देवता और दैत्यों के अंशावतारों का दिग्दर्शन

दानव और देवताओं ने महर्षियों के वंश में जन्म लेने के बाद मनुष्य योनि में जन्म लेना प्रारम्भ कर दिया था अत: वैशम्पायन जी ने दानव और देवताओं के मनुष्य योनि में जन्म लेने की कथा का वर्णन महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भवपर्व’ के अंतर्गत अध्याय 67 के अनुसार इस प्रकार किया है[1]

दैत्यों के अंशवतार

जनमेजय ने कहा- भगवन्! मैं मनुष्य - योनि में अंशतः उत्पन्न हुए देवता, दानव, गन्धर्व, नाग, राक्षस, सिंह, व्याघ्र, हरिण, सर्प, पक्षी, एवं सम्पूर्ण भूतों के जन्म का वृत्तान्त यथार्थ रूप से सुनना चाहता हूँ। मनुष्यों में जो महात्मा पुरुष हैं, उनके तथा इन सभी प्राणियों के जन्म-कर्म का क्रमश: वर्णन सुनना चाहता हूँ। वैशम्पायनजी बोले - नरेन्द्र! मनुष्यों में जो देवता और दानव प्रकट हुए थे, उन सबके जन्म का ही पहले दानवों का राजा था, वही मनुष्यों में श्रेष्ठ जरासन्ध नाम से विख्यात हुआ। राजन्! हिरण्यकशिपु नाम से प्रसिद्ध जो दिति का पुत्र था, वही मनुष्यों में नरश्रेष्ठ शिशुपाल के रूप में उत्पन्न हुआ। प्रहलाद का छोटा भाई जो संन्हाद के नाम से विख्यात था, वही बाह्हीक देश का सुप्रसिद्ध राजा शल्य हुआ।

प्रहलाद का ही दूसरा छोटा भाई जिसका नमा अनुहाद था, धृतकेतु नामक राजा हुआ। राजन्! जो शिवि नाम का दैत्य कहा गया है, वही इस पृथ्वी पर द्रुम नाम से विख्यात राजा हुआ। असुरों में श्रेष्ठ जो वाष्कल था, वही नरेश्रेष्ठ भगदत्त के नाम से उत्पन्न हुआ। अयःशिरा, अश्वशिरा, वीर्यवान्, अयःषकु, गननमूर्धा ओर वेगवान्. राजन! ये पांच पराक्रमी महादैत्य कैकय देश के प्रधान-प्रधान महात्मा राजाओं के रूप में उत्पन्न हुए। उनसे भिन्न केतुमान् नाम से प्रसिद्ध प्रतापी महान् असुर ममितौजा नाम से विख्यात राजा हुआ, जो भयानक कर्म करने वाला था। स्वर्भानु नाम वाला जो श्रीसम्पन्न् महान् असुर था, वही भयंकर कर्म करने वाला राजा उग्रसेन कहलाया। अश्‍व नाम से विख्यात जो श्रीसम्पन्न महान् असुर था, वही किसी से परास्त न होने वाला महापराक्रमी राजा अशोक हुआ। राजन्! उसका छोटा भाई जो अश्‍वपति नामक दैत्य था, वहाँ मनुष्यों में श्रेष्ठ हार्दिक्य नाम वाला राजा हुआ। वृषपर्वा नाम से प्रसिद्ध जो श्रीमान् महादैत्य था, वह पृथ्वी पर दीर्घप्रज्ञ नामक राजा हुआ। राजन्! वृषपर्वा का छोटा भाई जो अजक था, वही इस भूमण्डल में शाल्व नाम से प्रसिद्ध राजा हुआ। अश्‍वग्रीव नाम वाला जो धैर्यवान् महादैत्य था, वह पृथ्वी पर रोचमान नाम से विख्यात राजा हुआ। राजन्! बुद्धिमान् ओर यशस्वी सूक्ष्म नाम से प्रसिद्ध जो दैत्य कहा गया है, वह इस पृथ्वी पर बृहद्रथ नाम से विख्यात राजा हुआ। असुरों में श्रेष्ठ जो तुहुण्ड नामक दैत्य था, वही यहाँ सेनाबिन्दु नाम से विख्यात राजा हुआ। असुरों के समाज में जो सबसे अधिक बलवान् था, वह इषुपाद नामक दत्य इस पृथ्वी पर विख्यात पराक्रमी नग्नजित् नामक राजा हुआ। एकचक्र नाम से प्रसिद्ध जो महान् असुर था, वही इस पृथ्वी पर प्रतिविन्ध्य नाम से विख्यात राजा हुआ। विचित्र युद्ध करने वाला महादैत्य विरूपाक्ष इस पृथ्वी पर चित्रधर्मा नाम से प्रसिद्ध राजा हुआ। शत्रुओं का संहार करने वाला जो वीर दानश्रेष्ठ हर था, वही सुबाहु नामक श्रीसम्पन्न राजा हुआ। शत्रुपक्ष का विनाश करने वाला महातेजस्वी अहर इस भूमण्डल में बालृहिक नाम से विख्यात राजा हुआ। चन्द्रमा के समान सुन्दर मुखवाला जो असुरश्रेष्ठ निचन्द्र था, वही मुंजकेष नाम से विख्यात श्रीसम्पन्न राजा हुआ। परम बुद्धिमान् निकुम्भ जो युद्ध में अजेय था, वह इस भूमि पर भूपालों में श्रेष्ठ देवाधिप कहलाया। दैत्यों में जो शरभ नाम से प्रसिद्ध महान् असुर था, वही मनुष्यों में श्रेष्ठ राजर्षि पौरव हुआ। राजन्! महापराक्रमी महान् असुर कुपट ही इस पृथ्वी पर राजा सुपार्श्‍व के रूप में उत्पन्न हुआ। महाराज! महादैत्य क्रथ इस पृथ्वी पर राजर्षि पार्वतेय के नाम से उत्पन्न हुआ, उसका शरीर मेरु पर्वत के समान विशाल था। असुरों में शलभ नाम से प्रसिद्ध जो दूसरा दैत्य था, वह वानृहीकवंशी राजा प्रहलाद हुआ। दैत्यश्रेष्ठ चन्द्र इस लोक में चन्द्रमा के समान सुन्दर और चन्द्रवर्मा नाम से विख्यात कांम्बोज देश का राजा हुआ। अर्क नाम से विख्यात कांम्बोज देश का राजा हुआ। अर्क नाम से विख्यात जो दानवों का सरदार था, वही नरपतियों में श्रेष्ठ राजर्षि ऋषिक हुआ। नृपशिरोमणे! मृतपा नाम से प्रसिद्ध जो श्रेष्ठ असुर था, उसे पष्चिम अनूप देश का राजा समझो। गविष्ठ नाम से प्रसिद्ध जो महातेजस्वी असुर थाख् वही इस पृथ्वी पर द्रुमसेन नामक राजा हुआ। मयूर नाम से प्रसिद्ध जो श्रीमान् एवं महान् असुर था वही विश्‍व नाम से विख्यात राजा हुआ। मयूर का छोटा भाई सुपर्ण ही भूमण्डल में कालकीर्ति नाम से प्रसिद्ध राजा हुआ। दैत्यों में जो चन्द्रहन्ता नाम से प्रसिद्ध श्रेष्ठ असुर कहा गया है, वही मनुष्यों का स्वामी राजर्षि शुनक हुआ। इसी प्रकार जो चन्द्र विनाशन नामक महान् असुर बताया गया है, वही जानकि नाम से प्रसिद्ध राजा हुआ। कुरुश्रेष्ठ जनमेजय! दीघ्रजिन्ह नाम से प्रसिद्ध दानवराज ही इस पृथ्वी पर काशिराज के नाम से विख्यात था। सिंहिका ने सूर्य और चन्द्रमा का मान मर्दन करने वाले जिस राहु नामक ग्रह को जन्म दिया था, वही यहाँ क्राथ नाम से प्रसिद्ध राजा हुआ।[1]

