- महाभारत आदि पर्व के ‘जतुगृह पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 149 के अनुसार हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश का वर्णन इस प्रकार है[1]-
वैशम्पायन जी कहतें हैं- जनमेजय उधर रात व्यतीत होने पर वारणावत नगर के सारे नागरिक बड़ी उतावली-के साथ पाण्डुकुमारों की दशा देखने के लिये उस लाक्षा समूह के समीप आयें। आते ही वे (सब) लोग आग बुझाने में लग गये। उस समय उन्होंने देखा कि सारा घर लाख का बना था, जो जलकर खाक हो गया था। उसी में मन्त्री पुरोचन भी जल गया था। (यह देख) वे (सभी) नागरिक चिल्ला चिल्लाकर कहने लगे कि ‘अवश्य ही पापाचारी दुर्योधन ने पाण्डवों का विनाश करने के लिये इस भवन का निर्माण करवाया था। ‘इसमें संदेह नहीं कि धृतराष्ट्र दुर्योधन ने धृतसमूह की जानकारी में पाण्डु पुत्रों को जलाया है और धृतराष्ट्र ने इसे मना नहीं किया। ‘निश्चय ही इस विषय में शान्तनुनन्दन भीष्म भी धर्म का अनुसरण नहीं कर रहे हैं। द्रोण, विदुर, कृपाचार्य तथा अन्य कौरवों को भी यही दशा है। ‘अब हम लोग दुरात्मा धृतराष्ट्र के पास यह संदेश भेज दें कि तुम्हारी सब से बड़ी कामना पूरी हो गयी। तुम पाण्डवों को जलाने में सफल हो गये।’ तदनन्तर उन्होंने पाण्डवों को ढूंढ़ने के लिये जब आग को इधर-उधर हटाया, तब पांच पुत्रों के साथ निरपराध भीलनी की जली लाश देखी। उसी सुरंग खोदने वाले पुरुष ने घर को साफ करते समय सुरंग के छेद को धूल से ढक दिया था। इससे दूसरे लोगों की दृष्टि उस पर नहीं पड़ी। तदनन्तर वारणावत के नागरिकों ने धृतराष्ट्र को यह सूचित कर दिया कि पाण्डव तथा मन्त्री पुरोचन आग में जल गये। महाराज धृतराष्ट्र पाण्डु पुत्रों के विनाश का यह अत्यन्त अप्रिय समाचार सुनकर बहुत दु:खी हो विलाप करने लगे - ‘अहो माता सहित इन शूरवीर पाण्डवों के दग्ध हो जाने पर विशेष रुप से ऐसा लगता हैं, मानों मेरे भाई महायशस्वी राजा पाण्डु की मृत्यु आज हुई हैं। ‘मेरे कुछ लोग शीघ्र ही वारणागत नगर में जायें और कुन्तिभोज कुमारी कुन्ती तथा वीरवर पाण्डवों का आदर-पूर्वक दाहसंस्कार करायें। ‘उन सब के कुलोचित शुभ और महान सत्कार की व्यवस्था करें तथा जो-जो उस घर में जलकर मरे है, उनके सुहद एवं सगे-सम्बन्धी भी उन मृतको का दाह संस्कार करने के लिये वहाँ जाये। ‘इस दशा में मुझे पाण्डवों तथा कुन्ती का हित करने के लिये जो-जो कार्य करना चाहिये या जो-जो कार्य मुझसे हो सकता हैं, वह सब धन खर्च करके सम्पन्न किया जाय।’ यों कहकर अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्र ने जाति भाईयों से घिरे यों कहरक पाण्डवों के लिये जलाञ्जलि देने का कार्य किया। उस समय भीष्म, सत्र कौरव तथा पुत्रों सहित धृतराष्ट्र एकत्र हो महात्मा पाण्डवों को जलाञ्जलि देने की इच्छा से गंगाजी के निकट गये। उन सबके शरीर पर एक-एक ही वस्त्र था। वे सभी आभूषण और पगड़ी आदि उतारकर आनन्द शून्य हो रहे थे। उस समय सब लोग अत्यन्त शोकमग्न हो एक साथ रोने और विलाप करने लगे। कोई कहता-‘हा कुरुवंश विभूषण युधिष्ठिर दूसरे कहते - हा भीमसेन अन्य कोई बोलते- ‘हा अर्जुन!’ इसी प्रकार दूसरे लोग ‘हा नकुल-सहदेव!’ कहकर पुकार उठते थे। तब लोगों ने कुन्ती देव के लिये शोकार्त होकर जलाञ्जलि दी।[1]
