पाण्डु की मृत्यु और माद्री का चितारोहण

महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 124 के अनुसार पाण्डु की मृत्यु और माद्री की चितारोहण की कथा का वर्णन इस प्रकार है।[1]-

पाण्डु और माद्री का अकेले में मिलन

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! उस महान् वन में रमणीय पर्वत-शिखर पर महाराज पाण्‍डु उन पांचों दर्शनीय पुत्रों को देखते हुए अपने बाहुबल के सहारे प्रसन्नतापूर्वक निवास करने लगे। एक दिन की बात है, बुद्धिमान् अर्जुन का चौदहवां वर्ष पूरा हुआ था। उनकी जन्‍म-तिथी को उत्तराफाल्‍गुनी नक्षत्र में ब्राह्मण लोगों ने स्‍वस्तिवाचन प्रारम्‍भ किया। उस समय कुन्‍ती देवी को महाराज पाण्‍डु की देख-भाल का ध्‍यान न रहा। वे ब्राह्मणों को भोजन कराने में लग गयीं। पुरोहित के साथ स्‍वयं ही उनको रसोई परोसने लगीं। इसी समय काम मोहित पाण्‍डु माद्री को बुलाकर अपने साथ ले गये। उस समय चैत्र और वैशाख के महीनों की संधि का समय था, समूचा वन भाँति-भाँति के सुन्‍दर पुष्‍पों से अलंकृत हो अपनी अनुपम शोभा से समस्‍त प्राणियों को मोहित कर रहा था, राजा पाण्‍डु अपनी छोटी रानी के साथ वन में विचरने लगे। पलाश, तिलक, आम, चम्‍पा, पारिभद्रक तथा और भी बहुत-से वृक्ष-फूलों की समद्धि से भरे हुए थे। जो उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे। नाना प्रकार के जलाशयों तथा कमलों से सुशोभित उस वन की मनोहर छटा देखकर राजा पाण्‍डु के मन में काम का संचार हो गया। वे मन में हर्षोल्‍लास भरकर देवता की भाँति वहाँ विचर रहे थे।[1]

पाण्डु की मृत्यु

उस समय माद्री सुन्‍दर वस्त्र पहिने अकेली उनके पीछे-पीछे जा रही थी। वह युवावस्‍था से युक्त थी और उसके शरीर पर झीनी-झीनी साड़ी सुशोभित थी। उसकी ओर देखते ही पाण्‍डु के मन में कामना की आग जल उठी, मानो घने वन में दावाग्नि प्रज्‍वलित हो उठी हो। एकान्‍त प्रदेश में कमल नयनी माद्री को अकेली देखकर राजा काम का वेग रोक न सके, वे पूर्णत: कामदेव के अधीन हो गये थे। अत: एकान्‍त में मिली हुई माद्री को महाराज पाण्‍डु ने बलपूर्वक पकड़ लिया। देवी माद्री राजा की पकड़ से छूटने के लिये यथाशक्ति चेष्टा करती हुई उन्‍हें बार-बार रोक रही थी। परंतु उनके मन पर तो कामना का वेग सवार था; अत: उन्‍होंने मृग रूपधारी मुनि से प्राप्त शाप का विचार नहीं किया। कुरुनन्‍दन जनमेजय! वे काम के वश में हो गये थे, इसीलिये प्रारब्‍ध से प्रेरित हो शाप के भय की अवहेलना करके स्‍वयं ही अपने जीवन का अन्‍त करने के लिये बलपूर्वक मैथुन करने की इच्‍छा रखकर माद्री से लिपट गये। साक्षात् काल ने कामात्‍मा पाण्‍डु की बुद्धि मोह ली थी। उनकी बुद्धि सम्‍पूर्ण इन्द्रियों को मथकर विचार शक्ति के साथ स्‍वयं भी नष्ट हो गयी थी। कुरुकुल को आनन्दित करने वाले परम धर्मात्‍मा महाराज पाण्‍डु इस प्रकार अपनी धर्मपत्नी माद्री से समागम करके काल के गाल में पड़ गये। तब माद्री राजा के शव से लिपटकर बार-बार अत्‍यन्‍त दु:ख भरी वाणी में विलाप करने लगी। इतने में ही पुत्रों सहित कुन्‍ती और दोनों पाण्‍डुनन्‍दन माद्री कुमार एक साथ उस स्‍थान पर आ पहुँचे, जहाँ राजा पाण्‍डु मृतकावस्‍था में पड़े थे।[1]

