कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति

महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 129 के अनुसार कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति की कथा का वर्णन इस प्रकार है।[1]-

कृपाचार्य का जन्म

जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन्! कृपाचार्य का जन्‍म किस प्रकार हुआ? यह मुझे बताने की कृपा करें। वे सरकंडे के समूह से किस तरह उत्‍पन्न हुए एवं उन्‍होंने किस प्रकार अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा प्राप्त की?। वैशम्‍पायनजी ने कहा- महाराज! महर्षि गौतम के शरद्वान् गौतम नाम से प्रसिद्ध एक पुत्र थे। प्रभो! कहते हैं, वे सरकंडों के साथ उत्‍पन्न हुए थे। परंतप! उनकी बुद्धि धनुर्वेद में जितनी लगती थी, उतनी वेदों के अध्‍ययन में नहीं। जैसे अन्‍य ब्रह्मचारी तपस्‍या पूर्वक वेदों का ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार उन्‍होंने तपस्‍या युक्त होकर सम्‍पूर्ण अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किये। वे धनुर्वेद में पारंगत तो थे ही, उनकी तपस्‍या भी बड़ी भारी थी, इससे गौतम ने देवराज इन्‍द्र को अत्‍यन्‍त चिन्‍ता में डाल दिया था। कौरव! तब देवराज ने जानपदी नाम की एक देवकन्‍या को उनके पास भेजा और यह आदेश किया कि ‘तुम शरद्वान् की तपस्‍या में विघ्न डालो’। वह जानपदी शरद्वान् के रमणीय आश्रम पर जाकर धनुष बाण करने वाले गौतम को लुभाने लगी। गौतम ने एक वस्त्र धारण करने वाली उस अप्‍सरा को वन में देखा। संसार में उसके सुन्‍दर शरीर की कहीं तुलना नहीं थी। उसे देखकर शरद्वान् के नेत्र प्रसन्नता से खिल उठे। उनके हाथों से धनुष और बाण छूटकर पृथ्‍वी पर गिर पड़े तथा उसकी ओर देखने से उनके शरीर में कम्‍प हो आया। शरद्वान् ज्ञान में बहुत बढ़े-चढ़े थे और उनमें तपस्‍या की भी प्रबल शक्ति थी। अत: वे महाप्राज्ञ मुनि अत्‍यन्‍त धीरता-पूर्वक अपनी मर्यादा में स्थित रहे। राजन्! किंतु उनके मन में सहसा जो विकार देखा गया, इससे उनका वीर्य स्‍खलित हो गया; परंतु इस बात का उन्‍हें भान नहीं हुआ। वे मुनि बाण सहित धनुष, काला मृगचर्म, वह आश्रम और वह अप्‍सरा- सबको वहीं छोड़कर वहाँ से चल दिये उनका वह वीर्य सरकंडे के समुदाय पर गिर पड़ा। राजन्! वहाँ गिरने पर उनका वीर्य दो भागों में बंट गया। तदनन्‍तर गौतम नन्‍दन शरद्वान् के उसी वीर्य से एक पुत्र और एक कन्‍या की उत्‍पत्ति हुई।[1]

शान्तनु द्वारा कृपाचार्य का पालन पोषण

उस दिन दैवच्‍छा से राजा शान्तनु वन में उस युगल संतानों को देखा। वहाँ बाणसहित धनुष और काला मृगचर्म देखकर उसने यह जान लिया कि ‘ये दोनों किसी धनुर्वेद के पारंगत विद्वान् ब्राह्मण की संतानें हैं’ ऐसा निश्‍चय होने पर उसने राजा को ये दोनों बालक और बाण सहित धनुष दिखाया। राजा उन्‍हें देखते ही कृपा के वशीभूत हो गये और उन दोनों को साथ ले अपने घर आ गये। वे किसी के पूछने पर यही परिचय देते थे कि ‘ये दोनों मेरी ही संतानें हैं’। तदनन्‍तर नरश्रेष्ठ प्रतीपनन्‍दन शन्‍तनु ने शरद्वान् के उन दोनों बालकों का पालन-पोषण किया और यथा सम्‍भव उन्‍हें सब संस्‍कारों से सम्‍पन्न किया। गौतम (शरद्वान्) भी उस आश्रम से अन्‍यत्र जाकर धनुर्वेद के अभ्‍यास में तत्‍पर रहने लगे। राजा शन्‍तनु ने यह सोचकर कि मैंने इन बालकों को कृपा पूर्वक पाला पोसा है, उन दोनों के वे ही नाम रख दिये- कृप और कृपी। राजा के द्वारा पालित हुई अपनी दोनों संतानों का हाल गौतम ने तपोबल से जान लिया।[1] और वहाँ गुप्त रूप से आकर अपने पुत्र को गोत्र आदि सब बातों का पूरा परिचय दे दिया। चार प्रकार के धनुर्वेद, नाना प्रकार के उपदेश तथा उन सबके गूढ़ रहस्‍य का भी पूर्ण रुप से उसको उपदेश दिया।[2]-

