तपोवन और कण्व के आश्रम का वर्णन

राजा दुष्यंत वन में शिकार के लिये जाते है और वहाँ वे अनेक भंयकर जीव- जन्तुओं का वध करते है तभी वह एक हिसंक जीव का पीछा करते हुये एक दूसरे वन में प्रवेश कर जाते है, जो कि एक विशाल और मनोहारी वन था, जिसका विवरण महाभारत आदिपर्व के ‘सम्भवपर्व’ के अंतर्गत अध्याय 70 के अनुसार इस प्रकार है[1]-

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! तदनन्तर सेना और सवारियों के साथ राजा दुष्यन्त सहस्रों हिंसक पशुओं का वध करके एक हिंसक पशु का ही पीछा करते हुए दूसरे वन में प्रवेश किया। उस समय उत्तम वल से युक्त महाराज दुष्यन्त अकेले ही थे तथा भूख, प्यास और थकावट से शिथिल हो रहे थे। उस वन के दूसरे छोर में पहुँचने पर उन्हें एक बहुत बड़ा ऊसर मैदान मिला, जहाँ वृक्ष आदि नहीं थे। उस वृक्ष शून्य ऊसर भूमि को लांघकर महाराज दुष्यन्त दूसरे विशाल वन में जा पहुँचे, जो अनेक उत्तम आश्रमों से सुशोभित था, देखने में अत्यन्त सुन्दर होने साथ ही वह मन में अद्भुत आनन्दोल्लास की सृष्टि कर रहा था। उस वन में शीतल वायु चल रही थी। वहाँ वृक्ष फूलों से भरे थे ओर वन में सब ओर वयाप्त हो उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ अत्यनत सुखद हरी-हरी कोमल घास उगी हुई थी।
बह वन बहुत बड़ा था और मीठी बोली बोलने वाले विविध विहंगमों के करलवों से गूंज रहा था। उसमें कही कोकिलों की कूहू-कूहू सुन पड़ती थी तो कहीं झींगुरों की झीनी झनकार गूंज रही थी। वहाँ सब ओर बड़ी-बड़ी शाखाओं वाले विशाल वृक्ष अपनी सुखद शीतल छाया किये हुए थे और उन वृक्षों के नीचे सब ओर भ्रमर मंडरा रहे थे। इस प्रकार वहाँ सर्वत्र बड़ी भारी शोभा छा रही थी। उस वन में एक भी वृक्ष ऐसा नहीं था, जिसमें फूल और फल न लगे हों तथा भौरे न बैठे हों। कांटेदार वृक्ष तो वहाँ ढूंढने पर भी नहीं मिलता था। सब ओर अनेकानेक पक्षी चहक रहे थे। भाँति-भाँति के पुण्य उस सन की अत्यन्त शोभा बढ़ा रहे थे। सभी ऋतुओं में फूल देने वाले सुखद छायायुक्त वृक्ष चारों ओर फैले हुए थे। महान धनुर्धर राजा दुष्यन्त ने इस प्रकार मन को मोह लेने वाले उस उत्तम वन प्रवेश किया।
उस समय फूलों से भरी हुई डालियों वाले वृक्ष वायु के झकोरे से हिल-हिल कर उनके ऊपर बार-बार अद्भुत पुष्प वर्षा करने लगे। वे वृक्ष इतने ऊंचे थे, मानो आकाश को छू लेंगे। उन पर बैठे हुए मीठी बोली बोलने वाले पक्षियों के मधुर शब्द वहाँ गूंज रहे थे। उस वन में पुष्प रूपी विचित्र वस्त्र धारण करने वाले वृक्ष अद्भुत शोभा पा रहे थे। फूलों के भार से झुके हुए उनके कोमल पल्लवों पर बैठे हुए मधु लोभी भृमर मधुर गुंजार कर रहे थे। राजा दुष्यन्त ने वहाँ बहुत से ऐसे रमणीय प्रदेश देखे जो फूलों के ढ़ेर से सुशोभित तथा लता मण्डपों से अलंकृत थे। मन की प्रसन्नता को बढ़ाने वाले उन मनोहर प्रदेशों का अवलोकन करके उस महातेजस्वी राजा को बड़ा हर्ष हुआ। फूलों से लदे हुए वृक्ष एक-दूसरे से अपनी डालियों को सटाकर मानों गले मिल रहे थे। वे गगनचुंवी वृक्ष इन्द्र की ध्वजा के समान जान पड़ते थे और उनके कारण उस वन की बड़ी शोभा हो रही थी। सिद्व-चारण समुदाय तथा गन्धर्व और अप्सराओं के समूह भी उस वन का अत्यन्त सेवन करते थे। वहाँ मतवाले बानर और किन्नर निवास करते थे। उस वन में शीतल, सुगन्ध, सुखदायिनी मन्द वायु फूलों के पराग वहन करती हुई मानो रमण की इच्छा से बार-बार वृक्षों के समीप आती थी।