माद्री और कुन्ती का विलाप

जनमेजय! यह देख शोकातुर माद्री ने कुन्‍ती से कहा- बहिन! आप अकेली ही यहाँ आयें। बच्चों को वहीं रहने दें।। माद्री का यह वचन सुनकर कुन्‍ती ने सब बालकों को वहीं रोक दिया और हाय! मैं मारी गयी इस प्रकार आर्तनाद करती हुई सहसा माद्री के पास आ पहुँची। आकर उसने देखा, पाण्‍डु और माद्री धरती पर पड़े हुए हैं। यह देख कुन्‍ती के सम्‍पूर्ण शरीर में शोकाग्नि व्‍यात हो गयी और वह अत्‍यन्‍त दुखी होकर विलाप करने लगी-। माद्री! मैं सदा वीर एवं जितेन्द्रिय महाराज की रक्षा करती आ रही थी। उन्‍होंने मृग के शाप की बात जानते हुए भी तुम्‍हारे साथ बलपूर्वक समागम कैसे किया?। माद्री! तुम्‍हें तो महाराज की रक्षा करनी चाहिये थी। तुमने एकान्‍त में उन्‍हें लुभाया क्‍यों?। वे तो उस शाप का चिन्‍तन करते हुए सदा दीन और उदास बने रहते थे, फि‍र तुझको एकान्‍त में पाकर उनके मन में कामजनित हर्ष कैसे उत्‍पन्न हुआ ?। बाह्रीक राजकुमारी! तुम धन्‍य हो, मुझसे बड़ भागिनी हो; क्‍योंकि तुमने हर्षोल्‍लास से भरे हुए महाराज के मुखचन्‍द्र का दर्शन किया है। माद्री बोली- महारानी! मैंने रोते-विलखते बार-बार महाराज को रोकने की चेष्टा की; परंतु वे तो उस शाप जनित दुर्भाग्‍य को मोह के कारण मानो सत्‍य करना चाहते थे, इसलिये अपने-आप को रोक न सके। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! माद्री का यह वचन सुनकर कुन्‍ती शोकाग्नि ने संतप्त हो जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति सहसा पृथ्‍वी पर गिर पड़ी और गिरते ही मूर्च्‍छा आ जाने के कारण निश्‍चेष्ट पड़ी रही, हिल-डुल भी ना सकी। वह मूर्च्‍छावश अचेत हो गयी थी। माद्री ने उसे उठाया और कहा- बहिन! आइये, आइये! यों कहकर उसने कुन्‍ती को कुरुराज पाण्‍डु का दर्शन कराया। कुन्‍ती उठकर पुन: महाराज पाण्‍डु के चरणों में गिर पड़ी। महाराज के मुख पर मुस्‍कराहट थी और ऐसा जान पड़ता था मानो वे अभी-अभी कोई बात कहने जा रहे हैं। उस समय मोहवश उन्‍हें हृदय ले लगाकर कुन्‍ती विलाप करने लगी। उसकी सारी इन्द्रियां व्‍याकुल हो गयी थीं। इसी प्रकार माद्री भी राजा का आलिंगन करके करुण विलाप करने लगी। इस प्रकार मृत्‍यु शय्‍या पर पड़े हुए पाण्‍डु के पास चारणों सहित ऋषि-मुनि जुट आये और शोकवश आंसू बहाने लगे। अस्‍ताचल को पहुँचे हुए सूर्य तथा एकदम सूखे हुए समुद्र की भाँति नरश्रेष्ठ पाण्‍डु को देखकर सभी मह‍र्षि शोकमग्न हो गये। उस समय ऋषियों को तथा पाण्‍डु पुत्रों को समान रूप से शोक का अनुभव हो रहा था। ब्राह्मणों ने पाण्‍डु की दोनों सती-साध्‍वी रानियों को समझा-बुझाकर बहुत आश्वासन दिया, तो भी उनका विलाप बंद नहीं हुआ। कुन्‍ती बोली- हा! महाराज! आप हम दोनों को किसे सौंपकर स्‍वर्गलोक में जा रहे हैं। हाय! मैं कितनी भाग्‍यहीना हूँ। मेरे राजा! आप किस लिये अकेली माद्री से मिलकर सहसा काल के गाल में चले गये। मेरा भाग्‍य नष्ट हो जाने के कारण ही आज वह दिन देखना पड़ा है। प्रजानाथ! युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल-सहदेव- इन प्‍यारे पुत्रों को किसके जिम्‍मे छोड़कर आप चले गये? भारत! निश्चय ही देवता आपका अभिनन्‍दन करते होंगे; क्‍योंकि आपने ब्राह्मणों की मण्‍डली में रहकर कठोर तपस्‍या की है। अजमीढ़- कुलनन्‍दन! आपके पूर्वजों ने पुण्‍य-कर्मों द्वारा जिस गति को प्राप्त किया है, उसी शुभ स्‍वर्गीय गति को आप हम दोनों पत्नियों के साथ प्राप्त करेंगे।। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार अत्‍यन्‍त विलाप करके कुन्‍ती और माद्री दोनों अचेत हो पृथ्‍वी पर गिर पड़ीं। युधिष्ठिर आदि सभी पाण्‍डव वेद विद्या में पारंगत हो चुके थे, वे भी पिता के समीप जाकर संज्ञाशून्‍य हो पृथ्‍वी पर गिर पड़े। सभी पाण्‍डव पाण्‍डु के चरणों को हृदय से लगाकर विलाप करने लगे।[2]-

