पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश

महाभारत आदि पर्व के ‘जतुगृह पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 144 के अनुसार पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश का वर्णन इस प्रकार है[1]-

वैशम्‍पायन जी कहते हैं- जनमेजय वायु के समान वेगशाली उत्तम घोड़ो से जुते हुए रथों पर चढ़ने के लिये उद्यत हो उत्तम व्रत को धारण करने वाले पाण्डवों ने अत्‍यन्‍त दु:खी-से होकर पितामह भीष्‍म के दोनों चरणों का स्‍पर्श किया। तत्‍पश्चात् राजा धृतराष्ट्र, महात्‍मा द्रोण, कृपाचार्य, विदुर तथा दूसरे बड़े-बुढ़ों को प्रणाम किया। इस प्रकार क्रमश: सभी वृद्ध कौरवों को प्रणाम करके समान अवस्‍था वाले लागों को हृदय से लगाया। फि‍र बालकों ने आकर पाण्‍डवों को प्रणाम किया। इसके बाद सब माताओं से आज्ञा ले उनकी परिक्रमा करके तथा समस्‍त प्रजाओं से भी विदा लेकर वे वारणावत नगर की ओर प्रस्थित हुए। उस समय महाज्ञानी विदुर तथा कुरुकुल के अन्‍य श्रेष्ठ पुरुष एवं पुरवासी मनुष्‍य शोक से कातर हो नरश्रेष्ठ पाण्‍डवों के पीछे-पीछे चलने लगे। तब कुछ निर्भय ब्राह्मण पाण्‍डवों को अत्‍यन्‍त दीन-दशा में देखकर बहुत दु:खी हो इस प्रकार कहने लगे। ‘अत्‍यन्‍त मन्‍दबुद्धि कुरुवंशी राजा धृतराष्ट्र पाण्‍डवों को सर्वथा विषम दृष्टि से देखते हैं। धर्म की ओर उनकी दृष्टि नहीं है। ‘निष्‍पाप अन्‍त:करण वाले पाण्‍डु कुमार युधिष्ठिर, बलवानों में श्रेष्ठ भीमसेन अथवा कुन्‍तीनन्‍दन अर्जुन कभी पाप से प्रीति नहीं करेंगे। ‘फि‍र महात्‍मा दोनों माद्री कुमार कैसे पाप कर सकेंगे। पाण्‍डवों को अपने पिता से जो राज्‍य प्राप्त हुआ था, धृतराष्ट्र उसे सहन नहीं कर रहे हैं। ‘इस अत्‍यन्‍त अधर्मयुक्त कार्य के लिये भीष्‍म जी कैसे अनुमति दे रहे हैं? पाण्‍डवों को अनुचित रूप से यहाँ से निकाल कर जो रहने योग्‍य स्‍थान नहीं, उस वारणावत नगर में भेजा जा रहा है। फि‍र भी भीष्‍म जी चुपचाप क्‍यों इसे मान लेते हैं?। ‘पहले शंतनुकुमार राजर्षि विचित्रवीर्य तथा कुरुकुल को आनन्‍द देने वाले महाराज पाण्‍डु हमारे राजा थे। केवल राजा ही नहीं, वे पिता के समान हमारा पालन-पोषण करते थे। ‘नरश्रेष्ठ पाण्‍डु जब देवभाव (स्‍वर्ग) को प्राप्त हो गये हैं, तब उनके इन छोटे-छोटे राजकुमारों का भार धृतराष्ट्र नहीं सहन कर पा रहे हैं। ‘हम लोग यह नहीं चाहते, इसलिये हम सब घर-द्वार छोड़कर इस उत्तम नगरी से वहीं चलेंगे, जहाँ युधिष्ठिर जा रहे हैं। शोक से दुर्बल धर्मराज युधिष्ठिर अपने लिये दु:खी उन पुरवासियों को ऐसी बातें करती देख मन-ही-मन कुछ सोचकर उनसे बोले-। ‘बन्‍धुओ राजा धृतराष्ट्र मेरे माननीय पिता, गुरु एवं श्रेष्ठ पुरुष हैं। वे जो आज्ञा दें, उसका हमें निशंक होकर पालन करना चाहिये; यही हमारा व्रत है। ‘आप लोग हमारे हित चिन्‍तक हैं, अत: हमें अपने आशीर्वाद से संतुष्ट करें और हमें दाहिने करते हुए जैसे आये थे, वैसे ही अपने घर को लौट जायं। जब आप लोगों के द्वारा हमारा कोई कार्य सिद्ध होने वाला होगा, उस समय आप हमारे प्रिय और हितकारी कार्य कीजियेगा।’ उनके यों कहने पर पुरवासी उन्‍हें आशीर्वाद से प्रसन्न करते हुए दाहिने करके नगर को ही लौट गये। पुरवासियों के लौट जाने पर सत्‍यधर्म के ज्ञाता विदुर जी पाण्‍डव श्रेष्ठ युधिष्ठिर को दुर्योधन के कपट का बोध कराते हुए इस प्रकार बोले-।[1]