दनायु के पुत्रों के नाम

दनायु के चार पुत्रों में जो सबसे बड़ा है, वह विक्षर नामक तेजस्वी असुर यहाँ राजा वसुमित्र बताया गया है। नराधिप! बिक्षर से छोटा उसका दूसरा भाई बल, जो असुरों का राजा था, पाण्डय देश का सुविख्यात राजा हुआ। महाबली बीरनाम से विख्यात जो श्रेष्ठ असुर (विक्षर का तीसरा भाई) था, पौण्ड्रमात्स्यक नाम से प्रसिद्ध राजा हुआ। राजन्! जो वृत्र नाम से विख्यात (और विक्षर का चौथा भाई) महान् असुर था, वही पृथ्वी पर राजर्षि मनिमान के नाम से प्रसिद्ध हुआ। क्रोधहन्ता नामक असुर जो उसका छोटा भाई (काला के पुत्रों में तीसरा) था, वह इस पृथ्वी पर दण्ड नाम से विख्यात नरेश हुआ। क्रोधवर्धन नामक जो दूसरा दैत्य कहा गया है, वह मनुष्यों में श्रेष्ठ दण्डधार नाम से विख्यात हुआ। नरश्रेष्ठ! कालेय नामक दैत्यों के जो पुत्र थे उनमें से आठ इस पृथ्वी पर सिंह के समान पराक्रमी राजा हुऐ। उन आठों कालेयों में श्रेष्ठ जो महान असुर था, वही मगध देश में जयत्सेन नामक राजा हुआ।
उन कालेयों में से जो दूसरा इन्द्र के समान श्रीसम्पन्न था, वही अपराजित नामक राजा हुआ। तीसरा जो महान तेजस्वी और महामायावी महादैत्य था, वह इस पृथ्वी पर भयंकर पराक्रमी निषाद नरेश के रूप में उत्पन्न हुआ। कालेयों में से ही एक जो चौथा बताया गया है, वह इस भूमण्डल में राजिर्षि प्रवर श्रेणिमान् से विख्यात हुआ। कालेयों में पांचवा श्रेष्ठ महादैत्य था, वही इस लोक में शत्रुतापन महौजा के नाम से विख्यात हुआ। उन कालेयों में जो छठा असुर था वह भूमण्डल में राजर्षि शिरोमणि अभीरू के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उन्हीं में से सातवां असुर राजा समुद्रसेन हुआ जो समुद्र पर्यन्त पृथ्वी पर सब ओर विख्यात और धर्म एवं अर्थ तत्त्व का ज्ञाता था। राजन्! कालेयों में जो आठवां था, वह वृहत् नाम से प्रसिद्ध सर्वभूतहितकारी धर्मात्मा राजा हुआ। महराज! दानवों में कुक्षिनाम से प्रसिद्ध जो महाबली राजा था, वह पार्वतीय नामक राजा हुआ; जो मेरूगिरी के समान तेजस्वी एवं विशाल था। महापराक्रमी क्रथन नामक जो श्रीसम्पन्न महान असुर था, वह भूमण्डल में पृथ्वीपति राजा सूर्याक्ष नाम से उत्पन्न हुआ।[2]

