सखियों सहित देवयानी और शर्मिष्ठा का वन-विहार

शर्मिष्ठा देवयानी की दासी बनकर शुक्राचार्य तथा देवयानी को संतुष्ट करती है तत्पश्चात देवयानी प्रसन्न होकर सभी दासियों सहित नगर में प्रवेश करती है कुछ समय बाद देवयानी शर्मिष्ठा व सखियों के साथ वन-विहार के लिये जाती है। जिसका उल्लेख महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 81 में निम्न प्रकार से हुआ है[1]

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- नृपेश्रेष्ठ! तदनन्‍तर दीर्घ काल के पश्चात उत्तम वर्णवाली देवयानी फि‍र उसी वन में विहार के लिये गयी। उस समय उसके साथ एक हजार दासियों सहित शर्मिष्ठा भी साथ में उपस्थित थी। वन के उसी प्रदेश में जाकर वह उन समस्‍त सखियों के साथ अत्‍यन्‍त प्रसन्नतापूर्वक इच्‍छानुसार विचरने लगी। वे सभी किशोरियां वहाँ भाँति-भाँति के खेल खेलती हुई आनन्‍द में मग्न हो गयीं। वे कभी वासन्तिक पुष्‍पों के मकरन्‍द का पान करतीं, कभी नाना प्रकार के भोज्‍य पदार्थों का स्‍वाद लेतीं और कभी फल खाती थीं।

ययाति का वन आगमन

इसी समय नहुष पुत्र राजा ययाति पुन: शिकार खेलने के लिये दैवेच्‍छा से उसी स्‍थान पर आ गये। वे परिश्रम करके कारण अधिक थक गये थे और जल पीना चाहते थे। उन्‍होंने देवयानी, शर्मिष्ठा तथा अन्‍य युवतियों को भी देखा। वे सभी दिव्‍य आभूषणों से विभूषित हो पीने योग्‍य रस का पान और भाँति-भाँति की क्रीड़ाऐं कर रही थीं। राजा ने पवित्र मुस्कान वाली देवयानी को वहाँ समस्‍त आभूषणों से विभूषित परम सुन्‍दर दिव्‍य आसन पर बैठी हुई देखा। उसके रुप की कहीं तुलना नहीं थी। वह सुन्‍दरी उन स्त्रियों के मध्‍य बैठी हुई थी और शर्मिष्ठा द्वारा उसकी चरण सेवा की जा रही थी।[1]

देवयानी व ययाति का वार्तालाप

ययाति ने पूछा- दो हजार कुमारी सखियों से घिरी हुई कन्‍याओ! मैं आप दोनों के गोत्र और नाम पूछ रहा हूँ। शुभे! आप दोनों अपना परिचय दें। देवयानी बोली- महाराज! मैं स्‍वयं परिचय देती हूं, आप मेरी बात सुनें। असुरों के जो सुप्रसिद्ध गुरु शुक्राचार्य हैं, मुझे उन्‍हीं की पुत्री जानिये। यह दानवराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा मेरी सखी और दासी है। मैं विवाह होने पर जहाँ जाऊंगी, वहाँ यह भी जायगी। ययाति बोले- सुन्‍दरी! यह असुरराज की रुपवती कन्‍या सुन्‍दर भौहों वाली शर्मिष्ठा आपकी सखी और दासी किस प्रकार हुई? यह बताइये। इसे सुनने के लिये मेरे मन में बड़ी उत्‍कण्‍ठा है। देवयानी बोली- नरश्रेष्ठ! सब लोग दैव के विधान का ही अनुसरण करते हैं। इसे भी भाग्‍य का विधान मानकर संतोष कीजिये। इस विषय की विचित्र घटनाओं को न पूछिये। आपके रुप और वेष राजा के समान हैं और आप ब्राह्मी वाणी (विशुद्ध संस्‍कृत भाषा) बोल रहे हैं। मुझे बताइये; आपका क्‍या नाम है, कहाँ से आये हैं और किसके पुत्र हैं? ययाति ने कहा- मैंने ब्रह्मचर्य पालन पूर्वक सम्‍पूर्ण वेद का अध्‍ययन किया है। मैं राजा नहुष का पुत्र हूँ और इस समय स्‍वयं राजा हूँ। मेरा नाम ययाति है। देवयानी ने पूछा- महाराज! आप किस कार्य से वन के इस प्रदेश में आये हैं? आप जल अथवा कमल लेना चाहते हैं या शिकार की इच्‍छा से ही आये हैं? ययाति ने कहा- भद्रे! मैं एक हिंसक पशु के मारने के लिये उसका पीछा कर रहा था, इससे बहुत थक गया हूँ और पानी पीने के लिये यहाँ आया हूँ।