वह वनमालिनी नदी के कछार में फैला हुआ था और ऊंची ध्वजाओं के समान ऊंचे वृक्षों से भरा होने के कारण अत्यन्त मनोहर जान पड़ता था। राजा ने इस प्रकार उत्तम गुणों से युक्त उस वन का भलीभाँति अवलोकन किया। इस प्रकार राजा अभी वन की शोभा देख ही रहे थे कि उनकी दृष्टि एक उत्तम आश्रम पर पड़ी, जो अत्यन्त रमणीय और मनोरम था। वहाँ बहुत से पक्षी हर्षोल्लास से भरकर चहक रहे थे। नाना प्रकार के वृक्षों से भरपूर उस वन में स्थान-स्थान पर अग्निहोत्र की आग प्रज्वलित हो रही थी। इस प्रकार उस अनुपम आश्रम का श्रीमान् दुष्यन्त नरेश ने मन-ही-मन बड़ा सम्मान किया। वहाँ बहुत से त्यागी-विरागी, यती, बालखिल्य ऋषि तथा अन्य मुनिगण निवास करते थे।
अनेकानेक अग्निहोत्र ग्रह उस आश्रम की शोभा बढ़ा रहे थे। वहाँ इतने फूल झड़ कर गिरे थे कि उनके बिछोने से बिछ गये थे। बड़े-बड़े तून के वृक्षों से उस आश्रम की शोभा बहुत बढ़ गयी थी। राजन्! बीच में पुण्य सलिला मालिनी नदी वहती थी, जिसका जल बड़ा ही सुखद एवं स्वादिष्ट था। उसके दोनों तटों पर वह आश्रम फैला हुआ था। मालिनी में अनेक प्रकार के जल पक्षी निवास करते थे और तटवर्ती तपोवन के कारण उसकी मनोहरता और बढ गयी थी। वहाँ विषधर सर्प और हिंसक वन जन्तु भी सौम्य भाव (हिंसा शून्य कोमल प्रवृति) से रहते थे। यह सब देखकर राजा को बड़ी प्रसन्नता हुई। श्रीमान् दुष्यन्त नरेश अप्रतिरथ वीर थे- उस समय उनकी समानता करने वाला भूमण्डल में दूसरा कोई रथी योद्वा नहीं था। वे उक्त आश्रम के समीप जा पहुँचे, जो देवताओं का लोक प्रतीत होता था।
वह आश्रम सब ओर से अत्यन्त मनोहर था। राजा ने आश्रम से सटकर बहने वाले पुण्य सलिला मानिली नदी की ओर भी दृष्टिपात किया; जो वहाँ समस्त प्राणियों की जननी-सी विराज रही थी। उसके तट पर चकवा-चकई किलोल कर रहे थे। नदी के जल में बहुत से फूल इस प्रकार बह रहे थे मानो फैन हों। उसके तट प्रान्त में किन्नरों के निवास स्थान थे। बानर और रीछ भी उस नदी का सेवन करते थे। अनेक सुन्दर कुलिन मालिनी की शोभा बढ़ा रहे थे। वेद-षास्त्रों के पवित्र स्वाध्याय की ध्वनि से उस सरिता का निकटवर्ती प्रदेश गूंज रहा था। मतवाले हाथी, सिंह और बड़े-बड़े सर्प भी मालिनी के तट का आश्रय लेकर रहते थे। उसके तट पर ही कश्‍यप गोत्रीय महात्मा कण्व का बह उत्तम एवं रमणीय आश्रम था। वहाँ महर्षियों के समुदाय निवास करते थे।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत आदि पर्व अध्याय 70 श्लोक 1-16
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 70 श्लोक 17-32

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
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हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
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