इसी प्रकार दूसरे-दूसरे पुरवासीजन भी पाण्डवों के लिये बहुत शोक करने लगे। विदुर जी ने बहुत थोड़ा शोक मनाया। क्योंकि वे वास्तविक वृतान्त से परिचित थे। तदनन्तर भीष्म जी यह सुनकर कि राजा पाण्डु के पुत्र अपनी माता के साथ जल मरे हैं, अत्यन्त व्यथित हो उठे और विलाप करने लगे।
भीष्म जी बोले - ववे दोनों भाई भीमसेन और अर्जुन उत्साह-शून्य हो गये हों, ऐसा तो नहीं प्रतीत होता। यदि वे वेग से अपने शरीर का धक्का देते तो सुद्दढ़ मकान को भी तोड़ फोड़ सकते थे। अत: पाण्डवों के साथ कुन्ती की मृत्यु हो गयी हैं, ऐसा मुझे नहीं दिखायी देता। यदि सचमुच उन सबकी मृत्यु हो चुकी है, तब तो यह सभी प्रकार से बहुत बुरी बात हुई है। ब्राह्मणों ने तो धर्मराज युधिष्ठिर के विषय में यह कहा था कि वे धर्म के दिये हुए राजकुमार सत्यवती, सत्यवादी एवं शुभ लक्षणों से सम्पन्न होंगे। ऐसे वे पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर काल के अर्थ में कैसे हो गये? जो अपने आपको आदर्श बनाकर तदनुरुप दूसरों के साथ बर्ताव करते थे, वे ही कुरुकुल शिरोमणी युधिष्ठिर अपनी माता के साथ काल के अधीन कैसे हो गये? जिन्होंने युवराज पद पर अभिषिक्त होते ही पिता के समान ही अपने सत्य एवं धर्म पूर्ण बर्ताव के द्वारा अपना ही नहीं, राजा पाण्डु के भी यश का विस्तार किया था, वे युधिष्ठिर भी काल के अधीन हो गये। ऐसे निकम्मे काल को धिक्कार है। उत्तम कुल में उत्पन्न कुन्ती, जो पुत्रों के अभिलाषा रखने के कारण ही वनवास का कष्ट भोगती और दु:ख पर दु:ख उठाती रही तथा पति के मरने पर भी उनका अनुगमन न कर सकी, जिस बहुत थोड़े समय तक ही पति का प्रेम प्राप्त हुआ था, वही कुन्तीभोज कुमारी अभी अपने मनोरथ पूरे भी न कर पायी थी कि पुत्रों के साथ दग्ध हो गयी। जिनके भरे हुए कंधे और मनोहर भुजाएं थी, जो मेरु-शिखर के समान सुन्दर एवं तरुण थे, वे भीमसेन मर गये, यह सुनकर भी मन को विश्वास नहीं होता। जो सदा उत्तम मार्गो पर चलते थे, जिनके हाथों में बड़ी फुर्त्ती थी, जिनका निशाना कभी चूकता नहीं था, जो रथ हांकने में कुशल, दूर तक का लक्ष्य बेधने वाले, कभी व्याकुल न होने वाले, महापराक्रमी और महान अस्त्रों के ज्ञाता थे, जिन्होंने प्राच्य, सौंवीर और दाक्षिणात्य नरेशों को परास्त किया था, जिस शूरवीर ने तीनों लोकों में अपने पुरुषार्थ को प्रसिद्ध किया था और जिनके जन्म लेने पर कुन्ती और महापराक्रमी पाण्डु भी शोकरहित हो गये थे, वे इन्द्र के समान विजयी वीर अर्जुन भी काल के अधीन कैसे हो गये? जो बैल के से हष्ट-पुष्ट कंधो से सुशोभित थे तथा सिंहकी सी मस्तानी चाल से चलते थे, वे शत्रुओं का संहार करने वाले नकुल-सहदेव सहसा मृत्यु को कैसे प्राप्त हो गये?
वैशम्पायन जी कहते हैं - जलाञ्जलि दान देते समय भीष्म जी ने यह विलाप सुनकर विदुर जी ने देश और काल का भाँति-भाँति विचार करके कहा - ‘नरश्रेष्ठ आप दु:खी न हों। महाव्रती वीर आप शोक त्याग दें, पाण्डवों की मृत्यु न हुई है। मैंने उस अवसर पर जो उचित था, वह कार्य कर दिया है। भारत आप उन पाण्डवों के लिये अलाञ्जलि न दें। तब भीष्म जी विदुर का हाथ पकड़कर उन्हें कुछ दूर हटा ले गये, जहाँ से कौरवों लोग उनकी बात न सुन सके। फिर वे आंसू बहाते हुए गद्-गद् वाणी में बोले। भीष्म जी ने कहा - तात पाण्डु के महारथी पुत्र कैसे जीवित बच गये? पाण्डु का पक्ष किस तरह हमारे लिये नष्ट होने से बच गया? जैसे गरुड़ ने अपनी माता की रक्षा की थी, उसी प्रकार तुमने किस तरह पाण्डुकुमारों को बचाकर हम सब लोगों से महान भय से रक्षा की है?