विदुर जी बुद्धिमान तथा मूढ़ म्लेच्‍छों की निर्थक-सी प्रतीत होने वाली भाषा के भी ज्ञाता थे। इसी प्रकार युधिष्ठिर उस म्लेच्‍छ भाषा को समझ लेने वाले तथा बुद्धिमान थे। अत: उन्‍होंने युधिष्ठिर से ऐसी कहने योग्‍य बात कही, जो म्लेच्‍छ भाषा के जानकार एवं बुद्धिमान पुरुष को उस भाषा में कहे हुए रहस्‍य का ज्ञान करा देने वाली थी, किंतु जो उस भाषा के अनभिज्ञ पुरुष को वास्‍तविक अर्थ का वोध नहीं करती थी। ‘जो शत्रु की नीति-शास्त्र का अनुसरण करने वाली बुद्धि को समझ लेता है, वह उसे समझ लेने पर कोई ऐसा उपाय करे, जिससे वह यहाँ शत्रुजनिक संकट से बच सके। ‘एक ऐसा तीखा शस्त्र है, लोहे का बना तो नहीं है, परंतु शरीर को नष्ट कर देता है। जो उसे जानता है, ऐसे उस शस्त्र के आघात से बचने का उपाय जानने वाले पुरुष को शत्रु नहीं मार सकते।[2] ‘घास-फूस तथा सूखे वृक्षों वाले जंगल को जलाने और सर्दी-को नष्ट कर देने वाली आग विशाल वन में फैल जाने पर भी बिल में रहने वाले चूहे आदि जंतुओं को नहीं जला सकतीयों समझकर जो अपनी रक्षा का उपाय करता है, वही जीवित रहता है।[3] ‘जिसके आंखें नहीं है, वह मार्ग नहीं जान पाता; अन्‍धे को दिशाओं का ज्ञान नहीं होता और जो धैर्य खो देता है, उसे सद्बुद्धि नहीं प्राप्त होती। इस प्रकार मेरे समझाने पर तुम मेरी बातों को भलीभाँति समझ लो।[4] ‘शत्रुओं के दिये हुए बिना लोहे के बने शस्त्र को जो मनुष्‍य धारण कर लेता है, वह साही के बिल में घुसकर आग से बच जाता है।[5] ‘मनुष्‍य घूम-फि‍र कर रास्‍ते का पता लगा लेता है, नक्षत्रों से दिशाओं को समझ लेता है तथा जो अपनी पांचों इन्द्रियों का स्‍वयं ही दमन करता है, वह शत्रुओं से पीड़ित नहीं होता।[6] इस प्रकार कहे जाने पर पाण्‍डु नन्‍दन धर्मराज युधिष्ठिर ने विद्वानों में विदुर जी से कहा- ‘मैंने आपकी बात अच्‍छी तरह समझ ली। इस तरह पाण्‍डवों को बार-बार कर्तव्‍य की शिक्षा देते हुए कुछ दूर तक उनके पीछे-पीछे जाकर विदुर जी उनको जाने की आज्ञा दे उन्‍हें अपने दाहिने करके पुन: अपने घर को लौट गये। विदुर, भीष्‍म जी तथा नगरवासियों के लौट आने पर कुन्‍ती अजातशत्रु युधिष्ठिर के पास जाकर बोली। ‘बेटा! विदुर जी ने सब लोगों के बीच में जो अस्‍पष्ट-सी बात कही थी, उसे सुनकर तुमने ‘बहुत अच्‍छा’ कहकर स्‍वीकर किया था; परंतु हम लोग बह बात अब तक नहीं समझ पा रहे हैं। ‘यदि उसे हम भी समझ सकें और हमारे जानने से कोई दोष न आता हो तो तुम्‍हारी और उनकी सारी बातचीत का रहस्‍य मैं सुनना चाहती हूँ।

युधिष्ठिर ने कहा - माँ जिनकी बुद्धि सदा धर्म में ही लगी रहती है, उन विदुर जी ने (सांकेतिक भाषा में) मुझसे कहा था ‘तुम जिस घर में ठहरोगे, वहाँ से आग का भय है, यह बात अच्‍छी तरह जान लेनी चाहिये। साथ ही वहाँ का कोई भी मार्ग ऐसा न हो, जो तुमसे अपरिचित रहे। ‘यदि तुम अपनी इन्द्रियों को वश में रखोगे तो सारी पृथ्‍वी का राज्‍य प्राप्त कर लोगे, यह बात भी उन्‍होंने मुझसे बतायी थी। और इन्‍हीं बातों के लिये मैंने विदुर जी को उत्तर दिया था कि ‘मैं सब समझ गया।’ वैशम्‍पायन जी कहते हैं- पाण्‍डवों ने फाल्‍गुन शुक्‍ला अष्टमी के दिन रोहिणी नक्षत्र में यात्रा की थी। वे यथा समय वारणावत पहुँचर कर वहाँ के नागरिकों से मिले।[7]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 144 श्लोक 1-19
  2. यहाँ संकेत से यह बात बतायी गयी है कि शत्रुओं ने तुम्हारे लिये एक ऐसा भवन तैयार करवाया है, जो आगे जो भड़कने वाले पदार्थों बना है। शस्त्र का शुद्ध रूप सस्त्र है, जिसका अर्थ घर होता है।
  3. तात्पर्य यह है, वहाँ जो तुम्हारा पारर्ववर्ती होगा, वह पुरोचन ही तुम्हें आग में जलाकर नष्ट करना चाहता है। तुम उस आग-से बचने के लिये एक सुरंग तैयार करा लेना। कक्षघ्न का शुद्ध रूप कुक्षिघ्न है, जिसका अर्थ है कुक्षिचर या पारर्ववतीं।
  4. अर्थात दिशा आदि का ठीक ज्ञान पहले से ही कर लेना, जिससे रात में भटकना न पड़े।
  5. तात्पर्य यह है कि उस सुरंग से यदि बाहर निकल जाओगे तो लाक्षागृह लगी हुई आग से बच सकोगे।
  6. अर्थात यदि तुम पाँचों भाई एकतम रहोगे तो शत्रु तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।
  7. महाभारत आदि पर्व अध्याय 144 श्लोक 20-34

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सम्मान | द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण | अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना | द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना | युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक | पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता | कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश
जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
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अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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