कुन्ती का माद्री को आदेश

कुन्‍ती ने कहा- माद्री! मैं इनकी ज्‍येष्ठ धर्म पत्नी हूं, अत: धर्म के ज्‍येष्ठ फल पर भी मेरा ही अधिकार है। जो अवश्‍यम्‍भावी बात है, उससे मुझे मत रोको। मैं मृत्‍यु के वश में पड़े हुए अपने स्‍वामी का अनुगमन करूंगी। अब तुम इन्‍हें छोड़कर उठो और इन वच्चों का पालन करो। पुत्रों को पाकर मेरा लौकिक मनोरथ पूर्ण हो चुका है; अब मैं पति के साथ दग्‍ध होकर वीर पत्नी का पद पाना चाहती हूँ।

माद्री का कुन्ती से आग्रह

माद्री बोली- रणभूमि से कभी पीठ न दिखाने वाले अपने पतिदेव के साथ मैं ही जाऊंगी; क्‍योंकि उनके साथ होने वाले कामभोग से मैं तृप्त नहीं हो सकी हूँ। आप बड़ी बहिन हैं, इसलिये मुझे आपको आज्ञा प्रदान करनी चाहिये। वे भरतश्रेष्ठ मेरे प्रति आसक्त हो मुझसे समागम करके मृत्‍यु को प्राप्त हुए हैं; अत: मुझे किसी प्रकार परलोक में पहुँचकर उनकी उस कामवासना की निवृत्ति करनी चाहिये।। आर्ये! मैं आपके पुत्रों के साथ अपने सगे पुत्रों की भाँति बर्ताव नहीं कर सकूंगी। उस दशा में मुझे पाप लगेगा। अत: आप ही जीवित रहकर मेरे पुत्रों का भी अपने पुत्रों के समान ही पालन कीजियेगा। इसके सिवा ये महाराज मेरी ही कामना रखकर मृत्‍यु के अधीन हुए हैं।[2]

