देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध

महाभारत आदि पर्व के ‘खाण्डव दाह पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 226 के अनुसार देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध का वर्णन इस प्रकार है[1]-

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! वर्षा करते हुए इन्द्र की उस जलधारा को अर्जुन ने अपने उत्तम अस्त्र का प्रदर्शन करते हुए बाणों की बौछार से रोक दिया। अमित आत्मबल से सम्पन्न पाण्डव अर्जुन ने बहुत से बाणों की वर्षा करके सारे खाण्डववन को ढँक दिया, जैसे कुहरा चन्द्रमा को ढक देता हैं। सव्यसाची अर्जुन के चलाये हुए बाणों से सारा आकाश छा गया था; इसलिये कोई भी प्राणी उस वन से निकल नहीं पाता था। जब खाण्डववन जलाया जा रहा था, उस समय महाबली नागराज तक्षक वहाँ नहीं था, कुरुक्षेत्र चला गया था। परंतु तक्षक का बलवान पुत्र अश्वसेन वहीं रह गया था। उसने उस आग से अपने को छुड़ाने के लिये बड़ा भारी प्रयत्न किया। किंतु अर्जुन के बाणों से रूँध जाने के कारण वह बाहर निकल न सका। उसकी माता सर्पिणी ने उसे निगलकर उसे आग से बचाया। उसने पहले उसका मस्तक निगल लिया। फिर धीरे-धीरे पूँछ तक का भाग निगल गयी। निगलते-निगलते ही उस नागिन ने पुत्र को बचाने के लिये आकाश में उड़कर निकल भागने की चेष्टा की। परंतु पाण्डु कुमार अर्जुन ने मोटी धारवाले तीखे बाणों से उस भागती हुई सर्पिणी का मस्तक काट दिया। शचीपति इन्द्र ने उसकी यह अवस्था अपनी आँखों देखी। तब उसे छुड़ाने की इच्छा से वज्रधारी इन्द्र ने आँधी और वर्षा चलाकर पाण्डुकुमार अर्जुन को उस समय मोहित कर दिया। इतने में ही तक्षक का पुत्र अश्वसेन उस संकट से मुक्त हो गया। तब उस भयानक माया को देखकर नाग से ठगे गये पाण्डु पुत्र अर्जुन ने आकाश में उड़ने वाले प्राणियों के दो-दो, तीन-तीन टुकडे़ कर ड़ाले। फिर क्रोध में भरे हुए अर्जुन टेढ़ी चाल से चलने वाले उस नाग को शाप दिया - ‘अरे! तु आश्रयहीन हो जायगा।’ अग्नि और श्रीकृष्ण ने भी उसका अनुमोदन किया। तदन्नतर अपने साथ हुई वंचना को बार-बार स्मरण करके क्रोध में भरे हुए अर्जुन ने शीघ्रगामी बाणों द्वारा आकाश को आच्छादित करके इन्द्र के साथ युद्ध छेड़ दिया। देवराज ने भी अर्जुन को युद्ध में कुपित देख सम्पूर्ण आकाश को आच्छादित करते हुए अपने दुस्सह अस्त्र (ऐन्द्रास्त्र) को प्रकट किया। फिर तो बड़ी भारी आवाज के साथ प्रचण्ड वायु चलने लगी। उसने समस्त समुद्रों को क्षुब्ध करते हुए आकाश में स्थित हो मुसलाधार पानी बरसाने वाले मेघों को उत्पन्न किया। वे भयंकर मेघ बिजली की कड़कड़ाहट के साथ धरती पर वज्र गिराने लगे। उस अस्त्र के प्रतीकार की विद्या मे कुशल अर्जुन ने उन मेघों को नष्ट करने के लिये अभिमन्त्रित करके वायव्य नामक उत्तम अस्त्र का प्रयोग किया। उस अस्त्र ने इन्द्र के छोडे़ हुए वज्र और मेघों का ओज एवं बल नष्ट कर दिया। जल की वे सारी धाराएँ सूख गयीं और बिजलियाँ भी नष्ट हो गयीं। क्षणभर में आकाश धूल और अन्धकार से रहित हो गया।[1] सुखदायिनी शीतल हवा चलने लगी। सूर्यमण्डल स्वाभाविक स्थिती में दिखायी देने लगा। अग्निदेव प्रतीकार शून्य होने के कारण बहुत प्रसन्न हुए और अनेक रूपों में प्रकट हो प्राणियों के शरीर से निकली हुई वसा के समूह से अभिषिक्त होकर बड़ी-बड़ी लपटों के साथ प्रज्वलित हो उठे। उस समय अपनी आवाज से वे सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर रहे थे।

