मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति

महाभारत आदि पर्व के ‘मय दर्शन पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 228 के अनुसार मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

मन्दपाल को तपस्या का फल न मिलना

जनमेजय ने पूछा - ब्रह्मन्! इस प्रकार सारे वन के जलाये जाने पर भी अग्निदेव ने उन चारों शांर्गकों को क्यों दग्ध नहीं किया ? यह मुझे बताइये। विप्रवर! आपने अश्वसेन नाग तथा मय दानव के न जलने का कारण तो बताया है; परंतु शांर्गकों के दग्ध न होने का कारण नहीं कहा है। ब्रहान्! उस भयानक अग्निकाण्ड में उन शांर्गकों का सकुशल बच जाना, यह बड़े आश्चर्य की बात है। कृप्या बताइये, उनका नाश कैसे नहीं हुआ ? वैशम्पायन जी कहते हैं - शत्रुदमन जनमेजय! वैसे भयंकर अग्निकाण्ड में भी अग्निदेव ने जिस कारण से शांर्गकों को दग्ध नहीं किया और जिस प्रकार वह घटित हुई, वह सब मैं तुम्हें बताता हूँ, सुनो। मन्दपाल नाम से विख्यात एक विद्वान महर्षि थे। वे धर्मज्ञों में श्रेष्ठ और कठोर व्रत का पालन करने वाले तपस्वी थे। राजन्! वे ऊर्ध्वरेता मुनियों के मार्ग (ब्रह्मचर्य) का आश्रय लेकर सदा वेदों के स्वाध्याय में संलग्न और धर्मपालन में तत्पर रहते थे। उन्होंने सम्पूर्ण इन्द्रियों को वश में कर लिया था और वे सदा तपस्या में ही लगे रहते थे। भारत! वे अपनी तपस्या को पूरी करके शरीर का त्याग करने पर पितृलोक में गये; किंतु वहाँ उन्हें अपने तप एवं सत्कर्मों का फल नहीं मिला। उन्होंने तपस्या द्वारा वश में किये हुए लोकों को भी निष्फल देखकर धर्मराज के पास बैठे हुए देवताओं से पूछा। मन्दपाल बोले - देवताओं! मेरी तपस्या के द्वारा प्राप्त हुए ये लोक बंद क्यों हैं ? (उपभोग के साधनों से शून्य क्यों हैं ?) मैने वहाँ कौन सा सत्कर्म नहीं किया है, जिसका फल मुझे इस रूप में मिला है। जिसके लिये इस तपस्या का फल ढका हुआ है, मैं उस लोक में जाकर वह कर्म करूँगा। आप लोग मुझसे उसका बताइये।[1]

देवताओं का मन्दपाल को संतानोत्पत्ति के लिए प्रेरित करना

देवताओं ने कहा - ब्रह्मन्! मनुष्य जिस ऋण से ऋणी होकर जन्म लेते हैं, उसे सुनिये। यज्ञकर्म, ब्रह्मचर्य पालन और प्रजा की उत्पत्ति - इन तीनों के लिये सभी मनुष्यों पर ऋण रहता है, इसमें संशय नहीं है। यज्ञ, तपस्या और वेदाध्ययन के द्वारा वह सारा ऋण दूर किया जाता है। आप तपस्वी और यज्ञकर्ता तो हैं ही, आप के कोई संतान नहीं है। अतः संतान के लिये ही आपके ये लोक ढ़के हुए हैं। इसलिये पहले संतान उत्पन्न कीजिये, फिर अपने प्रचुर पुण्यलोकों का फल भोगियेगा। श्रुतिका कथन है कि पुत्र ‘पुत्’ नामक नरक से पिता का उद्धार करता है। अतः विप्रवर! आप अपनी वंश परम्परा की अविच्छिन्न बनाने का प्रयत्न कीजिये।[1]

मन्दपाल द्वारा जरिता को पुत्र प्राप्ति

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! देवताओं का वह वचन सुनकर मन्दपाल ने बहुत सोचा विचारा कि कहाँ जाने से मुझे शीघ्र संतान होगी। यह सोचते हुए वे अधिक बच्चे देने वाले पक्षियों के यहाँ गये और शांर्गिक होकर जरिता नाम वाली शांर्गिका से सम्बन्ध स्थापित किया। जरिता के गर्भ से चार ब्रह्मवादी पुत्रों को मुनि ने जन्म दिया।[1]