ऋषियों द्वारा कुन्ती और माद्री को समझाना

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- तदनन्‍तर तपस्‍वी ऋषियों ने सत्‍यपराक्रमी पाण्‍डवों को धीरज बंधाकर कुन्‍ती और माद्री को भी आश्वासन देते हुए कहा- सुभगे! तुम दोनों के पुत्र अभी बालक हैं, अत: तुम्‍हें किसी प्रकार देह-त्‍याग नहीं करना चाहिये। हम लोग शत्रुदमन पाण्‍डवों को कौरव राष्ट्र की राजधानी में पहुँचा देंगे। राजा धृतराष्ट्र अधर्ममय धन के लिये लोभ रखता है, अत: वह कभी पाण्‍डवों के साथ यथा योग्‍य बर्ताव नहीं कर सकता। कुन्‍ती के रक्षक एवं सहायक वृष्णिवंशी और राजा कुन्तिभोज हैं तथा माद्री के बलवानों में श्रेष्ठ महारथी शल्‍य उसके भाई हैं। इसमें संदेह नहीं कि पति के साथ मृत्‍यु स्‍वीकार करना प‍त्नी के लिये महान् फलदायक होता है; तथापि तुम दोनों के लिये यह कार्य अत्‍यन्‍त कठोर है, यह बात सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण कहते हैं। जो स्त्री साध्‍वी होती है, वह अपने पति की मृत्‍यु हो जाने के बाद ब्रह्मचर्य के पालन में अविचल भाव से लगी रहती है, यम और नियमों के पालन का क्‍लेश सहन करती है और मन, वाणी एवं शरीर द्वारा किये जाने वाले शुभ कर्मों तथा कृच्‍छ्र चान्‍द्रायणदि व्रत, उपवास और नियमों का अनुष्ठान करती है। वह क्षार (पापड़ आदि) और लवण का त्‍याग करके एक बार ही भोजन करती और भूमि पर शयन करती है। वह जिस प्रकार से अपने शरीर को सुखाने के प्रयत्न में लगी रहती है। किंतु विषयों के द्वारा नष्‍ट हुई बुद्धि वाली जो नारी देह को पुष्‍ट करने में ही लगी रहती है, वह तो इस (दुर्लभ मनुष्‍य-) शरीर को व्‍यर्थ ही नष्ट करके नि:संदेह महान् नरक को प्राप्त होती है। अत: साध्‍वी स्त्री को उचित है कि वह अपने शरीर को सुखावे, जिससे सम्‍पूर्ण विषय-कामनाऐं नष्ट हो जायं। इस प्रकार उपर्युक्त धर्म का पालन करने वाली जो शुभ लक्षणा नारी अपने पति देव का चिन्‍तन करती रहती है, वह अपने पति का भी उद्धार कर देती है। इस तरह वह स्‍वयं अपने को, अपने पति को एवं पुत्र को भी संसार से तार देती है। अत: हम लोग तो यही अच्‍छा मानते हैं कि तुम दोनों जीवन धारण करो।। कुन्‍ती बोली- महात्‍माओ! हमारे लिये महाराज पाण्‍डु की आज्ञा जैसे शिरोधार्य है, उसी प्रकार आप सब ब्राह्मणों की भी है। आपका आदेश मैं सिर-माथे रखती हूँ। आप जैसा कहेंगे, वैसा ही करूंगी। पूज्‍यपाद विप्रगण जैसा कहते हैं, उसी को मैं अपने पति, पुत्रों तथा अपने आपके लिये भी परम कल्‍याण कारी समझती हूं- इसमें तनिक भी संशय नहीं है।[3]

माद्री द्वारा कुन्ती से पुन: आग्रह

माद्री ने कहा- कुन्‍तीदेवी सभी पुत्रों के योग-क्षेम के निर्वाह में-पालन-पोषण में समर्थ हैं। कोई भी स्त्री, चाहे वह अरुन्धती ही क्‍यों न हो, बुद्धि में इनकी समानता नहीं कर सकती। वृष्णिवंश के लोग तथा महाराज कुन्तिभोज भी कुन्‍ती के रक्षक एवं सहायक हैं। बहिन! पुत्रों के पालन-पोषण की शक्ति जैसी आप में है, वैसी मुझमें नहीं है। अत: मैं पति का ही अनुगमन करना चाहती हूँ। पति के संयोग-सुख से मेरी तृप्ति भी नहीं हुई है। अत: आप बड़ी महारानी से मेरी प्रार्थना है कि मुझे पति लोक में जाने की आज्ञा दें। मैं वहीं धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्‍यप्रतिज्ञ और बुद्धिमान् पति के चरणों की सेवा करूंगी। आर्ये! आप मेरी इस इच्‍छा का अनुमोदन करें।[3]

माद्री का अपने दोनों पुत्रों को कुन्ती को सौंपना

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- महाराज! यों कहकर मद्र देश की राजकुमारी सती-साध्‍वी माद्री ने कुन्‍ती को प्रणाम करके अपने दोनों जुड़वे पुत्र उन्‍हीं हो सौंप दिये। तत्‍पश्चात् उसने महर्षियों को मस्‍तक नवाकर पाण्‍डवों को हृदय से लगा लिया और बार-बार कुन्‍ती के तथा अपने पुत्रों के मस्‍तक सूंघकर युधिष्ठिर का हाथ पकड़कर कहा।। माद्री बोली-वच्चों! कुन्‍तीदेवी ही तुम सबों की असली माता है, मैं तो केवल दूध पिलाने वाली धाय थी। तुम्‍हारे पिता तो मर गये। अब बड़े भैया युघिष्ठिर ही धर्मत: तुम चारों भाइयों के पिता हैं। तुम सब बड़े-बूढ़ों-गुरुजनों की सेवा में संलग्न रहना और सत्‍य एवं धर्म के पालन से कभी मुंह न मोड़ना। ऐसा करने वाले लोग कभी नष्ट नहीं होते और न कभी उनकी पराजय ही होती है। अत: तुम सब भाई आलस्‍य छोड़कर गुरुजनों की सेवा में तत्‍पर रहना।। वैशम्‍पायनजी ने कहा- राजन्! तत्‍पश्चात् माद्री ने ऋषियों तथा कुन्‍ती को बारंबार नमस्‍कार करके, क्‍लेश से क्लांत होकर कुन्‍ती देवी से दीनता पूर्वक कहा- वृष्णिकुल नन्दिनि! आप धन्‍य हैं। आपकी समानता करने वाली दूसरी कोई स्त्री नहीं है; क्‍योंकि आपको इन अमित तेजस्‍वी तथा यशस्‍वी पांचों पुत्रों के बल, पराक्रम, तेज, योग बल तथा महात्‍म्‍य देखने का सौभाग्‍य प्राप्त होगा।