वीर राजाओं के नाम

असुरों में जो सूर्य नामक श्रीसम्पन्न महान असुर था, वह पृथ्वी पर सब राजाओं में श्रेष्ठ दरद नामक बान्हीक राजा हुआ। राजन्! क्रोधवश नामक जिन असुरगणों का तुम्हें परिचय दिया है, उन्हीं में से कुछ लोग इस पृथ्वी पर निम्नांकित वीर राजाओं के रूप में उत्पन्न हुए। मद्रक, कर्णवेष्ट, सिद्वार्थ, कीटक, सुवीर, सुबाहु, महाबीर, बाहिृक, क्रथ, विचित्र, सुरथ, श्रीमान् नील नेरश, चैरवासा, भूमिपाल, दन्तवक्त्र, दानव दुर्जय, नृपश्रेष्ठ रुक्मी, राजा जनमेजय, आषाढ, वायुवेग, भूरितेजा, एकलव्य, सुमित्र, बाटधान, गोमुख, करूषदेश के अनेक राजा, क्षेमधूर्ति, श्रुतायु, उदूह, बृहत्सेन, क्षेम, उग्रतीर्थ, कलिंग नरेश कुहर तथा परम बुद्धिमान् मनुष्यों का राजा ईश्‍वर। इतने राजाओं का समुदाय पहले इस पृथ्वी पर क्रोधवश नामक दैत्यगण से उत्पन्न हुआ था। ये सब राजा परम सौभाग्यशाली, महान् यशस्वी और अत्यन्त बलशाली थे। दानवों में जो महाबली कालनेमि था, वही राजा उग्रसेन के पुत्र बलवान् कंस के नाम से विख्यात हुआ। इन्द्र के समान कान्तिमान् राजा देव के रूप में इस पृथ्वी पर श्रेष्ठ गन्धर्वराज ही उत्पन्न हुआ था।[2]

