- महाभारत आदि पर्व के ‘वैवाहिक पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 194 के अनुसार द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन का वर्णन इस प्रकार है[1]-
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय तदनन्तर महातेजस्वी, उदारचित्त पाञ्चालराज द्रुपद ने अत्यन्त कान्तिमान कुन्ती पुत्र राजकुमार युधिष्ठिर को (अपने पास) बुलाकर ब्राह्मणोंचित आतिथ्य-सत्कार के द्वारा उन्हें अपनाकर पूछा - ‘हमें कैसे ज्ञात हो कि आप लोग किस वर्ण के हैं? हम आपको क्षत्रिय, ब्राह्मण, गुण सम्पन्न वैश्य अथवा शुद्र क्या समझें? अथवा माया का आश्रय लेकर ब्राह्मण रुप से सब दिशाओं में विचरने वाले आप लोगों को हम कोई देवता मानें? जान पड़ता है, आप कृष्णा को पाने के लिये यहाँ दर्शक बनकर आये हुए देवता ही हैं। आप सच्ची बात हमें बता दें; क्योंकि आपके विषय में हमको बड़ा संदेह हो रहा है। परन्तु आपसे रहस्य की बात सुनकर क्या हमारे इस संशय का नाश और मन को संतोष होगा और क्या हमारा भाग्य उदय होगा? आप स्वेच्छा से ही सच्ची बात बतायें, राजाओं में इष्ट और पूर्त[2] की अपेक्षा सत्य को ही अधिक महीमा है; अत: असत्य नहीं बोलना चाहिये। देवताओं के समान तेजस्वी शत्रुसूदन मैं आपकी बात सुनकर निश्चय ही विधिपूर्वक विवाह की तैयारी करुंगा।
युधिष्ठिर बोले - पाञ्चालराज आप उदास न हों, आपको प्रसन्न होना चाहिये। आपके मन में जो अभीष्ट कामना थी, वह निश्चय ही आज पूरी हुई है, इसमें संशय नहीं है। राजन हम लोग क्षत्रिय ही हैं, महात्मा पाण्डु के पुत्र हैं। मुझे कुन्ती का पुत्र समझिये, वे दोनों भीमसेन और अर्जुन हैं। राजन इन्हीं दोनों ने समस्त राजाओं के समूह में आपकी पुत्री को जीता है। उधर वे दोनों नकुल और सहदेव हैं। माता कुन्ती वहाँ गयी हैं, जहाँ राजकुमारी कृष्णा है। नरश्रेष्ठ अब आपकी मानसिक चिन्ता निकल जानी चाहिये। हम सब लोग क्षत्रिय ही हैं। आपकी यह पुत्री कृष्णा कमलिनी की भाँति एक सरोवर से दूसरे सरोवर को प्राप्त हुई है। महाराज यह सब मैं आपसे सच्ची बात कह रहा हूँ। आप हमारे बड़े तथा परम आश्रय हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय राजा युधिष्ठिर की ये बातें सुनकर महाराज द्रुपद की आंखों में हर्ष के आंसू छलक आये। वे आनन्द मन्ग हो गये और (गला भर आने के कारण) उन युधिष्ठिर को तत्काल (कुछ) उत्तर न दे सके। शुत्रुसूदन द्रुपद ने (बड़े) यत्न से अपने (हर्ष के आवेश) को रोका और युधिष्ठिर को उनके कथन के अनुरुप ही उत्तर दिया। फिर उन धर्मात्मा पाञ्चाल नरेश ने यह पूछा कि ‘आप लोग वारणागत नगर से किस प्रकार निकले?’ पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर वे सारी बातें उन्हें क्रमश: कह सुनायी।[1] कुन्ती कुमार के मुख से वह सारा समाचार सुनकर वक्ताओं में श्रेष्ठ महाराज द्रुपद ने उस समय राजा युधिष्ठिर को आश्वासन दिया। साथ ही उन्होंने यह प्रतिज्ञा भी कि ‘हम तुम्हें तुम्हारा राज्य दिलवाकर रहेंगे।’ राजन तत्पश्चात कुन्ती, कृष्णा, युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव राजा द्रुपद के द्वारा निर्दिष्ट किये हुए विशाल भवन में गये और यज्ञसेन (द्रुपद) से सम्मानित हो वहीं रहने लगे। इस प्रकार विश्वास जम जाने पर महाराज द्रुपद ने अपने पुत्रों के साथ जाकर युधिष्ठिर से कहा - ‘ये कुरुकुल को आनन्दित करने वाला महाबाहु अर्जुन आज के पुण्यमय दिवस में मेरी पुत्री का विधिपूर्वक पाणिग्रहण करें और (अपने कुलोचित) मंगलाचार का पालन प्रारम्भ कर दें।
वैशम्पायन जी कहते हैं - जब धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर ने उनसे कहा - ‘राजन विवाह तो मेरा भी करना होगा।’ द्रुपद बोले - वीर तब आप ही विधिपूर्वक मेरी पुत्री का पाणिग्रहण करें अथवा आप अपने भाइयों में से जिसके साथ आप चाहें, उसी के साथ कृष्णा को विवाह की आज्ञा दे दें। युधिष्ठिर ने कहा - राजन द्रौपदी तो हम सभी भाइयों की पटरानी होगी। मेरी माता ने पहले हम सब लोगों को ऐसी ही आज्ञा दे रखी है। मैं तथा पाण्डव भीमसेन भी अभी तक अविवाहित हैं और आपकी इस रत्न स्वरुपा कन्या को अर्जुन ने जीता है। महाराज हम लोगों में यह शर्त हो चुकी है कि रत्न को हम सब लोग बांटकर एक साथ उपभोग करेंगे। नृपशिरोमणे हम अपनी उस (पुरानी) शर्त को छोड़ना या तोड़ना (नहीं चाहते)। अत: कृष्ण धर्म के अनुसार हम सभी की महारानी होगी। इसलिये वह प्रज्वलित अग्नि के सामने क्रमश: हम सबका पाणि ग्रहण करे। द्रुपद बोले - ‘कुरुनन्दन एक राजा की बहुत-सी रानियां (अथवा एक पुरुष की अनेक स्त्रियां) हों, ऐसा विधान तो वेदों में देखा गया है; परंतु एक स्त्री के अनेक पुरुष पति हो; ऐसा कहीं सुनने में नहीं आया है[3] तुम धर्म के ज्ञाता और पवित्र हो, अत: तुम्हें लोक और वेद के विरुद्ध यह अधर्म नहीं करना चाहिये। तुम कुन्ती के पुत्र हो; तुम्हारी बुद्धि ऐसी क्यों हो रही है? युधिष्ठिर ने कहा - महाराज धर्म का स्वरुप अत्यन्त सुक्ष्म है, हम उसकी गति को नहीं जानते। पूर्वकाल के प्रचेता आदि जिस मार्ग से गये हैं, उसी का हम लोग क्रमश: अनुसरण करते हैं। मेरी वाणी कभी झूठ नहीं बोलती और मेरी बुद्धि भी कभी अधर्म में नहीं लगती। हमारी माता ने हमें ऐसा ही करने की आज्ञा दी है और मेरे मन में भी यही ठीक जंचा है। राजन यह अटल धर्म है। आप बिना किसी सोच विचार के इसका पालन करें। पृथ्वीपते आपको इस विषय में किसी प्रकार की आंशका नहीं होनी चाहिये। द्रुपद बोले - कुन्तीनन्दन तुम, कुन्ती देवी और मेरा पुत्र धृष्टद्युम्न - ये सब लोग मिलकर यह निश्चय करके बतायें कि क्या करना चाहिये? उसे ही कल ठीक समय पर हम लोग करेंगे। वैशम्पायनजी कहते हैं - भारत तदनन्तर वे सब लोग मिलकर इस विषय में सलाह करने लगे। राजन इसी समय भगवान वेदव्यास वहाँ अकस्मात आ पहुँचे।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 194 श्लोक 1-15
- ↑ स्मृतियों में इष्ट और पूर्त का परिचय इस प्रकार दिया गया है -
अग्निहोत्रं तप: सत्यं वेदानां चानुपालनम्।
आतिथ्यं वैश्वदेवं च इष्टमित्यभिधीयते।।
वापीकूपतडागादि देवतायतनानि च।
अन्नप्रदानमारामा: पूर्तभित्यमिधीयते।।
‘अग्निहोत्र, तप, सत्यभाषण, वेदों की आज्ञा का निरन्तर पालन, अतिथियों का सत्कार तथा बलिवैश्यदेव कर्म- ये ‘इष्ट’ कहलाते हैं। बावली, कुआं, पोखरे आदि बनवाना, देवमन्दिर, निर्माण कराना, अन्न दान देना और बगीचे लगाना- इनका नाम पूर्त है।’ - ↑ इस विषय में यह श्रुति का वचन प्रसिद्ध है - एकत्य बह्व्यो जाया भवन्ति, नेकस्यै बहव: सहपतय:’ अर्थात् एक पुरुष की बहुत-सी स्त्रियां होती हैं, किंतु एक स्त्री के लिये बहुत-से पति नहीं होते।
- ↑ महाभारत आदि पर्व अध्याय 194 श्लोक 16-33
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| कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक
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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता
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| पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश
| वारणावत में पाण्डवों का स्वागत
| लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत
| विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण
| लाक्षागृह का दाह
| विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना
| हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश
| कुन्ती के लिए भीम का जल लाना
| माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना
| भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध
| हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना
| भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध
| युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना
| हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना
| भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन
| घटोत्कच की उत्पत्ति
| पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत
| ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार
| ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना
| ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन
| कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना
| कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना
| कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत
| भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव
| भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना
| भीम और वकासुर का युद्ध
| वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना
| द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत
| द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म
| कुन्ती का पांचाल देश में जाना
| व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना
| पाण्डवों की पांचाल यात्रा
| अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता
| राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना
| तपती और संवरण की बातचीत
| वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति
| गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना
| वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव
| शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना
| कल्माषपाद का शाप से उद्धार
| वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति
| शक्ति पुत्र पराशर का जन्म
| पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण
| और्व और पितरों की बातचीत
| पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति
| कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप
| पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत
| ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना
| स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा
| धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना
| राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना
| अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना
| भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा
| कृष्ण-बलराम का वार्तालाप
| अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय
| द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना
| कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत
| पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह
| श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट
| धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना
| द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना
| पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान
| द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन
| द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार
| व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना
| द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना
| द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह
| कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
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| धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय
| पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति
| भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह
| द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति
| विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन
| धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना
| पाण्डवों का हस्तिनापुर आना
| इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण
| श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान
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| सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय
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| तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान
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अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग
| अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन
| अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण
| अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार
| वर्गा की आत्मकथा
| अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना
| यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह
| अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना
| द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता
| अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना
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मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा
| मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति
| जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना
| जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद
| शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना
| मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना
| इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान
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