कुन्ती का माद्री को चितारोहण की आज्ञा देना

मैंने स्‍वर्गलोक में जाने की इच्‍छा रखकर इन महर्षियों के समीप जो यह बात कही है, वह कदापि मिथ्‍या न हो। देवि! आप मेरी गुरु, वन्‍दनीया तथा पूजनीया हैं; अवस्‍था में बड़ी तथा युणों में भी श्रेष्ठ हैं। समस्‍त नैसर्गिक सद्गुण आपकी शोभा बढ़ाते हैं। यादवनन्दिनि! अब मैं आपकी आज्ञा चाहती हूँ। आपके प्रयत्न द्वारा जैसे भी मुझे धर्म, स्‍वर्ग तथा कीर्ति की प्राप्ति हो, वैसा सहयोग आप इस अवसर पर करें। मन में किसी दूसरे विचार को स्‍थान न दें।। तब यशस्विनी कुन्‍ती ने वाष्‍पगद्नद वाणी में कहा- कल्‍याणि! मैंने तुम्‍हें आज्ञा दे दी। विशाल लोचने! तुम्‍हें आज ही स्‍वर्गलोक में पति का समागम प्राप्त हों भमिनि! तुम स्‍वर्गलोक में पति से मिलकर अनन्‍त वर्षों तक प्रसन्न रहो। माद्री बोली- मेरे इस शरीर को महाराज के शरीर के साथ ही अच्‍छी प्रकार ढंककर दग्ध कर देना चाहिये। बड़ी बहिन। आप मेरा यह प्रिय कार्य कर दें।[3]

माद्री का पाण्डु के साथ चितारोहण

मेरे पुत्रों का हित चाहती हुई सावधान रहकर उनका पालन-पोषण करें। इसके सिवा दूसरी कोई बात मुझे आपसे कहने योग्‍य नहीं जान पड़ती। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! कुन्‍ती से यह कहकर पाण्‍डु की यशस्विनी धर्मपत्नी माद्री चिता की आग पर रक्‍खे हुए नरश्रेष्ठ पाण्‍डु के शव के साथ स्‍वयं भी चिता पर जा बैठी। तदनन्‍तर प्रेत कर्म के पारंगत विद्वान् पुरोहित काश्‍यप ने स्नान करके सुवर्ण खण्‍ड, घृत, तिल, दही, चावल, जल से भरा घड़ा और फरसा आदि वस्‍तुओं को एकत्र करके तपस्‍वी मुनियों द्वारा अश्वमेध की अग्नि मंगवायी और उसे चारों ओर से छुलाकर यथायोग्‍य शास्त्रीय विधि से पाण्‍डु का दाह-संस्‍कार करवाया। भाइयों सहित निष्‍पाप युधिष्ठिर ने नूतन वस्त्र धारण करके पुरोहित की आज्ञा के अनुसार जलाञ्जलि देने का कार्य पूरा किया। शतश्रृंग‍ निवासी तपस्‍वी मुनियों और चारणों ने आदरणीय राजा पाण्‍डु के परलोक-सम्‍बन्‍धी सब कार्य विधिपूर्वक सम्‍पन्न किये।[4]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत आदि पर्व अध्याय 124 श्लोक 1-14
  2. 2.0 2.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 124 श्लोक 1-14
  3. 3.0 3.1 3.2 महाभारत आदि पर्व अध्याय 124 श्लोक 1-14
  4. महाभारत आदि पर्व अध्याय 124 श्लोक 30-31

