भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध

महाभारत आदि पर्व के ‘हिडिम्बवध पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 152 के अनुसार भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध का वर्णन इस प्रकार है[1]-

हिडिम्ब का आना

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय तब यह सोचकर कि मेरी बहिन को गये बहुत देर हो गयी, राक्षसराज हिडिम्ब उस वृक्ष से उतरा और शीघ्र ही पाण्‍डवों के पास आ गया। उसकी आंखे क्रोध से लाल हो रही थीं, भुजाएं बड़ी-बड़ी थीं, केश उपर को उठे हुए थे और विशाल मुख था। उसके शरीर का रंग काला था, मानों मेघों की काली घटा छा रही हो। तीखे दाढ़ों वाला वह राक्षस बड़ा भयंकर जान पड़ता था। देखने में विकराल उस राक्षस हिडिम्‍ब को आते देखकर ही हिडिम्‍बा भय से थर्रा उठी और भीमसेन से इस प्रकार बोली - जो निर्दोष बड़े भाई के अविवाहित रहते हुए ही अपना विवाह कर लेता हैं, वह ‘परिवेा’ कहलाता हैं, शास्‍त्रों में वह निन्‍दनीय माना गया है। ‘(देखिये) यह दुष्‍टात्‍मा नरभक्षी राक्षस क्रोध में भरा हुआ इधर ही आ रहा है, अत: मैं भाइयों सहित आपसे जो कहती हूं, वैसा कीजिये। ‘वीर मैं इच्‍छानुसार चल सकती हूं, मुझमें राक्षसों का सम्‍पूर्ण बल हैं। आप मेरे इस कटि प्रदेश या पीठ पर बैठ जाइये। मैं आपको आकाश-मार्ग से ले चलूंगी। ‘परतंप आप इन सोये हुए भाइयों और माता जी को भी जगा दीजिये। मैं आप सब लोगों को लेकर आकाश-मार्ग से उड़ चलूंगी।

भीमसेन बोले - सुन्‍दरी तुम डरों मत, मेरे सामने यह राक्षस कुछ भी नहीं है। सुमध्‍य में मैं तुम्‍हारे देखते-देखते इसे मार डालूंगा। भीरु यह नीच राक्षस युद्ध में मेरे आक्रमण का वेग सह सके, ऐसा बलवान नहीं है। ये अथवा सम्‍पूर्ण राक्षस भी मेरा सामना नहीं कर सकते। हाथी की सूंड-जैसी मोटी और सुन्‍दर गोलाकार मेरी इन दोनों भुजाओं की ओर देखो। मेरी ये जांघे परिघ के समान हैं और मेरा विशाल वक्ष:स्‍थल भी सुद्दढ़ एवं सुगठित है। शोभने मेरा पराक्रम (भी) इन्‍द्र के समान हैं, जिसे तुम अभी देखोगी। विशाल निम्‍बों वाली राक्षसी तुम मुझे मनुष्‍य समझकर वहाँ मेरा तिरस्‍कार न करो।