देवताओं के अंशवतार

भारत! महान् कीर्तिशाली देवर्षि बृहस्पति के अंश से अयोनिज भरद्वाज नन्दन द्रोण उत्पन्न हुए, यह जान लो। नृपश्रेष्ठ! राजा जनमेजय! आचार्य द्रोण समस्त धनुर्धर वीरों में उत्तम और सम्पूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता थे। उनकी कीर्ति बहुत दूर तक फैली हुई थी। वे महान् तेजस्वी थे। वेदवेत्ता विद्वान् द्रोण को धनुर्वेद और वेद दोनों में सर्वश्रेष्ठ मानते थे। ये विचित्र कर्म करने वाले तथा अपने कुल की मर्यादा को बढ़ाने वाले थे। भारत! उनके यहाँ महादेव, यम, काम और क्रोध के सम्मिलित अंश से शत्रुसंतापी शूरवीर अश्‍वत्थामा का जन्म हुआ, जो इस पृथ्वी पर महापराक्रमी और शत्रुपक्ष का संहार करने वाला वीर था। राजन्! उसके नेत्र कमलदल के समान विशाल थे। महर्षि वशिष्ठ के शाप और इन्द्र के आदेश से आठों वसु गंगाजी के गर्भ से राजा शान्तनु के पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। उनमें सबसे छोटे भीष्म थे, जिन्होंने कौरव वंश को निर्भय बना दिया था।[3] वे परम बुद्धिमान्, वेदवत्ता, वक्ता तथा शत्रुपक्ष का संहार करने बाले थे। सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों के विद्वानों में श्रेष्ठ महातेजस्वी भीष्म ने भृगुवंशी महात्मा जमदग्नि नन्दन परशुरामजी के साथ युद्ध किया था। महाराज! जो कृप नाम से प्रसिद्ध ब्रह्मर्षि इस पृथ्वी पर प्रकट हुए थे, उनका पुरुषार्थ असीम था। उन्हें रुद्रगण के अंश से उत्पन्न हुआ समझो। राजन्! जो इस जगत् में महारथी राजा शकुनि के नाम से विख्यात था, उसे तुम द्वापर के अंश से उत्पन्न हुआ मानो। वह शत्रुओं का मान-मर्दन करने वाला था। वृष्णि वंश का भार वहन करने वाले जो सत्यप्रतिज्ञ शत्रुमर्दन सात्यिक थे, वे मरुत देवताओं के अंश से उत्पन्न हुए थे। राजा जनमेजय! सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ राजर्षि द्रुपद भी इस मनुष्य लोक में उस मरूद्गण से ही उत्पन्न हुए थे। महाराज! अनुपम कर्म करने वाले, क्षत्रियों में श्रेष्ठ राजा कृतवर्मा को भी तुम मरूद्गणों से ही उत्पन्न मानो। शत्रुराष्ट्र को संताप देने वाले शत्रुमर्दन राजा विराट को भी मरूद्गणों से उत्पन्न समझो। अरिष्टा का पुत्र जो हंस नाम से विख्यात गन्धर्व राज था, वही कुरुवंश की वृद्धि करने वाले व्यासनन्दन धृतराष्ट्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ। धृतराष्ट्र की वाहें बहुत बड़ी थीं। वे महातेजस्वी नरेश प्रज्ञाचक्षु (अंधे) थे, वे माता के दोष और महर्षि के क्रोध से अंधे ही उत्पन्न हुए। उन्हीं के छोटे भाई महान् शक्तिशाली महाबली पाण्डु के नाम से विख्यात हुए। वे सत्यधर्म में तत्पर और पवित्र थे। पुत्रवानों में श्रेष्ठ और बुद्धिमानों में उत्तम परम सौभाग्यशाली विदुर को तुम इस लोक में सूर्य पुत्र धर्म के अंश से उत्पन्न हुआ समझो। खोटी बुद्धि और दूषित विचार वाले कुरुकुल कलंक राजा दुर्योधन के रूप में इस पृथ्वी पर कलिका अंश ही उत्पन्न हुआ था। राजन्! वह कलिस्वरूप पुरुष सबका द्वेष पात्र था। उसने सारी पृथ्वी के वीरों को लड़ाकर मरवा दिया था। उसके द्वारा प्रज्वलित की हुई वैर की भारी आग असंख्य प्राणियों के विनाश का कारण बन गयी। पुलस्त्य कुल के राक्षस भी मनुष्यों में दुर्योधन के भाइयों के रूप में उत्पन्न हुए थे। उसके दुःशासन आदि सौ भाई थे। वे सभी क्रूरतापूर्ण कर्म किया करते थे। दुर्मुख, दुःसह तथा अन्य कौरव जिनका नाम यहाँ नहीं लिया गया है, दुर्योधन के सहायक थे। भरतश्रेष्ठ! धृतराष्ट्र के सब पुत्र पूर्व जन्म के राक्षस थे। धृतराष्ट्र-पुत्र युयुत्सु वैश्‍य जातीय स्त्री से उत्पन्न हुआ था। वह दुर्योधन आदि सौ भाइयों के अतिरक्ति था। जनमेजय ने कहा- प्रभु! धृतराष्ट्र के जो सौ पुत्र थे, उनके नाम मुझे बड-छोटे के क्रम से एक-एक करके बताइये।[3]

धृतराष्ट्र के पुत्रों के नाम

वैशम्पायनजी बोले - राजन्! सुनो - दुर्योधन, 2 युयुत्सु, 3 दुःशासन, 4 दुःसह, 5 दु:शल, 6 दुर्मुख, 7 विविंशति, 8 विकर्ण, 9 जलसंध, 10 सुलोचन, 11 विन्द, 12 अनुविन्द, 13 दुर्धर्ष, 14 सुवाहु, 15 दुष्प्रधर्षण, 16 दुभर्षण, 17 दुर्मुख, 18 दुष्कर्ण, 19 कर्ण, 20 चित्र, 21 उपचित्र, 22 चित्राक्ष, 23 चारू, 24 चित्रांगद, 25 दुर्मद, 26 दुष्पधर्ष, 27, विवित्सु, 28, विकट, 29 सम, 30 ऊर्णनाभ, 31 पद्यनाभ, 32 नन्द, 33 उपनन्द, 34 सेनापति, 35 सुषेण, 36 कुण्डोदर, 37 महोदर, 38 चित्रवाहु, 39 चित्रवर्मा, 40 सुवर्मा, 41 दुर्विरोचन, 42 अयोबाहु, 43 महाबाहु, 44 चित्रचाक, 45 सुकुण्डल, 46 भीमवेग, 47 भीमबल, 48 बलाकी, 49 भीम, 50 विक्रम, 51 उग्रायुध, 52 भीमसर, 53 कनकायु, 54 धड़ायुध, 55 दृढवर्मा, 56 दृढक्षत्र, 57 सोमकीर्ति, 58 अनूदर, 59 जरासंध, 60 दृढसंध, 61 सत्यसंध, 62 सहस्रवाक, 63 उग्रश्रवा, 64 उग्रसेन, 65 क्षेममूर्ति, 66 अपराजित, 67 पण्डितक, 68 विशालाक्ष, 69 दुराधन, 70 दृढहस्थ, 71 सुहस्थ, 72 वातवेग, 73 सुवर्चा, 74 आदित्यकेतु, 75 बहाशी, 76 नागदत्त, 77 अनुयायी, 78 कबची, 79 निसंगी, 80 दण्डी, 81 दण्डधार, 82 धर्नुग्रह, 83 उग्र, 84 भीमरथ, 85 वीर, 86 वीरबाहु, 87 अलोलोप, 88 अभय, 89 रौद्रकर्मा, 90 दृढरथ, 91 अनाधृष्य, 92 कुण्डभेदी, 93 विरावी, 94 दीर्घलोचन, 95 दीर्घबाहु, 96 महाबाहु, 97 व्यूढोरू, 98 कनकांगद, 99 कुण्डज, 100 चित्रक - ये धृतराष्ट्र के सौ पुत्र थे। इनके सिवा दुःशला नाम की एक कन्या थी। धृतराष्ट्र का वह पुत्र जिसका नाम युयुत्सु था वैश्‍या के गर्भ से उत्पन्न हुआ था। वह दुर्योधन आदि सौ पुत्रों से अतिरिक्त था। राजन्! इस प्रकार धृतराष्ट्र के एक सौ एक पुत्र तथा एक कन्या बताई गयी है। इनके नामों का जो क्रम दिया गया है, उसी के अनुसार विद्वान पुरुष इन्हें जेठा और छोटा समझते हैं। धृतराष्ट्र के सभी पुत्र उत्कृष्ठ रथी, शूरवीर और युद्ध की कला में कुशल थे। राजन्! वे सब-के-सब वेदवेत्ता, शास्त्रों के पारंगत विद्वान, संग्राम विद्या में प्रवीण तथा उत्तम विद्या और उत्तम कुल से सुशोभित थे। भूपाल! उन सबका सुयोग्य स्त्रियों के साथ विवाह हुआ था। महाराज! कुरुराज दुर्योधन ने समय आने पर शकुनि की सलाह से अपनी वहिन दुःशला का विवाह सिन्धु देश के राजा जयद्रथ के साथ कर दिया।[4]