देवयानी द्वारा ययाति का पति रूप में वरण

अत: अब मुझे आज्ञा दीजिये। देवयानी ने कहा-राजन्! आपका कल्‍याण हो। मैं दो हजार कन्‍याओं तथा अपनी सेविका शर्मिष्ठा के साथ आपके अधीन होती हूँ। आप मेरे सखा और पति हो जायं।[1] ययाति बोले- शुक्रनन्दिनी देवयानी! आपका भला हो। भाविनी! मैं आपके योग्‍य नहीं हूँ। क्षत्रिय लोग आपके पिता से कन्‍यादान लेने के अधिकारी नहीं हैं। देवयानी ने कहा- नहुषनन्‍दन! ब्राह्मण से क्षत्रिय जाति और क्षत्रिय से ब्राह्मण जाति मिली हुई है। आप राजर्षि के पुत्र हैं और स्‍वयं भी राजर्षि हैं। अत: मुझसे विवाह कीजिये। ययाति बोले- बरांगने! एक ही परमेश्वर के शरीर से चारो वर्णों की उत्‍पत्ति हुई है; परंतु सबके धर्म और शौचाचार अलग-अलग हैं। ब्राह्मण उन सब वर्णों में श्रेष्ठ हैं। देवयानी ने कहा- नहुष कुमार! नारी के लिये पाणिग्रहण एक धर्म है। पहले किसी भी पुरुष ने मेरा हाथ नहीं पकड़ा था। सबसे पहले आप ही ने मेरा हाथ पकड़ा था। इसलिये आप ही का मैं पतिरूप में वरण करती हूँ। मैं मन को वश में रखने वाली स्त्री हूँ। आप-जैसे राजर्षि कुमार अथवा राजर्षि द्वारा पकड़े गये मेरे हाथ का स्‍पर्श अब दूसरा पुरुष कैसे कर सकता है। ययाति बोले– देवी! विज्ञ पुरुष को चाहिये कि वह ब्राह्मण को क्रोध में भरे हुए विषधर सर्प तथा सब ओर से प्रज्‍वलित अग्नि से भी अधिक दुर्धर्ष एवं भयंकर समझे। देवयानी ने कहा- पुरुष प्रवर! ब्राह्मण विषधर सर्प और सब ओर से प्रज्‍वलित हाने वाली अग्नि से भी दुर्धर्ष एवं भयंकर है, यह बात आपने कैसे कही? ययाति बोले- भद्रे! सर्प एक को ही मारता है, शस्त्र से भी एक ही व्‍यक्ति का वध होता है; परंतु क्रोध में भरा हुआ ब्राह्मण समस्‍त राष्ट्र और नगर का भी नाश कर देता है। भीरू! इसीलिये मैं ब्राह्मण को अधिक दुर्धर्ष मानता हूँ। अत: जब तक आपके पिता आपको मेरे हवाले न कर दें, तब तक मैं आपसे विवाह नहीं करूंगा। देवयानी ने कहा- राजन्! मैंने आपका वरण कर लिया है, अब आप मेरे पिता के देने पर ही मुझसे विवाह करें। आप स्‍वयं तो उनसे याचना करते नहीं हैं; उनके देने पर ही मुझे स्‍वीकार करेंगे। अत: आपको उनके कोप का भय नहीं है। राजन्! दो घड़ी ठहर जाइये। मैं अभी पिता के पास संदेश भेजती हूँ। धाय! शीघ्र जाओ और मेरे ब्रह्म तुल्‍य पिता को यहाँ बुलाले आओ। उनके यह भी कह देना कि देवयानी ने स्‍वयंवर की विधि से नहुष नन्‍दन राजा ययाति का पति रुप में वरण किया है।[2]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत आदि पर्व अध्याय 80 श्लोक 1-11
  2. महाभारत आदि पर्व अध्याय 81 श्लोक 18-31

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
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सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
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