हिडिम्ब का हिडिम्बा पर क्रोधित होना

हिडिम्‍बा ने कहा - नरश्रेष्‍ठ आपका स्‍वरुप तो देवताओं के समान है ही। मै आपका तिरस्‍कार नहीं करती। मैं तो इसलिये कहती थी कि मनुष्‍यों पर ही इस राक्षस का प्रभाव मैं (कई बार) देख चुकी हूँ। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय उस नरभक्षी राक्षस हिडिम्‍बा ने क्रोध में भरकर भीमसेन की कही हुई उपर्युक्‍त बातें सुनी। (तत्‍पश्‍चात) उसे अपनी बहिन के मनुष्‍योंचित रुप की ओर द्दष्टिपात किया। उसने अपनी चोटी में फूलों के गजरे लगा रखे थे। उसका मुख पूर्ण चन्‍द्रमा के समान मनोहर जान पड़ता था। उसकी भौहें, नासिका, नेत्र और केशान्‍तभाग सभी सुन्‍दर थे। नख और त्‍वचा बहुत ही सुकुमार थी। उसने अपने अंगो को समस्‍त आभूषणों से विभूषित कर रखा था तथा शरीर पर अत्‍यन्‍त सुन्‍दर महीन साड़ी शोभा पा रही थी। उसे इस प्रकार सुन्‍दर एवं मनोहर मानव-रुप धारण किये देख राक्षस के मन मे यह संदेह हुआ कि हो-न-हो यह पतिरुप में कसी पुरुष का वरण करना चाहती हैं। यह विचार मन मे ही आते ही वह कुपित हो उठा। कुरुश्रेष्‍ठ अपनी बहिन पर उस राक्षस का क्रोध बहुत बढ़ गया था। फिर तो उसने बड़ी-बड़ी आंखें फाड़-फाड़कर उसकी ओर देखते हुए कहा।[1] हिडिम्‍बे मैं (भूखा हूँ और) भोजन चाहता हूँ। कौन दुर्बुद्धि मानव मेरे इस अभीष्‍ट की सिद्धि में विघ्‍न डाल रहा हैं। तू अत्‍यन्‍त मोह के वशीभूत होकर क्‍या मेरे क्रोध से नहीं डरती है? ‘मनुष्‍य को पति बनाने की इच्‍छा रखकर मेरा अप्रिय काम करने वाली दुराचारिणी तुझे धिक्कार है। तू पूर्ववर्ती सम्‍पूर्ण राक्षसराजों के कुल में कलंक लगाने वाली हैं। ‘जिन लोगों का आश्रय लेकर तून मेरा महान अप्रिय कार्य किया हैं, यह देख, मैं उन सबको आज तेरे साथ हीं मारे डालता हूँ। हिडिम्‍बा से यों कहकर लाल-लाल आंखे किये हिडिम्‍ब दांतों से दांत पीसता हुआ हिडिम्‍बा और पाण्‍डवों का वध करने की इच्‍छा से उनकी ओर झपटा। योद्धाओं में श्रेष्‍ठ तेजस्‍वी भीम उसे इस प्रकार हिडिम्‍बा पर टूटते देख उसकी भर्त्‍सना करते हुए बोले - ‘अरे खड़ा रह, खड़ा रह। वैशम्‍पायनजी कहते हैं - जनमेजय अपनी बहिन-पर अत्‍यन्‍त कुद्ध हुए उस राक्षस की ओर देखकर भीमसेन हंसते हुए से इस प्रकार बोले - ‘हिडिम्‍ब सुखपूर्वक सोये हुए मेरे इन भाइयो की जगाने से तेरा क्‍या सिद्ध होगा। खोटी बुद्धि वाले नरभक्षी राक्षस तू मेरा वेग से आकर मुझसे भिड़। ‘आ, मुझे पर ही प्रहार कर। हिडिम्‍बा स्‍त्री हैं, इसे मारना उचित नहीं है - विशेषत: इस दशा में, जबकि इसने कोई अपराध नहीं किया है। तेरा अपराध तो दूसरे के द्वारा हुआ है। ‘यह भोली-भाली स्‍त्री अपने वश में नहीं हैं। शरीर के भीतर विचरने वाले कामदेव से प्रेरित होकर आज यह मुझे अपना पति बनाना चाहती हैं। ‘राक्षसों की कीर्ति को नष्‍ट करने वाले दुराचारी हिडिम्‍ब तेरी यह बहिन तेरी आज्ञा से ही यहाँ आयी है; परंतु मेरा रुप देखकर यह बेचारी अब मुझे चाहने लगी हैं, अत: तेरा कोई अपराध नही कर रही हैं। कामदेव के द्वारा किये हुए अपराध के कारण तुझे इसकी निन्‍दा नहीं करनी चाहिये। ‘दुष्‍टात्‍मन तू मेरे रहते इस स्‍त्री को नहीं मार सकता। नरभक्षी राक्षस तू मुझ अकेले के साथ अकेला ही भिड़ जा। ‘आज मैं अकेला ही तुझे यमलोक भेज दूंगा। निशाचर जैसे अत्‍यन्‍त बलवान हाथी के पैर से दबकर किसी का भी मस्‍तक पिस जाता हैं, उसी प्रकार मेरे बलपूर्वक आघात से कुचला जाकर तेरा सिर फट जायेगा। ‘आज मेरे द्वारा युद्ध में मेरा वध हो जाने पर हर्ष में भरे हुए गीध, बाज और गीदड़ धरती पर पड़े हुए तेरे अंगों को इधर-उधर घसीटेगें। ‘आज से पहले सदा मनुष्‍यों को खा-खाकर तूने जिसे अपवित्र कर दिया हैं, उसी वन को आज मैं क्षणभर में राक्षसों-से सूना कर दूंगा। ‘राक्षस जैसे सिंह पर्वताकार महान गजराज को घसीट ले जाता हैं, उसी प्रकार आज मेरे द्वारा बार-बार घसीटे जाने वाले तुझको तेरी बहिन अपनी आंखों देखेगी। ‘राक्षस कुलागार मेरे द्वारा तेरे मारे जाने पर वनवासी मनुष्‍य बिना किसी विघ्‍न-बाधा के इस वन में विचरण करेगे।’ हिडिम्‍ब बोला - अरे ओ मनुष्‍य व्‍यर्थ गर्जन तथा बढ़-बढ़कर बातें बनाने से क्‍या लाभ? यह सब कुछ पहले करके दिखा, फिर डींग हांकना; अब देर न कर।[2] तू अपने-आपको जो बड़ा बलवान और पराक्रमी समझ रहा हैं, उसकी सचाई का पता तो तब लगेगा, जब आज मेरे साथ भिड़ेगा। तभी तू जान सकेगा कि मुझसे तुझमें कितना अधिक बल है। दुबुद्धे मैं पहले इन सबकी हिंसा नहीं करुंगा। ये थोड़ी देर तक सुखपूर्वक सो लें। तू मुझे बड़ी कड़वी बातें सुना रहा हैं, अत: सबसे पहले तुझे ही अभी मारे देता हूँ। पहले तेरे अंगो का ताजा खून पीकर उसके बाद तेरे इन भाइयों का वध करुंगा। तदनन्‍तर अपना अप्रिय करने वाली इस हिडिम्‍बा को भी मार डालूंगा।