पाण्डू के पुत्रों का वर्णन

जनमेजय! राजा युधिष्ठिर को तो तुम धर्म का अंश जानो। भीमसेन को वायु का और अर्जुन को देवराज इन्द्र का अंश जानो। रूप-सौन्दर्य की दृष्टि से इस पृथ्वी पर जिनकी समानता करने वाला कोई नहीं थी, वे समस्त प्राणियों का मन मोह लेने वाले नकुल और सहदेव अश्विनीकुमारों के अंश से उत्पन्न हुए थे। वर्चा नाम से विख्यात जो चन्द्रमा का प्रतापी पुत्र था वही महायशस्वी अर्जुन कुमार अभिमन्यु हुआ। जनमेजय! उसके अवतार काल में चन्द्रमा ने देवताओं से इस प्रकार कहा -‘मेरा पुत्र मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय है, अतः मैं इसे अधिक दिनों के लिये नहीं दे सकता। इसलिये मृत्युलोक में इसके रहने की कोई अवधि निश्चित कर दी जाये। फिर उस अवधि का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। ‘पृथ्वी पर असुरों का वध करना देवताओं का कार्य है और वह हम सबके लिये करने योग्य है। अतः उस कार्य की सिद्धि के लिये यह वर्चा भी वहाँ अवश्‍य जायेगा। परन्तु दीर्घकाल तक वहाँ नहीं रह सकेगा।[4] ‘भगवान नर, जिनके सखा भगवान नारायण हैं, इन्द्र के अंश से भूतल में अवतीर्ण होंगे। वहाँ उनका नाम अर्जुन होगा। और वे पाण्डु के प्रतापी पुत्र माने जायेंगे। ‘श्रेष्ठ देवगण! पृथ्वी पर यह वर्चा उन्हीं अर्जुन का पुत्र होगा, जो बाल्यवस्था में ही महारथी माना जायेगा। जन्म लेने के बाद सोलह वर्ष की अवस्था तक यह वहाँ रहेगा। ‘इसके सोलहवें वर्ष में वह महाभारत युद्ध होगा, जिसमें आप लोगों के अंश से उत्पन्न हुए वीर पुरुष शत्रु वीरों का संहार करने वाला अद्भुत पराक्रम कर दिखायेंगे। ‘देवताओं! एक दिन जबकि उस युद्ध में नर और नारायण (अर्जुन और श्रीकृष्ण) उपस्थित न रहेंगे, उस समय शत्रुपक्ष के लोग चक्रव्यूह की रचना करके आप लोगों के साथ युद्ध करेंगे। उस युद्ध में मेरा यह पुत्र समस्त शत्रु सैनिकों को युद्ध से मार भगायेगा और बालक होने पर भी उस अभेद व्यूह में घुसकर निर्भय विचरण करेगा। ‘तथा बड़े-बड़े महारथी वीरों का संहार कर डालेगा। आधे दिन में ही महाबाहु अभिमन्यु समस्त शत्रुओं एक चौथाई भाग को यमलोक पहुँचा देगा। तदनन्तर बहुत से महारथी एक साथ ही उस पर टूट पड़ेगे और वह महाबाहु उन सबका सामना करते हुए संध्या होते-होते पुनः मुझसे आ मिलेगा। वह एक ही वंश पृर्वतक वीर पुत्र को जन्म देगा, जो नष्ट हुए भरतकुल को पुनः धारण करेगा।’ सोम का यह वचन सुनकर समस्त देवताओं ने ‘तथास्तु’ कहकर उनकी वात मानली और सबने चन्द्रमा का पूजन किया। राजा जनमेजय! इस प्रकार मैंने तुम्हारे पिता के पिता का जन्म रहस्य बताया है। महाराज! महारथी धृष्टद्युम्न को तुम अग्नि का भाग समझो। शिखण्डी राक्षस से अंश से उत्पन्न हुआ था। वह पहले कन्या रूप में उत्पन्न होकर पुनः पुरुष हो गया था। भरतर्षभ! तुम्हें मालूम होना चाहिये कि द्रौपदी के जो पांच पुत्र थे, उनके रूप में पांच विश्‍वेदेवगण ही प्रकट हुए थे। उनके नाम क्रमश: इस प्रकार हैं - प्रतिविध्य, सुतसोम, श्रुतकीर्ति, नकुलनन्दन शतानीक तथा पराक्रमी श्रुतसेन[5]