महाराज! उस खाण्डववन को श्रीकृष्ण और अर्जुन से सुरक्षित देख अहंकार से युक्त सुन्दर पंख आदि अंगो वाले पक्षी आकाश में उड़ने लगे। एक गरुड़जातीय पक्षी[2] वज्र के समान पाँख, चोंच और पंजों से प्रहार करने की इच्छा रखकर आकाश से श्रीकृष्ण और अर्जुन की ओर झपटा। इसी समय प्रज्वलित मुखवाले नागों के समुदाय भी पाण्डव अर्जुन के समीप भयानक जहर उगलते हुए उनकी ओर टूट पड़े। यह देख अर्जुन ने रोषग्निप्रेरित बाणों द्वारा उन सबके टुकडे़-टुकडे़ कर डाले और वे सभी अपने शरीर को भस्म करने के लिये उस जलती हुई आग में समा गये। तत्पश्चात् असुर, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग युद्ध के लिये उत्सुक हो अनुपम गर्जना करते हुए वहाँ दौडे़ आये। किन्हीं के हाथ में लोहे की गोली छोड़ने वाले यन्त्र (तोप, बंदूक आदि) थे और कुछ लोगों ने हाथों में चक्र, पत्थर एवं भुशुण्डी उठा रखी थी। क्रोणाग्नि से बढ़े हुए तेज वाले वे सब के सब श्रीकृष्ण और अर्जुन को मार डालना चाहते थे। वे लोग बड़ी बड़ी ड़ींग हाँकते हुए अस्त्र शस्त्रों की वर्षा करने लगे। उस समय अर्जुन ने अपने तीखे बाणों से उन सबके सिर उड़ा दिये। शत्रुविनाशन महातेजस्वी श्रीकृष्ण ने भी चक्र द्वारा दैत्यों और दानवों के समुदाय का महान संहार कर दिया। फिर दूसरे-दूसरे अमित तेजस्वी दैत्य दानव बाणों से घायल और चक्र वेग से कम्पित हो तटपर आकर रुक जाने वाली समुद्र की लहरों के समान एक सीमा तक ही ठहर गये - आगे न बढ़ सके। तब देवताओं के महाराज इन्द्र श्वेत ऐरावत पर आरूढ़ हो अत्यन्त क्रोधपूर्वक उन दोनों की ओर दौडे़। असुर सूदन इन्द्र ने बड़े वेग से अशनि रूप अपना वज्रास्त्र उठाकर चला दिया और देवताओं से कहा - ‘लो ये दोनों मारे गये।’ देवराज इन्द्र को वह महान वज्र उठाते देख देवताओं ने भी अपने-अपने सम्पूर्ण अस्त्र शस्त्र ले लिये। राजन! यमराज ने कालदण्ड, कुबेर ने गदा तथा वरुण ने प्लश और विचित्र वज्र हाथ में ले लिये। देवताओं के सेनापति स्कन्द शक्ति हाथ में लेकर मेरु पर्वत की भाँति अवचल भाव से खडे़ हो गये। दोनों अश्विनी कुमारों ने भी चमकीली औषधियाँ उठा ली। घाता ने धनुष लिया और जयने मूसल, क्रोध में भरे हुए महाबली त्वष्टा ने पर्वत उठा लिया। अंश ने शक्ति हाथ में ले ली और मृत्यु देव ने फरसा। अर्यमा भी भयानक परिघ लेकर युद्ध के लिये विचरने लगे। मित्र देवता जिसके किनारों पर छुरे लगे हुए थे, वह चक्र लेकर खडे़ हो गये। महाराज! पूषा, भग और क्रोध में भरे हुए सविता धनुष और तलवार लेकर श्रीकृष्ण और अर्जुन पर टूट पड़े।[3]