वैशम्पायनजी कहते हैं - जनमेजय इस प्रकार पूछे जाने पर धर्मात्मा विदुर ने कौरवों के न सुनते हुए अद्भुत कर्म करने वाले भीष्म जी से इस प्रकार कहा - विदुर बोले - धृतराष्ट्र, शकुनि तथा राजा दुर्योधन का यह पक्का विचार हो गया था कि पाण्डवों को नष्ट कर दिया जाय। तदनन्तर लाक्षागृह में जाने पर जब दुर्योधन की आज्ञा से पुत्रों सहित कुन्ती को जला देने की योजना बन गयी, तब मैंने एक भूमि खोदने वाले को बुलाकर भूगर्भ में गुफा सहित सुरंग खुदवायी और कुन्ती सहित पाण्डवों को, घर में आग लगाने से पहले ही निकाल लिया, अत: अपने मन में शोक को स्थान न दीजिये। राजन शत्रुओं को संताप देने वाले पाण्डव अपनी माता के साथ उस महाभंयकर अग्निदाह से दूर निकल गये हैं। मेरे पूर्वोक्त उपाय से ही यह कार्य सम्भव हो सका है। पाण्डव निश्चय ही जीवित हैं, अत: आप उनके लिये शोक न दीजिये। जब तक यह समय बदलकर अनुकुल नहीं हो जाता, तब तक वे पाण्डव छिपे रहकर इस भूतल पर विरेंगे। अनुकूल समय आने पर सब राजा इस पृथ्वी पर युधिष्ठिर को देंखेंगे। (इधर) महाबली पाण्डव भी वारणागत नगर से निकलकर माता के साथ गंगा नदी के तट पर पहुँचे।[2] वे नाविकों की भुजाओं तथा नदी के प्रवाह के वेग से अनुकूल वायु की सहायता पाकर जल्दी ही पार उत्तर गये। तदनन्तर नाव छोड़ रात में नक्षत्रों द्वारा सुचित मार्ग को पहचानकर वे दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। इस प्रकार आगे बढ़ने की चेष्टा करते हुए वे सब के सब एक घने जंगल में जा पहुँचे। उस समय पाण्डव लोग थके - मांदे, प्यास से पीड़ित और (अधिक जगने से) नींद में अंधे से हो रहे थे। वे महापराक्रमी भीमसेन से पुन: इस प्रकार बोले- ‘भारत! इससे बढ़कर महान कष्ट क्या होगा कि हम लोग इस घने जंगल में फंसकर दिशाओं को भी नहीं जान पाते तथा चलने-फिरने में भी असमर्थ हो रहे हैं। ‘हमें यह भी पता नहीं है कि पापी पूरोचन जल गया या नहीं। हम दूसरों से छिपे रहकर किस प्रकार इस महान कष्ट से छुटकारा पा सकेंगे? ‘भैया! तुम पुन: पूर्ववत हम सबको लेकर चलो। हम लोगों ने एक तुम्हीं अधिक बलवान और उसी प्रकार निरन्तर चलने-फिरने मे भी समर्थ हो।’ धर्मराज के यों कहने पर महाबली भीमसेन माता कुन्ती तथा भाइयों को अपने उपर चढ़ाकर बड़ी शीघ्रता के साथ चलने लगे।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 149 श्लोक 1-17
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 149 श्लोक 18-19
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 149 श्लोक 20-26
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| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
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| राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना
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| कृष्ण-बलराम का वार्तालाप
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| द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
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| द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार
| व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना
| द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना
| द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह
| कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता
| धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा
| धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय
| पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति
| भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह
| द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति
| विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन
| धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना
| पाण्डवों का हस्तिनापुर आना
| इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण
| श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान
| पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन
| नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव
| सुन्द-उपसुन्द की तपस्या
| सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय
| तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान
| तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई
| तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान
| पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग
| अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन
| अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण
| अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार
| वर्गा की आत्मकथा
| अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना
| यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह
| अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना
| द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता
| अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना
| राजा श्वेतकि की कथा
| अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना
| अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना
| खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा
| देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा
| मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति
| जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना
| जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद
| शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना
| मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना
| इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान
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