कर्ण जन्म रहस्य

वसुदेवजी के पिता का नाम था शूरसेन। वे यदुवंश के एक श्रेष्ठ पुरुष थे। उनके पृथा नाम वाली एक कन्या हुई जिजसे समान रूपवती स्त्री इस पृथ्वी पर दूसरी नहीं थी। उग्रसेन के फुफेरे भाई कुन्तीभोज सन्तानहीन थे। पराक्रमी शूरसेन ने पहले कभी उनके सामने यह प्रतिज्ञा की थी कि ‘मैं अपनी पहली सन्तान आपको दे दूंगा’। तदनन्तर सबसे पहले उनके यहाँ कन्या ही उत्पन्न हुई। शूरसेन ने अनग्रह की इच्छा से राजा कुन्तीभोज को अपनी वह पुत्री पृथा प्रथम सन्तानें होने के कारण गोद दे दी। पिता के घर पर रहते समय पृथा को ब्राह्मणों और अतिथियों के स्वागत-सत्कार का कार्य सौंपा गया था। एक दिन उसने कठोर व्रत का पालन करने वाले भयंकर क्रोधी तथा उग्र प्रकृति वाले एक ब्राह्मण महर्षि की, जो धर्म के विषय में अपने निश्‍चय को छिपाये रखते थे और लोग जिन्हें दुभार्सा के नाम से जानते हैं, सेवा की। वे ऊपर से उग्र स्वभाव के थे परन्तु उनका हृदय महान् होने के कारण सबके द्वारा प्रशंसित था। पृथा ने पूरा प्रयत्न करके अपनी सेवाओं द्वारा मुनि को संतुष्ट किया। भगवान दुवार्सा ने संतुष्ट होकर पृथा को प्रयोग विधि सहित एक मन्त्र का विधि पूर्वक उपदेश किया और कहा -‘सुभगे! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ।[5] ‘देवि! तुम इस मन्त्र द्वारा जिस-जिस देवता का आवाहन करोगी, उसी-उसी के कृपा प्रसाद से पुत्र उत्पन्न करोगी। दुवार्सा के ऐसा कहने पर वह सतीसाध्वी यशस्विनी बाला यद्यपि अभी कुमारी कन्या थी, तो भी कौतुहलवश उसने भगवान सूर्य का आवाहन किया। तब सम्पूर्ण जगत् में प्रकाश फैलाने वाले भगवान सूर्य ने कुन्ती के उदर में गर्भ स्थापित किया और उस गर्भ से एक ऐसे पुत्र को जन्म दिया, जो समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ था। यह कुण्डल और कवच के साथ ही प्रकट हुआ था। देवताओं के बालकों में जो सहज कान्ति होती है, उसी से वह सुशोभित था। उसने अपने तेज से वह सूर्य के समान जान पड़ता था। उसके सभी अंग मनोहर थे, जो उसके सम्पूर्ण शरीर की शोभा बढ़ा रहे थे। उस समय कुन्ती ने माता-पिता आदि बान्धव-पक्ष के भय से उस यशस्वी कुमार को छिपाकर एक पेटी में रखकर जल में छोड़ दिया। जल छोड़े हुए उस बालक को राधा के पति महायशस्वी अधिरथ सूत ने लेकर राधा की गोद में दे दिया और उसे राधा का पुत्र बना लिया। उन दोनों दंपत्ति ने उस बालक का नाम वसुषेन रखा। वह सम्पूर्ण दिशाओं में भलिभाँति विख्यात था। बड़ा होने पर वह बलवान बालक सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रों को चलाने की कला में उत्तम हुआ।[6]

