पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन

महाभारत आदि पर्व के ‘विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 207 के अनुसार पाण्डवों के यहाँ नारदजी के आगमन की कथा का वर्णन इस प्रकार है[1]-

नारद का इन्द्रप्रस्थ में आगमन

जनमेजय ने पूछा- तपोधन! इस प्रकार इन्‍द्रप्रस्‍थ का राज्‍य प्राप्‍त कर लेने के पश्‍चात् महात्‍मा पाण्‍डवों ने कौन-सा कार्य किया ? मेरे पूर्व पितामह सभी पाण्‍डव महान् सत्‍व (मनोबल) से सम्‍पन्‍न थे। उनकी धर्म पत्‍नी द्रौपदी ने किस प्रकार उन सबका अनुसरण किया ? वे महान् सौभाग्‍यशाली नरेश जब एक ही कृष्‍णा के प्रति अनुरक्‍त थे, तब उनमें आपस में फूट कैसे नहीं हुई ? तपोधन! द्रौपदी से सम्‍बन्‍ध रखनेवाले उन-पाण्‍डवों का आपस में कैसा बर्ताव था, यह सब मैं विस्‍तार के साथ सुनना चाहता हूँ। वैशम्‍पायनजी ने कहा- राजन्! धृतराष्‍ट्र की आज्ञा से राज्‍य पाकर परंतप पाण्‍डव द्रौपदी के साथ खाण्‍डवप्रस्‍थ में विहार करने लगे। सत्‍यप्रतिज्ञ महातेजस्‍वी राजा युधिष्ठिर उस राज्‍य को पाकर अपने भाइयों के साथ धर्मपूर्वक पृथ्‍वी का पालन करने लगे। वे सभी शत्रुओं पर विजय पा चुके थे, सभी महाबुद्धिमान् थे। सबने सत्‍य धर्म का आश्रय ले रखा था। इस प्रकार वे पाण्‍डव वहाँ बड़े आनन्‍द के साथ रहते थे। नरश्रेष्‍ठ पाण्‍डव नगरवासियों के सम्‍पूर्ण कार्य करते हुए बहुमूल्‍य तथा राजोचित सिंहासनों पर बैठा करते थे। एक दिन जब वे सभी पाण्‍डव अपने सिंहासनों पर विराजमान थे, उसी समय देवर्षि नारद अकस्‍मात् वहाँ आ पहुँचे।[1]

