे दुःख का कारण पूछा और हमने उनसे सब कुछ बता दिया। सारा हाल सुनकर वे इस प्रकार बोले-। ‘दक्षिण समुद्र के तट के समीप पाँच तीर्थ हैं, जो परम पुण्यजनक तथा अत्यन्त रमणीय है। तुम सब उन्हीं में चली जाओ, देर न करो।’[1] ‘वहाँ पुरुषों में श्रेष्ठ शुद्धात्मा पाण्डुकुमार धनंजय शीघ्र ही पहुँचकर तुम्हें इस दुःख से छुडायेंगे, इसमें संशय नहीं है।’ वीर अर्जुन! नारदजी का वचन सुनकर हम सब सखियाँ यहीं चली आयी। अनघ! आज सचमुच ही आपने मुझे इस शाप से मुक्त कर दिया। ये मेरी चार सखियाँ और हैं, जो अभी जल में पड़ी हैं। वीरवर! आप यह पुण्य कर्म कीजिये; इन सबको शाप से छुड़ा दीजिये।

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! तय उद्धार-हृदय पराक्रमी पाण्डव श्रेष्ठ अर्जुन ने उन सभी अप्सराओं को उस शाप से मुक्त कर दिया। राजन! उस जल से ऊपर निकलकर फिर अपना पूर्वस्वरूप प्राप्त कर लेने पर वे अप्सराएँ उस समय पहले की भाँति दिखायी देने लगी। इस प्रकार उन तीर्थों का शोधन करके उन अप्सराओं को जाने की आज्ञा दे शक्तिशाली अर्जुन चित्रांगदा से मिलने के लिये पुनः मणिपुर गये। वहाँ उन्होंने चित्रांगदा के गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न किया था, उसका नाम वभ्रुवाहन रखा गया था। राजन! अपने उस पुत्र को देखकर पाण्डुपत्र अर्जुन ने राजा चित्रवाहन से कहा-। ‘महाराज! इस वभ्रुवाहन को आप चित्रांगदा के शुल्करूप में ग्रहण कीजिये, इससे मैं आपके ऋण से मुक्त हो जाऊँगा।’ तत्पश्चात पाण्डुकुमार ने पुनः चित्रांगदा से कहा - प्रिये! तुम्हारा कल्याण हो। तुम यहीं रहो और वभ्रुवाहन का पालन-पोषण करो। ‘फिर यथासमय हमारे निवास स्थान इन्द्रप्रस्थ में आकर तुम बड़े सुख से रहोगी। वहाँ आने पर माता कुन्ती, युधिष्ठिर, भीमसेन, मेरे छोटे भाई नकुल-सहदेव तथा अन्य बन्धु-बान्धवों को देखने का तुम्हें अवसर मिलेगा। अनिन्दिते! इन्द्रप्रस्थ में मेरे समस्त बन्धु-बान्धवों से मिलकर तुम प्रसन्न होओगी। ‘सदा धर्म पर स्थित रहने वाले सत्यवादी कुन्तीनन्दन महाराज युधिष्ठिर सारी पृथ्वी को जीतकर राजसूय यज्ञ करेंगे। ‘उस समय वहाँ भूमण्डल के नरेश नामधारी सभी राजा आयेंगे। तुम्हारे पिता भी बहुत से रत्नों की भेंट लेकर उस समय उपस्थित होंगे। ‘चित्रवाहन की सेवा के निमित्त उन्हीं के साथ राजसूय यज्ञ में तुम भी चली आना। मैं वहीं तुमसे मिलूँगा। इस समय पुत्र का पालन करो और शोक छोड़ दो। ‘वभ्रुवाहन के नाम से मेरा प्राण ही इस भूतल पर विद्यमान है, अतः तुम इस पुत्र का भरण-पोषण करो। यह इस वंश को बढ़ाने वाला पुरुषरत्न है। ‘यह धर्मतः चित्रवाहन का पुत्र है; किंतु शरीर से पूरूवंश को आनन्दित करने वाला है। अतः पाण्डवों के इस प्रिय पुत्र का तुम सदा पालन करो। ‘सती-साध्वी प्रिये! मेरे वियोग से तुम संतप्त न होना। ‘चित्रांगदा से ऐसा कहकर अर्जुन गोकर्ण तीर्थ की ओर चल दिये। वह भगवान शंकर का आदिस्थान है और दर्शन मात्र से मोक्ष देने वाला है। पापी मनुष्य भी वहाँ जाकर निर्भय पद प्राप्त कर लेता है।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 216 श्लोक 1-17
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 216 श्लोक 18-35

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
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पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
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युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
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खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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