रुद्र, वसु, महाबली मरुद्रण, विश्वेदेव तथ अपने तेज से प्रकाशित होने वाले सांध्यगण - ये और दूसरे बहुत से देवता नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र लेकर उन पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण और अर्जुन को मार डालने की इच्छा से उनकी ओर बढे़। उस महासंग्राम में पलयकाल के समान रूप वाले तथा प्राणियों को मोह में डाल देने वाले अद्भुत अपशकुन दिखायी देने लगे। देवताओं सहित इन्द्र को रोष में भरा देखकर अपनी महिमा से च्युत न होने वाले निर्भय तथा दुर्धर्ष वीर श्रीकृष्ण और अर्जुन धनुष तानकर युद्ध के लिये खडे़ हो गये। तदनन्तर वे दोनों युद्धकुशल वीर कुपित हो अपने वज्रोपम बाणों द्वारा वहाँ आते हुए देवताओं को घायल करने लगे। बहुत से देवता बार-बार प्रयत्न करने पर भी कभी सफल मनोरथ न हो सके। उनकी आशा टूट गयी और वे भय के मारे युद्ध छोड़कर इन्द्र की ही शरण में चले गये। श्रीकृष्ण और अर्जुन के द्वारा देवताओं की गति कुण्ठित हुई देख आकाश में खडे़ हुए महर्षिगण बड़े आश्चर्य में पड़ गये। इन्द्र भी उस युद्ध में बार-बार उन दोनों वीरों का पराक्रम देख बड़े प्रसन्न हुए और पुनः उन दोनों के साथ युद्ध करने लगे। तदनन्तर इन्द्र ने सव्यसाची अर्जुन के पराक्रम की परीक्षा लेने के लिये पुनः उन पर पत्थरों की बड़ी भारी वर्षा प्रारम्भ की। अर्जुन ने अत्यन्त अमर्ष में भरकर अपने बाणों द्वारा वह सारी वर्षा नष्ट कर दी। सौ यज्ञों का अनुष्ठान करने वाले पाकशासन इन्द्र ने उस पत्थरों की वर्षा को विफल हुई देख पुनः पत्थरों की बड़ी भारी वर्षा की। यह देख इन्द्र कुमार अर्जुन ने अपने पिता का हर्ष बढ़ाते हुए महान वेगशाली बाणों द्वारा पत्थरों की उस वृष्टि को फिर विलिन कर दिया। इसके बाद इन्द्र ने पाण्डुनन्दन अर्जुन को मारने के लिये अपने दोनों हाथों से एक पर्वत का महान शिखर वृक्षों सहित उखाड़ लिया और उसे उनके ऊपर चलाया। यह देख अर्जुन ने प्रज्वलित नोक वाले वेगवान एवं सीधे जाने वाले बाणों द्वारा उस पर्वत शिखर को हजारों टुकडे़ करके गिरा दिया। छिन्न-भिन्न होकर गिरता हुआ वह पर्वत शिखर ऐसा जान पड़ता था मानो सूर्य चन्द्रमा आदि ग्रह आकाश से टूटकर गिर रहे हों। वहाँ गिरे हुए उस महान पर्वत शिखर के द्वारा खाण्डववन में निवास करने वाले बहुत से प्राणी मारे गये।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 226 श्लोक 1-17
  2. यह विष्णुवाहन गरुड़ से भिन्न था।
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 226 श्लोक 18-36
  4. महाभारत आदि पर्व अध्याय 226 श्लोक 37-52

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
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चैत्ररथ पर्व
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स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
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खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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