कृपाचार्य व द्रोण द्वारा पाण्डवों और कौरवों को धनुर्वेद शिक्षा

इससे कृप थोड़े ही समय में धनुर्वेद के उत्‍कृष्ट आचार्य हो गये धृतराष्ट्र के महारथी पुत्र,पाण्‍डव देशों से आये हुए अन्‍य नरेश भी उनसे धनुर्वेद की शिक्षा लेते थे। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- राजन्! कृपाचार्य के द्वारा पूर्णत: शिक्षा मिल जाने पर पितामह भीष्‍म ने अपने पौत्रों में विशिष्ट योग्‍यता लाने के लिये उन्‍हें और अधिक शिक्षा देने की इच्‍छा से ऐसे आचार्यों की खोज प्रारम्‍भ की, जो बाण-संचालन की कला में निपुण और अपने पराक्रम के लिये सम्‍मानित हों। उन्‍होंने सोचा- ‘जिसकी बुद्धि थोड़ी है, जो महान् भाग्‍यशाली नहीं है,जिसने नाना प्रकार की अस्त्र-विद्या में निपुणता नहीं प्राप्त की है तथा जो देवताओं के समान शक्तिशाली नहीं है, वह इन महाबली कौरवों को अस्त्रविद्या की शिक्षा नहीं दे सकता।’ नरश्रेष्ठ! यों विचार कर भरतश्रेष्ठ गंगा नन्‍दन भीष्‍म ने भरद्वाज वंशी, वेदवेत्ता तथा बुद्धिमान् द्रोण को आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित करके उनको शिष्‍य रूप में पाण्‍डवों तथा कौरवों को समर्पित कर दिया। अस्त्रविद्या के विद्वानों में श्रेष्ठ महाभाग द्रोण महात्‍मा भीष्‍म के द्वारा शास्त्रविधि से भलीभाँति पूजित होने पर बहुत संतुष्ट हुए। फिर उन महा यशस्‍वी आचार्य द्रोण ने उन सबको शिष्‍य रुप में स्‍वीकार किया और सम्‍पूर्ण धनुर्वेद की शिक्षा दी। राजन्! अमित तेजस्‍वी पाण्‍डव तथा कौरव-सभी थोड़े ही समय में सम्‍पूर्ण शस्त्रविद्या में परम प्रवीण हो गये।[2]