वैशपाम्‍यनजी कहते हैं - राजन यों कहकर क्रोध में भरा हुआ वह नरभक्षी राक्षस अपनी एक बांह उपर उठाये शत्रुदमन भीमसेन पर टूट पड़ा। झटपते ही बड़े वेग से उसने भीमसेन पर हाथ चलाया। तब तो भयंकर पराक्रमी भीमसेन ने तूरंत ही उसके हाथ को हंसते हुए से पकड़ लिया। वह राक्षस उसके हाथ से छूटने के लिये छटपटाने और उछल-कूद मचाने लगा, परंतु भीमसेन उसे पकड़े हुए ही बलपूर्वक उस स्‍थान से आठ धनुष (बतीस हाथ) दूर घसीट ले गये-उसी प्रकार जैसे सिंह किसी छोटे मनुष्‍य को घसीटकर ले जाय। पाण्‍डुनन्‍दन भीम के द्वारा बलपूर्वक पीडित होने पर वह राक्षस क्रोध में भर गया और भीमसेन को भुजाओं से कसकर भयंकर गर्जना करने लगा। तब महाबली भीमसेन यह सोचकर पुन: उसे बलपूर्वक कुछ दूर खींच ले गये कि सुखपूर्वक सोये हुए भाइयों के कानों में शब्‍द न पहुँचे। फिर तो दोनों एक-दूसरे से गुथ गये और बलपूर्वक अपनी-अपनी ओर खींचने लगे। हिडिम्‍ब और भीमसेन दोनों ने बड़ा भारी पराक्रम प्रकट किया। जैसे साठ वर्ष की अवस्‍था वाले दो मतवाले गजराज कुपित हो परस्‍पर युद्ध करते हों, उसी प्रकार वे दोनों एक-दूसरे से भिड़कर वृक्षो का तोड़ने और लताओं को खींच-खींचकर उजाड़ने लगे। वे दोनों वृक्ष उठाये बड़े वेग से एक दूसरे की ओर दौड़ते थे, अपनी जांघों को टक्कर से चारों ओर की लताओं को छिन्‍न–भिन्‍न किये देते थे तथा गर्जन-तर्जन के द्वारा सब ओर पशु-पक्षियों को आंतकित कर देते थे। बल से उन्‍मत हुए वे दोनो महाबली योद्धा एक-दूसरे को मार डालना चाहते थे। उस समय भीमसेन और हिडिम्‍बासुर में बड़ा भयंकर युद्ध चल रहा था। वे दोनों एक-दूसरे की भुजाओं को मरोड़ते और जांघों को घुटनों से दबाते हुए दोनों एक-दूसरे को अपनी ओर खीचते थे। तदनन्‍तर वे बड़े जोर से गर्जते हुए परस्‍पर इस प्रकार प्रहार करने लगे, मानो दो चट्टानें आपस में टकरा रही हों। तत्‍पश्‍चात वे एक दूसरे से गुथ गये और दोनों दोनों को भुजाओं में कसकर इधर-उधर खींच ले जाने की चेष्‍टा करने लगे।। उन दोनों की भारी गर्जना से वे नरश्रेष्‍ठ पाण्‍डव माता सहित जाग उठे और उन्‍होंने अपने सामने बड़ी हुई हिडिम्‍बा को देखा।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 151 श्लोक 1-18
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 152 श्लोक 17-34
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 152 श्लोक 35-44

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हिडिम्बवध पर्व
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धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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