- महाभारत आदि पर्व के ‘चैत्ररथ पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 175 के अनुसार शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होने का वर्णन इस प्रकार है[1]-
गन्धर्व कहता है - अर्जुन इक्ष्वाकुलवंश में एक राजा हुए, जो लोक में कल्माष पाद के नाम से प्रसिद्ध थे। इस पृथ्वी पर वे एक असाधारण तेजस्वी राजा था। एक दिन वे नगर से निकलकर वन में हिंसक पशुओं को मारने के लिये गये। वहाँ वे रिपुमर्दन नरेश वराहों और अन्य हिंसक पशुओं को मारते हुए इधर-उधर विचरने लगे। उस महाभयानक वन में उन्होंने बहुत-से गैंड़े भी मारे। बहुत देर तक हिंस्त्र पशुओं को मारकर जब राजा थक गये, तब वहाँ से नगर की ओर लौटे। प्रतापी विश्वामित्र उन्हें अपना यजमान बनाना चाहते थे। राजा कल्याषपाद युद्ध में कभी पराजित नहीं होते थे। उस दिन वे भूखे-प्यास से पीड़ित थे और ऐसे तंग रास्ते पर आ पहुँचे थे, जहाँ एक ही आदमी आ-जा सकता था। वहाँ आने पर उन्होंने देखा, सामने की ओर से मुनिश्रेष्ठ महामना वसिष्ठ कुमार आ रहे हैं। वे वसिष्ठ जी के वंश की वृद्धि करने वाले महाभाग शक्ति थे। महात्मा वसिष्ठ जी के सौ पुत्रों में सबसे बड़े वे ही थे। उन्हें देखकर राजा ने कहा - हमारे रास्ते से हट जाओ। तब शक्ति मुनि ने मधुर वाणी में उन्हें समझाते हए कहा-। महाराज मार्ग तो मुझे ही मिलना चाहिये। यही सनातन धर्म है। सभी धर्मों में राजा के लिये वही उचित है कि वह ब्राह्मण को मार्ग दे। इस प्रकार वे दोनों आपस में रास्ते के लिये वाग्युद्ध करने लगे। एक कहता, तुम हटो तो दूसरा कहता, नही, तुम हटो। इस प्रकार वे उत्तर-प्रत्युत्तर करने लगे। ऋषि तो धर्म के मार्ग में स्थित थे, अत: वे रास्ता छोड़कर नहीं हटे। उधर राजा भी मान और क्रोध के वशीभूत हो मुनि के मार्ग से इधर-उधर नहीं हट सके। राजाओं में श्रेष्ठ कल्माषपाद ने मार्ग न छोड़ने वाले शक्ति मुनि के ऊपर मोहवश राक्षस की भाँति कोड़े से आघात किया। कोड़े की चोट खाकर मुनिश्रेष्ठ शक्ति ने क्रोध से मूर्च्छित हो उन उत्तम नरेश को शाप दे दिया। तपस्या को प्रबल शक्ति से सम्पन्न शक्तिमुनि ने कहा - राजाओं में नीच कल्माषपाद तू एक तपस्वी ब्राह्मण को राक्षस की भाँति मार रहा है, इसलिये आज से नरभक्षी राक्षस हो जायगा तथा अब से तू मनुष्यों के मांस में आसक्त होकर इस पृथ्वी पर विचरता रहेगा। नृपाधम जा यहाँ से। उन्हीं दिनों यजमान के लिये विश्वामित्र और वसिष्ठ में वैर चल रहा था। उस समय विश्वामित्र राजा कल्माषपाद के पास आये। अर्जुन जब राजा तथा ऋषि पुत्र दोनों इस प्रकार विवाद कर रहे थे, उग्रतपस्वी प्रतापी विश्वामित्र मुनि उनके निकट चले गये। तदनन्तर नृपश्रेष्ठ कल्माषपाद ने वसिष्ठ के समान तेजस्वी वसिष्ठ मुनि के पुत्र उन महर्षि शक्ति को पहचाना। भारत तब विश्वामित्र ने भी अपने को अदृश्य करके अपना प्रिय करने की इच्छा से राजा और शक्ति दोनों को चकमा दिया। जब शक्ति ने शाप दे दिया, तब नृपशिरोमणि कल्माषपाद उनकी स्तुति करते हुए उन्हें प्रसन्न करने के लिये उनके शरण होने चले।[1] कुरुश्रेष्ठ राजा के मनोभाव को समझकर उक्त विश्वामित्र जी ने एक राक्षस को राजा के भीतर प्रवेश करने के लिये आज्ञा दी। ब्रह्मर्षि शक्ति के शाप तथा विश्वामित्र जी की आज्ञा से किकर नामक राक्षस ने तब राजा के भीतर प्रवेश किया। शत्रुसूदन राक्षस ने राजा को आविष्ट कर लिया है, यह जानकर मुनिवर विश्वामित्र जी भी उस स्थान से चले गये। कुन्तीनन्दन भीतर घुसे हुए राक्षस से अत्यन्त पीड़ित हो उन नरेश को किसी भी बात की सुध-बुध न रही। एक दिन किसी ब्राह्मण ने (राक्षस से आविष्ट) राजा को वन की ओर जाते देखा और भूख से अत्यन्त पीड़ित होने के कारण उनसे मांस सहित भोजन मांगा। तब राजर्षि मित्र सह (कल्माषपाद) ने उस द्विस से कहा - ब्रह्न आप यहीं बैठिये और दो घड़ी तक प्रतीक्षा कीजिये। मैं वन से लौटने पर आपको यथेष्ट भोजन दूंगा। यह कहकर राजा चले गये और वह ब्राह्मण (वहां) ठहर गया। पार्थ! तत्पश्चात महामना