द्रोण का जन्म

जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन्! द्रोणाचार्य की उत्‍पत्ति कैसे हुई? उन्‍होंने किस प्रकार अस्त्र-विद्या प्राप्त की? वे कुरुदेश में कैसे आये? तथा वे महापराक्रमी द्रोण किसके पुत्र थे? साथ ही अस्त्र-शस्त्र के विद्वानों में श्रेष्ठ अश्‍वत्‍थामा, जो द्रोण का पुत्र था, कैसे उत्‍पन्न हुआ? यह सब मैं सुनना चाहता हूँ। आप विस्‍तारपूर्वक कहिये। वैशम्‍पायनजी ने कहा- जनमेजय! गंगाद्वार में भगवान् भरद्वाज नाम से प्रसिद्ध एक महर्षि रहते थे। वे सदा अत्‍यन्‍त कठोर व्रतों का पालन करते थे। एक दिन उन्‍हें एक विशेष प्रकार के यज्ञ का अनुष्ठान करना था। इसलिये वे भरद्वाज मुनि महर्षियों को साथ लेकर गंगाजी में स्नान करने के लिये गये। वहाँ पहुचकर महर्षि ने प्रत्‍यक्ष देखा, घृताची अप्‍सरा पहले से ही स्नान करके नदी के तट पर खड़ी हो वस्त्र बदल रही है। वह रूप और यौवन से सम्‍पन्न थी। जवानी के नशे में मद से उन्‍मत्त हुई जान पड़ती थी। उसका वस्त्र खिसक गया और उसे उस अवस्‍था में देखकर ऋषि के मन में कामवासना जाग उठी। परम बुद्धिमान् भरद्वाजजी का मन अप्‍सरा में आसक्त हुआ; इससे उनका वीर्य स्‍खलित हो गया। ऋषि ने उस वीर्य को द्रोण (यज्ञ कलश) में रख दिया। तब उन बुद्धिमान् महर्षि को उस कलश से जो पुत्र उत्‍पन्न हुआ, वह द्रोण से जन्‍म लेने के कारण द्रोण नाम से विख्‍यात हुआ। उसने सम्‍पूर्ण वेदों और वेदांगों का अध्‍ययन किया। प्रतापी महर्षि भरद्वाज अस्त्र वेत्ताओं में श्रेष्ठ थे। उन्‍होंने महाभाग अग्निवेश को अस्त्र की शिक्षा दी थी। जनमेजय! अग्निवेश मुनि साक्षात् अग्नि के पुत्र थे। उन्‍होंने अपने गुरु पुत्र भरद्वाज नन्‍दन द्रोण को उस आग्नेय नामक महान् अस्त्रक की शिक्षा दी।[2]

अश्वथामा की उत्पत्ति

उन दिनों पृपत नाम से प्रसद्धि एक भूपाल महर्षि भरद्वाज के मित्र थे। उन्‍हें उसी समय एक पुत्र हुआ, जिसका नाम दु्पद था वह राजकुमार क्षत्रियों में श्रेष्ठ था। वह प्रतिदिन भरद्वाज मुनि के आश्रम में जाकर द्रोण के साथ खेलता और अध्‍ययन करता था। नरेश्वर जनमेजय! पृषत की मृत्‍यु हो जाने पर महाबाहु द्रुपद उत्तर-पंचाल देश के राजा हुए। कुछ दिनों बाद भगवान् भराद्वाज भी स्‍वर्गवासी हो गये और महातपस्‍वी द्रोण उसी आश्रम में रहकर तपस्‍या करने लगे। वे वेदों और वेदांगों के विद्वान् तो थे ही, तपस्‍या द्वारा अपनी सम्‍पूर्ण पापराशि को दग्‍ध कर चुके थे। उनका महान् यश सब ओर फैल चुका था। एक समय पितरों ने उनके मन में पुत्र उत्पन्न करने की प्रेरणा दी। अत: द्रोणाचार्य ने पुत्र के लोभ से शरद्वान् की पुत्री कृपी को धर्मपत्नी के रुप में ग्रहण किेया। कृपी सदा अग्निहोत्र, धर्मानुष्ठान तथा इन्द्रिय संयम में उनका साथ देती थी। गौतमी कृपी ने द्रोण से अश्वत्‍थामा नामक पुत्र प्राप्त किया। उस बालक ने जन्‍म लेते ही उच्चै:श्रवा घोड़े के समान शब्‍द किया। उसे सुनकर अन्‍तरिक्ष में स्थित किसी अदृश्‍य चेतन ने कहा- ‘इस बालक के चिल्‍लाते समय अश्व के समान शब्‍द सम्‍पूर्ण दिशाओं में गूंज उठा है; अत: यह अश्वत्‍थामा नाम से ही प्रसिद्ध होगा।’ उस पुत्र से भरद्वाज नन्‍दन द्रोण को बड़ी प्रसन्नता हुई। बुद्धिमान् द्रोण उसी आश्रम में रहकर धनुर्वेद का अभ्‍यास करने लगे।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 महाभारत आदि पर्व अध्याय 129 श्लोक 1-20
  2. 2.0 2.1 2.2 महाभारत आदि पर्व अध्याय 129 श्लोक 21-40
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 129 श्लोक 41-57

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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