कर्ण द्वारा इन्द्र को दान

उस विजयी वीर ने सम्पूर्ण विदांगों का अध्ययन कर लिया। वसुषेण (कर्ण) बड़ा बुद्धिमान् और सत्य पराक्रमी था। जिस समय वह जप में लगा होता, उस महात्मा के पास ऐसी कोई वस्तु नहीं थी, जिसे वह ब्राह्मणों के मांगने पर न दे डाले। भूतभावन इन्द्र ने अपने पुत्र अर्जुन के हित के लिये ब्राह्मण का रूप धारण करके वीर कर्ण से दोनों कुण्डल तथा उसके शरीर के साथ उत्पन्न हुआ कवच मांगा। कर्ण ने अपने शरीर में चिपके हुए कवच और कुण्डलों को उधेड़ कर दे दिया। इन्द्र ने विस्मित होकर कर्ण को एक शक्ति प्रदान की और कहा- ‘दुर्धर्ष वीर! तुम देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग और राक्षसों में से जिस पर भी इस शक्ति को चलाओगे, वह एक व्यक्ति निष्यच ही अपने प्राणों से हाथ धो बैठेगा। पहले कर्ण का नाम इस पृथ्वी पर वसुषेन था। फिर कवच और कुण्डल काटने के कारण वैकर्तन नाम से प्रसिद्ध हुआ। जो महायशस्वी वीर कवच धारण किये हुए ही उत्पन्न हुआ, वह पृथा का प्रथम पुत्र कर्ण नाम से ही सर्वत्र विख्यात था। महाराज! वह वीर सूत कुल में पाला-पोसा जाकर बड़ा हुआ था। नरेश्रेष्ठ कर्ण सम्पूर्ण शस्त्र धारियों में श्रेष्ठ था। वह दुर्योधन का मन्त्री और मित्र होने साथ ही उसके शत्रुओं का नाश करने वाला था। राजन्! तुम कर्ण को साक्षात सूर्यदेव का सर्वोत्तम अंश जानो।

विष्णु के अवतार

देवताओं के भी देवता जो सनातन पुरुष भगवान नारायण है, उन्हीं के अंश स्वरूप प्रतापी वसुदेव नन्दन श्रीकृष्ण मनुष्यों में अवतीर्ण हुए थे। महाबली बलदेव शेषनाग के अंश थे। राजन्! महातेजस्वी प्रद्युम्न को तुम सनत्कुमार का अंश जानो। इस प्रकार वसुदेवजी के कुल में बहुत से दूसरे-दूसरे नरेन्द्र उपन्न हुए, जो देवताओं के अंश थे। वे सभी अपने कुल की वृद्धि करने वाले थे। महाराज! मैंने अप्सराओं के जिस समुदाय का वर्णन किया है, उसका अंश भी इन्द्र के आदेश से इन पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ था।[6]

अप्सराओं के अंशवतार

नरेश्‍वर! वे अप्सरायें मनुष्य लोक में सोलह हजार देवियों के रूप में उत्पन्न हुई थीं जो सब-की-सब भगवान श्रीकृष्ण की पत्नियां हुईं। नारायण स्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को आनन्द प्रदान करने के लिये भूतल पर विदर्भ राज भीष्म के कुल में सतीसाध्वी रुकमणि देवी के नाम से लक्ष्मीजी का ही अंश प्रकट हुआ था। सती-साध्वी द्रौपदी शची के अंश से उत्पन्न्न हुई थी। वह राजा द्रौपद के कुल में यज्ञ की वेदी के मध्य भाग से एक अनिन्द्य सुन्दरी कुमारी कन्या के रूप में पकट हुई थी। उसके अंगों से नीलकमल की सुगन्ध फैलती रहती थी। उसके नेत्र कमल के समान सुन्दर और विशाल थे। नितम्‍ब भाग बड़ा ही मनोहर था और उसके काले-काले घुघराले बालों का सौन्दर्य भी अद्भुत था। वह समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न तथा वैदुर्य मणि के समान कान्तिमति थी।
एकान्त में रहकर वह पांचों पुरुषों प्रवर पाण्डवों के मन को मुग्ध किये रहती थी। सिद्धि और धृति नाम वाली जो दो देवियां हैं, वे ही पांचों पाण्डवों की दोनों माताओं- कुन्ती और माद्री के रूप में उत्पन्न हुई थी। सुबल-नरेश की पुत्री गान्धारी के रूप में साक्षात मति देवी ही प्रकट हुई थी। राजन्! इस प्रकार तुम्हें देवताओं, असुरों, गन्धर्वों, अप्सराओं तथा राक्षसों के अंशों का अवतरण बताया गया। युद्ध में उन्मत्त रहने वाले जो-जो राजा इस पृथ्वी पर उत्पन्न हुए थे और जो-जो महात्मा क्षत्रिय यादवों के विशाल कुल में प्रकट हुए थे, वे ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्‍य जो भी रहे हैं, उन सबके स्वरूप का मैंने परिचय तुम्हें दे दिया है। मनुष्य को चाहिये कि वह दोष-दृष्टि का त्याग करके इस अंशावरतरण के प्रसंग को सुने। यह धन, यश, पुत्र, आयु तथा विजय की प्राप्ति कराने वाला है। देवता, गन्धर्व तथा राक्षसों के इस अंशावतरण को सुनकर विश्‍व की उत्पत्ति और प्रलय के अधिष्ठान परमात्मा के स्वरूप को जानने वाला प्राज्ञ बड़ी-बड़ी विपत्तियों में भी दुखी नहीं होता।[7]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 67 श्लोक 1-40
  2. 2.0 2.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 67 श्लोक 41-68
  3. 3.0 3.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 67 श्लोक 69-92
  4. 4.0 4.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 67 श्लोक 93-115
  5. 5.0 5.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 67 श्लोक 116-134
  6. 6.0 6.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 67 श्लोक 135-154
  7. महाभारत आदि पर्व अध्याय 67 श्लोक 155-164