नारद के गुणों का वर्णन

उनका आगमन आकाश मार्ग से हुआ, जिसका नक्षत्र सेवन करते हैं, जिस पर गरुड़ चलते हैं, जहाँ चन्‍द्रमा और सूर्य का प्रकाश फैलता है और जो महर्षियों से सेवित है। जो लोग तपस्‍वी नहीं हैं, उनके लिये व्‍योम मण्‍डल का वह दिव्‍य मार्ग दुर्लभ है।। सम्‍पूर्ण प्राणियों द्वारा पूजित महान् तपस्‍वी एवं तेजस्‍वी देवर्षि नारद बड़े-बड़े नगरों से विभूषित और सम्‍पूर्ण प्राणियों के आश्रयभूत राष्‍ट्रों का अवलोकन करते हुए वहाँ आये। विप्रवर नारद सम्‍पूर्ण वेदान्‍त शास्‍त्र के ज्ञाता तथा समस्‍त विद्याओं के पारंगत पण्डित हैं। वे परम तपस्‍वी तथा ब्रह्मतेज से सम्‍पन्‍न हैं; न्‍यायोचित बर्ताव तथा नीति‍ में निरन्‍तर निरत रहनेवाले सुविख्‍यात महामुनि हैं।।उन्‍होंने धर्म-बल से परात्‍पर परमात्‍मा का ज्ञान प्राप्‍त कर लिया है। वे शुद्धात्‍मा, रजोगुणरहित, शान्‍त, मृदु तथा सरल स्‍वभाव के ब्राह्मण हैं। वे देवता, दानव और मनुष्‍य सब को धर्मत: प्राप्‍त होते हैं। उनका धर्म और सदाचार कभी खण्डित नहीं हुआ है। वे संसार भय से सर्वथा रहित हैं। उन्‍होंने सब प्रकार से विविध वैदिक धर्मों की मर्यादा स्‍थापित की है। वे ॠग्‍वेद, सामवेद और यजुर्वेद के विद्वान हैं। न्‍यायशास्‍त्र के पारंगत पण्डित हैं। वे सीधे और ऊंचे कद के तथा शुक्‍ल वर्ण के हैं। वे निष्‍पाप नारद अधिकांश समय यात्रा में व्‍यतीत करते हैं। उनके मस्‍तक पर सुन्‍दर शिखा शोभित है। वे उत्‍तम कान्ति से प्रकाशित होते हैं। वे देवराज इन्‍द्र के दिये हुए दो बहुमुल्‍य वस्‍त्र धारण करते हैं। उनके वे दोनों वस्‍त्र उज्‍जवल, महीन, दिव्‍य, सुन्‍दर और शुभ हैं। दूसरों के लिये दुर्लभ एवं उत्‍तम ब्रह्मतेज से युक्‍त वे बृहस्‍पति के समान बुद्धिमान् नारदजी राजा युधिष्ठिर के महल में उतरे। संहिता शास्‍त्र में सबके लिये स्थित और उपस्थित मानवधर्म तथा क्रमप्राप्‍त धर्म के वे पारगामी विद्वान हैं। वे गाथा और साममन्‍त्रों में कहे हुए आनुषंगिक धर्मों के भी ज्ञाता हैं तथा अत्‍यन्‍त मधुर सामगान के पण्डित हैं। मुक्ति की इच्‍छा रखनेवाले सब लोगों के हित के लिये नारदजी स्‍वयं ही प्रयत्‍नशील रहते हैं। कब किसका क्‍या कर्तव्‍य है, इसका उन्‍हें पूर्ण ज्ञान है। वे बुद्धिमानों में श्रेष्‍ठ हैं और मन को नाना प्रकार के धर्म में लगाये रखते हैं। उन्‍हें जानने योग्‍य सभी अर्थों का ज्ञान है। वे सबमें समभाव रखनेवाले हैं और वेद विषयक सम्‍पूर्ण संदेहों का निवारण करने वाले हैं। अर्थ की व्‍याख्‍या के समय सदा संशयों का उच्‍छेद करते हैं। उनके हृदय में संशय का लेश भी नहीं है। वे स्‍वभावत: धर्म निपुण तथा नाना धर्मों के विशेषज्ञ हैं। लोप, आगमधर्म तथा वृति संक्रमण के द्वारा प्रयोग में आये हुए एक शब्‍द के अनेक अर्थों को, पृथक-पृथक श्रवण गोचर होने वाले अनेक शब्‍दों के एक अर्थ को तथा विभिन्‍न शब्‍दों के भिन्‍न-भिन्‍न अर्थों को वे पूर्ण रुप से देखते और समझते हैं।। सभी अधिकरणों और समस्‍त वर्णों के विकारों में निर्णय देने के निमित्‍त वे सब लोगों के लिये प्रमाणभूत हैं। सदा सब लोग उनकी पूजा करते हैं। नाना प्रकार के स्‍वर, व्‍यञ्जन, भाँति-भाँति के छन्‍द, समान स्‍थानवाले सभी वर्ण, समाम्राय तथा धातु-इन सबके उद्देश्‍यों की नारदजी बहुत अच्‍छी व्‍याख्‍या करते हैं। सम्‍पूर्ण आख्‍यात प्रकरण (धातुरुप तिड़न्‍त आदि) का प्रतिपादन कर सकते हैं। सब प्रकार की संधियों के सम्‍पूर्ण रहस्‍यों को जानते हैं। पदों और अंगों का निरन्‍तर स्‍मरण रखते हैं, काल धर्म से निर्दिष्‍ट यथार्थ तत्‍व का विचार करने वाले हैं तथा वे लोगों के छिपे हुए मनोभाव को- वे क्‍या करना चाहते हैं, इस बात को भी अच्‍छी तरह जानते हैं। विभाषित (वैकल्पिक), भाषित (निश्‍चयपूर्वक कथित) और हृदयगंम किये हुए समय का उन्‍हें यथार्थ ज्ञान है। वे अपने तथा दूसरे के लिये स्‍वरसंस्‍कार तथा योगसाधन में तत्‍पर रहते हैं। वे इन प्रत्‍यक्ष चलने वाले स्‍वरों को भी जानते हैं, वचन-स्‍वरों का भी ज्ञान रखते हैं, कही हुई बातों के मर्म को जानते और उनकी एकता तथा अनेकता को समझते हैं। उन्‍हें परमा‍र्थ का यर्थाथ ज्ञान है। वे नाना प्रकार के व्‍यतिक्रमों (अपराधों) को भी जानते हैं। अभेद और भेद दृष्टि से भी बारंबार तत्‍वविचार करते रहते हैं; वे शास्‍त्रीय वाक्‍यों के विविध आदेशों की भी समीक्षा करने वाले तथा नाना प्रकार के अर्थज्ञान में कुशल हैं, तद्धित प्रत्‍ययों का उन्‍हें पूरा ज्ञान है। वे स्‍वर, वर्ण और अर्थ तीनों से ही वाणी को विभूषित करते हैं। प्रत्‍येक धातु के प्रत्‍ययों का नियमपूर्वक प्रतिपादन करने वाले हैं। पांच प्रकार के जो अक्षरसमूह तथा स्‍वर हैं [2], उनको भी वे यथार्थ रुप से जानते हैं।। उन्‍हें आया देख राजा युधिष्ठिर ने आगे बढ़कर उन्‍हें प्रणाम किया और अपना परम सुन्‍दर आसन उन्‍हें बैठने के लिये दिया। जब देवर्षि उस पर बैठ गये, तब परम बुद्धिमान् युधिष्ठिर ने स्‍वयं ही विधिपूर्वक उन्‍हें अर्ध्‍य निवदेन किया और उसी के साथ-साथ उन्‍हें अपना सारा राज्‍य समर्पित कर दिया। उनकी यह पूजा ग्रहण करके देवर्षि उस समय मन ही मन बड़े प्रसन्‍न हुए।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 207 श्लोक 1-9
  2. कण्ठ, तालु, मूर्धा, दन्त और ओष्ठ- इन पाँच स्थानों अथवा पाँच आभ्यन्तर प्रयत्नों के भेद से पाँच प्रकार के अक्षरसमुह कहे गये है। अ इ उ ऋ ल ये पाँच ही मूल स्वर है, अन्य स्वर इन्हीं के दीर्घ आदि भेद अथवा संधिज है।
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 207 श्लोक 10-11

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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