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पुरुवंश का वर्णन | पुरुवंश, भरतवंश एवं पाण्डुवंश की परम्परा का वर्णन | महाभिष को ब्रह्माजी का शाप | शापग्रस्त वसुओं के साथ गंगा की बातचीत | प्रतीक का गंगा को पुत्र वधू के रूप में स्वीकार करना | शान्तनु का जन्म एवं राज्याभिषेक | शान्तनु और गंगा का शर्तों के साथ विवाह | वसुओं का जन्म एवं शाप से उद्धार | भीष्म का जन्म | वसिष्ठ द्वारा वसुओं को शाप प्राप्त होने की कथा | शान्तनु के रूप, गुण और सदाचार की प्रशंसा | गंगाजी को सुशिक्षित पुत्र की प्राप्ति | देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा | सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद, विचित्रवीर्य की उत्पत्ति | शान्तनु और चित्रांगद का निधन | विचित्रवीर्य का राज्याभिषेक | भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का हरण | भीष्म द्वारा सब राजाओं एवं शाल्व की पराजय | अम्बिका, अम्बालिका के साथ विचित्रवीर्य का विवाह | विचित्रवीर्य का निधन | सत्यवती का भीष्म से राज्य-ग्रहण का आग्रह | भीष्म की सम्मति से सत्यवती द्वारा व्यास का आवाहन | सत्यवती की आज्ञा से व्यास को अम्बिका, अम्बालिका के गर्भ में संतानोत्पादन की स्वीकृति | व्यास द्वारा विचित्रवीर्य के क्षेत्र से धृतराष्ट्र, पाण्डु, विदुर की उत्पत्ति | महर्षि माण्डव्य का शूली पर चढ़ाया जाना | माण्डव्य का धर्मराज को शाप देना | कुरुदेश की सर्वागीण उन्नति का दिग्दर्शन | धृतराष्ट्र का विवाह | कुन्ती को दुर्वासा से मंत्र की प्राप्ति | कुन्ती द्वारा सूर्यदेव का आवाहन एवं कर्ण का जन्म | कर्ण द्वारा इन्द्र को कवच-कुण्डलों का दान | कुन्ती द्वारा स्वयंवर में पाण्डु का वरण एवं विवाह | माद्री के साथ पाण्डु का विवाह | पाण्डु का पत्नियों सहित वन में निवास | विदुर का विवाह | धृतराष्ट्र के गांधारी से सौ पुत्र और एक पुत्री की उत्पत्ति | धृतराष्ट्र को सेवा करने वाली वैश्य जातीय युवती से युयुत्सु की प्राप्ति | दु:शला के जन्म की कथा | धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों की नामावली | पाण्डु द्वारा मृगरूप धारी मुनि का वध | पाण्डु का अनुताप, संन्यास लेने का निश्चय | पाण्डु का पत्नियों के अनुरोध से वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश | पाण्डु का कुन्ती को पुत्र-प्राप्ति का आदेश | कुन्ती का पाण्डु को भद्रा द्वारा पुत्र-प्राप्ति का कथन | पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती का पुत्रोत्पत्ति के लिए धर्मदेवता का आवाहन | युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की उत्पत्ति | नकुल और सहदेव की उत्पत्ति | पाण्डु पुत्रों का नामकरण संस्कार | पाण्डु की मृत्यु और माद्री का चितारोहण | ऋषियों का कुन्ती और पाण्डवों को लेकर हस्तिनापुर जाना | पाण्डु और माद्री की अस्थियों का दाह-संस्कार | पाण्डवों और धृतराष्ट्र पुत्रों की बालक्रीडाएँ | दुर्योधन का भीम को विष खिलाना | भीम का नागलोक में पहुँच आठ कुण्डों का दिव्य रस पान करना | भीम के न आने से कुन्ती की चिन्ता | नागलोक से भीम का आगमन | कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति | द्रोण को परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की प्राप्ति | द्रोण का द्रुपद से तिरस्कृत हो हस्तिनापुर में आना | द्रोण की राजकुमारों से भेंट | भीष्म का द्रोण को सम्मानपूर्वक रखना | द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा | एकलव्य की गुरु-भक्ति | द्रोणाचार्य द्वारा शिष्यों की परीक्षा | अर्जुन द्वारा लक्ष्यवेध | द्रोण का ग्राह से छुटकारा | अर्जुन को ब्रह्मशिर अस्त्र की प्राप्ति | राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना | भीम, दुर्योधन और अर्जुन द्वारा अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन | कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक | भीम द्वारा कर्ण का तिरस्कार और दुर्योधन द्वारा सम्मान | द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण | अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना | द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना | युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक | पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता | कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश
जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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