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पुरुवंश का वर्णन | पुरुवंश, भरतवंश एवं पाण्डुवंश की परम्परा का वर्णन | महाभिष को ब्रह्माजी का शाप | शापग्रस्त वसुओं के साथ गंगा की बातचीत | प्रतीक का गंगा को पुत्र वधू के रूप में स्वीकार करना | शान्तनु का जन्म एवं राज्याभिषेक | शान्तनु और गंगा का शर्तों के साथ विवाह | वसुओं का जन्म एवं शाप से उद्धार | भीष्म का जन्म | वसिष्ठ द्वारा वसुओं को शाप प्राप्त होने की कथा | शान्तनु के रूप, गुण और सदाचार की प्रशंसा | गंगाजी को सुशिक्षित पुत्र की प्राप्ति | देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा | सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद, विचित्रवीर्य की उत्पत्ति | शान्तनु और चित्रांगद का निधन | विचित्रवीर्य का राज्याभिषेक | भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का हरण | भीष्म द्वारा सब राजाओं एवं शाल्व की पराजय | अम्बिका, अम्बालिका के साथ विचित्रवीर्य का विवाह | विचित्रवीर्य का निधन | सत्यवती का भीष्म से राज्य-ग्रहण का आग्रह | भीष्म की सम्मति से सत्यवती द्वारा व्यास का आवाहन | सत्यवती की आज्ञा से व्यास को अम्बिका, अम्बालिका के गर्भ में संतानोत्पादन की स्वीकृति | व्यास द्वारा विचित्रवीर्य के क्षेत्र से धृतराष्ट्र, पाण्डु, विदुर की उत्पत्ति | महर्षि माण्डव्य का शूली पर चढ़ाया जाना | माण्डव्य का धर्मराज को शाप देना | कुरुदेश की सर्वागीण उन्नति का दिग्दर्शन | धृतराष्ट्र का विवाह | कुन्ती को दुर्वासा से मंत्र की प्राप्ति | कुन्ती द्वारा सूर्यदेव का आवाहन एवं कर्ण का जन्म | कर्ण द्वारा इन्द्र को कवच-कुण्डलों का दान | कुन्ती द्वारा स्वयंवर में पाण्डु का वरण एवं विवाह | माद्री के साथ पाण्डु का विवाह | पाण्डु का पत्नियों सहित वन में निवास | विदुर का विवाह | धृतराष्ट्र के गांधारी से सौ पुत्र और एक पुत्री की उत्पत्ति | धृतराष्ट्र को सेवा करने वाली वैश्य जातीय युवती से युयुत्सु की प्राप्ति | दु:शला के जन्म की कथा | धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों की नामावली | पाण्डु द्वारा मृगरूप धारी मुनि का वध | पाण्डु का अनुताप, संन्यास लेने का निश्चय | पाण्डु का पत्नियों के अनुरोध से वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश | पाण्डु का कुन्ती को पुत्र-प्राप्ति का आदेश | कुन्ती का पाण्डु को भद्रा द्वारा पुत्र-प्राप्ति का कथन | पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती का पुत्रोत्पत्ति के लिए धर्मदेवता का आवाहन | युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की उत्पत्ति | नकुल और सहदेव की उत्पत्ति | पाण्डु पुत्रों का नामकरण संस्कार | पाण्डु की मृत्यु और माद्री का चितारोहण | ऋषियों का कुन्ती और पाण्डवों को लेकर हस्तिनापुर जाना | पाण्डु और माद्री की अस्थियों का दाह-संस्कार | पाण्डवों और धृतराष्ट्र पुत्रों की बालक्रीडाएँ | दुर्योधन का भीम को विष खिलाना | भीम का नागलोक में पहुँच आठ कुण्डों का दिव्य रस पान करना | भीम के न आने से कुन्ती की चिन्ता | नागलोक से भीम का आगमन | कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति | द्रोण को परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की प्राप्ति | द्रोण का द्रुपद से तिरस्कृत हो हस्तिनापुर में आना | द्रोण की राजकुमारों से भेंट | भीष्म का द्रोण को सम्मानपूर्वक रखना | द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा | एकलव्य की गुरु-भक्ति | द्रोणाचार्य द्वारा शिष्यों की परीक्षा | अर्जुन द्वारा लक्ष्यवेध | द्रोण का ग्राह से छुटकारा | अर्जुन को ब्रह्मशिर अस्त्र की प्राप्ति | राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना | भीम, दुर्योधन और अर्जुन द्वारा अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन | कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक | भीम द्वारा कर्ण का तिरस्कार और दुर्योधन द्वारा सम्मान | द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण | अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना | द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना | युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक | पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता | कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश
जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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