मन्दपाल का जरिता को छोड़कर जाना

अंडे में पड़े हुए उन बच्चों को माता सहित वहीं छोड़कर वे मुनि वन में लपिता के पास चले गये।[1] भारत! महाभाग मन्दपाल मुनि के लपिता के पास चले जाने पर संतान के प्रति स्नेहयुक्त जरिता को बड़ी चिन्ता हुई। अंडे में स्थित उन मुनियों को यद्यपि मन्दपाल ने त्याग दिया था, तो भी वे त्याग के योग्य नहीं थे। अतः पुत्र शोक से पीड़ित हुई जरिता ने खाण्डववन में अपने पुत्रों को नहीं छोड़ा। वह स्नेह से विह्वल होकर अपनी वृत्ति द्वारा उन नवजात शिशुओं का भरण-पोषण करती रही।[2]-

मन्दपाल का पुत्रों की रक्षा हेतु अग्निदेव की स्तुति करना

उधर वन में लपिता के साथ विचरते हुए मन्दपाल मुनि ने अग्निदेव को खाण्डववन का दाह करने के लिये आते देखा। अग्निदेव के संकल्प को जानकर और पुत्रों की बाल्यावस्था का विचार करके ब्रह्मर्षि मन्दपाल भयभीत होकर महातेजस्वी लोकपाल अग्नि से अपने पुत्रों की रक्षा के लिये निवेदन करते हुए (ईश्वर की भाँति) उनकी स्तुति करने लगे।[2] मन्दपाल ने कहा - अग्निदेव! आप सब लोकों के सुख हैं, आप ही देवताओं को हविष्य पहुँचाते हैं। पावक! आप समस्त प्राणियों के अन्तस्तल में गूढ़ रूप् से विचरते हैं। विद्वान् पुरुष आपको एक (अद्वितिय ब्रह्मरूप) बताते है। फिर दिव्य, भौम और जठरानल रूप से आपके विविध स्वरूप् का प्रतिपादन करते हैं। आपको ही पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा और यजमान - इन आठ मूर्तियों में विभक्त करके ज्ञानी पुरुषों ने आपको यज्ञवाहन बनाया है। महर्षि कहते हैं कि इस सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि आपने ही की है। हुताशन! आपके बिना सम्पूर्ण जगत् तत्काल नष्ट हो जायेगा। ब्रह्मण लोग आपको नमस्कार करके अपनी पत्नियों और पुत्रों के साथ कर्मानुसार प्राप्त की हुई सनातन गति को प्राप्त होते हैं। अग्ने! आकाश में विद्युत् के साथ मेघों की जो घटा घिर आती है, उसे भी आपका ही स्वरूप कहते हैं। प्रलयकाल में आपसे ही भयंकर ज्वालाऐं निकलकर सम्पूर्ण प्राणियों को भस्म कर डालती है। महान् तेजस्वी जातवेदा! आपसे ही यह सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ है। तथा आपके ही द्वारा कर्मों का विधान किया गया है और सम्पूर्ण चराचर प्राणियों की उत्पत्ति भी आपसे ही हुई है। आपसे ही पूर्वकाल में जल की सृष्टि हुई है और आप में ही सम्पूर्ण जगत् प्रतिष्ठित है। आप ही में हव्य और कव्य यथावत् प्रतिष्ठित हैं। देव! आप ही दग्ध करने वाले अग्नि, धारण-पोषण करने वाले धाता और बुद्धि के स्वामी बृहस्पति है। आप ही युगल अश्विनी कुमार, मित्र (सूर्य), चन्द्रमा और वायु हैं।[2]

मन्दपाल की स्तुति से अग्निदेव का प्रसन्न्न होना

वैशम्पायन जी कहते हैं - राजन्! मन्दपाल मुनि के इस प्रकार स्तुति करने पर अग्निदेव उन अमित तेजस्वी महर्षि पर प्रसन्न हुए और प्रसन्नचित्त होकर उनसे बोले - ‘मैं आपके किस अभीष्ट कार्य की सिद्धि करूँ ?’ तब मन्दपाल ने हाथ जोड़कर हव्यवाहन अग्नि से कहा - ‘भगवान! आप खाण्डववन का दाह करते समय मेरे पुत्रों को बचा दें’। ‘बहुत अच्छा’ कहकर भगवान् हव्यवाहन ने वैसा करने की प्रतिज्ञा की और उस समय खाण्डववन को जलाने के लिये वे प्रज्वलित हो उठे।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 1.4 महाभारत आदि पर्व अध्याय 228 श्लोक 1-17
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 महाभारत आदि पर्व अध्याय 228 श्लोक 18-34

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
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चैत्ररथ पर्व
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स्वयंवर पर्व
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धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
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