राजा मित्रसह इच्छानुसार मौज से घूम-फिरकर जब लौटे, तब अन्त:पुर में चले गये। वहाँ आधी रात के समय उन्हें ब्राह्मण को भोजन देने की प्रतिज्ञा का स्मरण हुआ। फिर तो वे उठ बैठे और तुरंत रसोइये को बुलाकर बोले - आओ, वन के अमुक प्रदेश में एक ब्राह्मण भोजन के लिये मेरी प्रतीक्षा करता है। उसे तुम मांस युक्त भोजन से तृप्त करो। गन्धर्व कहता है - उनके यों कहने पर रसोइये ने मांस - के लिये खोज की, परंतु जब कहीं भी मांस नहीं मिला, तब उसने दु:खी होकर राजा को इस बात की सूचना दी। राजा पर राक्षस का आवेश था, अत: उन्होंने रसोइये से निश्चित होकर कहा - उस ब्राह्मण को मनुष्य का मांस ही खिला दो यह बात उन्होंने बार-बार दुहरायी। तब रसोइया तथास्तु कहकर वध्यभूमि में जल्लादों के घर गया और (उन से) निर्भय होकर तुरंत ही मनुष्य का मांस ले आया। फिर उसी को तुरंत विधिपूर्वक रांधकर अन्न के साथ उसे उस तपस्वी एवं भूखे ब्राह्मण को दे दिया। तब उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने तप:सिद्ध दृष्टि से उस अन्न को देखा और यह खाने योग्य नहीं हैं यो समझकर क्रोधपूर्ण नेत्रों से देखते हुए कहा।
ब्राह्मण ने कहा - वह नीच राजा मुझे न खाने योग्य अग्न्न दे रहा है, अत: उसी मूर्ख की जिह्वा ऐसे अन्न के लिये लालायित रहेगी। जैसा कि शक्ति मुनि ने कहा है, वह मनुष्यों के मांस मे आसक्त हो समस्त प्राणियों का उद्वेगपात्र बनकर इस पृथ्वी पर विचरेगा। दो बार इस बात कही जाने के कारण राजा का प्रबल हो गया। उसके साथ उनमें राक्षस के बल का समाहित हो जाने के कारण राजा की विवेशक्ति सर्वथा लुप्त हो गयी। भारत राक्षस ने राजा के मन और इन्द्रियों को काबू में कर लिया था, अत: उन नृपश्रेष्ठ ने कुछ ही दिनों बाद उस शक्ति मुनि को अपने सामने देखकर कहा-। चूंकि तुमने मुझे यह सर्वथा अयोग्य शाप दिया है, अत: अब मैं तुम्हीं से मनुष्यों का भक्षण आरम्भ करुंगा।[2] यों कहकर राजा ने तत्काल ही शक्ति के प्राण ले लिये और जैसे बाघ अपनी रुचि के अनुकूल पशु को चबा जाता है, उसी प्रकार वे भी शक्ति को खा गये। शक्ति को मारा गया देख विश्वामित्र बार-बार वसिष्ठ के पुत्रों पर ही आक्रमण करने के लिये उसे राक्षस को प्रेरित करते थे। जैसे क्रोध में भरा हुआ सिंह छोटे मृगों को खा जाता है, उसी प्रकार उस (राक्षसमावायन्न) नरेश ने महात्मा वसिष्ठ के उन सब पुत्रों को भी, जो शक्ति से छोटे थे, (मारकर) खा लिया। वसिष्ठ ने यह सुनकर भी कि विश्वामित्र ने मेरे पुत्रों को मरवा डाला है, अपने शोक के वेग को उसी प्रकार धारण कर लिया जैसे महान पर्वत सुमेरु इस पृथ्वी को। उस समय अपनी पुत्र वधुओं के दु:ख से दु:खित हो, वसिष्ठ ने अपने शरीर को त्याग देने का विचार कर लिया, परंतु विश्वामित्र का मूलोच्छेद करने की बात बुद्धिमानों में श्रेष्ठ मुनिवर वसिष्ठ के मन में ही नहीं आयी। महर्षि भगवान वसिष्ठ ने मेरु पर्वत के शिखर से अपने आपको उसी पर्वत की शिला पर गिराया; परंतु उन्हें ऐसा जान पड़ा मानो वे रुई के ढेर पर गिरे हो। पाण्डुनन्दन जब (इस प्रकार) गिरने से भी वे नहीं मरे, तब वे भगवान वसिष्ठ महान वन के भीतर धधकते हुए दावानल में घुस गये। यद्यपि उस समय अग्नि प्रचण्ड वेग से प्रज्वलित हो रही थी, तो भी उन्हें जला न सकी। शत्रुसूदन अर्जुन उनके प्रभाव से वह दहकती हुई आग भी उनके लिये शीतल हो गयी। तब शोक के आवेश से युक्त महामुनि वसिष्ठ ने सामने समुद्र देखकर अपने कण्ठ में बड़ी भारी शिला बांध ली और तत्काल जल में कूद पड़े। परंतु समुद्र की लहरों में वेग ने उन महामुनि को किनारे लाकर डाल दिया। कठोर व्रत का पालन करने वाले ब्रहर्षि वसिष्ठ जब किसी प्रकार न मर सके, तब खिन्न होकर अपने आश्रम पर ही लौट पड़े।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 175 श्लोक 1-19
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 175 श्लोक 20-39
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 175 श्लोक 40-49
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| हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश
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| माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना
| भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध
| हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना
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| युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना
| हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना
| भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन
| घटोत्कच की उत्पत्ति
| पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत
| ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार
| ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना
| ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन
| कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना
| कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना
| कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत
| भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव
| भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना
| भीम और वकासुर का युद्ध
| वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना
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| पाण्डवों की पांचाल यात्रा
| अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता
| राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना
| तपती और संवरण की बातचीत
| वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति
| गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना
| वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव
| शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना
| कल्माषपाद का शाप से उद्धार
| वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति
| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत
| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
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| अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय
| द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना
| कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत
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| पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग
| अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन
| अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण
| अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार
| वर्गा की आत्मकथा
| अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना
| यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह
| अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना
| द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता
| अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना
| राजा श्वेतकि की कथा
| अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना
| अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना
| खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा
| देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा
| मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति
| जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना
| जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद
| शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना
| मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना
| इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान
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