कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक

महाभारत आदि पर्व के ‘सम्भव पर्व’ के अंतर्गत अध्याय 135 के अनुसार कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक की कथा का वर्णन इस प्रकार है।[1]-

कर्ण के असंख्य गुणों का वर्णन

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! आश्चर्य से आंखें फाड़-फाड़कर देखते हुए द्वारपालों ने जब भीतर जाने का मार्ग दे दिया, तब शत्रुओं की राजधानी पर विजय पाने वाले कर्ण ने उस विशाल रंगभूमि में प्रवेश किया। उसने शरीर के साथ ही उत्‍पन्न हुए दिव्‍य कवच को धारण कर रक्‍खा था। दोनों कानों के कुण्‍डल उसके मुख को उद्भासित कर रहे थे। हाथ में धनुष लिये और कमर में तलवार बांधे वह वीर पैरों से चलने वाले पर्वत की भाँति सुशोभित हो रहा था। कुन्‍ती ने कन्‍यावस्‍था में ही उसे अपने गर्भ में धारण किया था। उसका यश सर्वत्र फैला हुआ था। उसके दोनों नेत्र बड़े-बड़े थे। शत्रु समुदाय का संहार करने वाला कर्ण प्रचण्‍ड किरणों वाले भगवान् भास्‍कर का अंश था। उसमें सिंह के समान बल, सांड के समान वीर्य तथा गजराज के समान पराक्रम था,वह दीप्ति से सूर्य, कान्ति से चन्‍द्रमा तथा तेजस्‍वी गुण से अग्नि के समान जान पड़ता था। उसका शरीर बहुत ऊंचा था, अत: यह सुवर्णमय ताड़ के वृक्ष-सा प्रतीत होता था। उसके अंगों की गठन सिंह जैसी जान पड़ती थी। उसमें असंख्‍य गुण थे। उसकी तरुण अवस्‍था थी। वह साक्षात् भगवान् सूर्य से उत्‍पन्न हुआ था, अत: (उन्‍हीं के समान) दिव्‍य शोभा से सम्‍पन्न था। उस समय महाबाहु कर्ण ने रंगमण्‍डप में सब ओर दृष्टि डालकर द्रोणाचार्य और कृपाचार्य को इस प्रकार प्रणाम किया, मानो उनके प्रति उसके मन में अधिक आदर का भाव न हो। रंगभूमि में जितने लोग थे, वे सब निश्चल होकर एकटक दृष्टि से देखने लगे। यह कौन है, यह जानने के लिये उनका चित्त चञ्चल हो उठा। वे सब-के-सब उत्‍कण्ठित हो गये। इतने में ही वक्ताओं में श्रेष्ठ सूर्य पुत्र कर्ण, जो पाण्‍डवों का भाई लगता था, अपने अज्ञात भ्राता इन्‍द्र कुमार अर्जुन से मेघ के समान गम्‍भीर वाणी में बोला। ‘कुन्‍तीनन्‍दन! तुमने इन दर्शकों के समक्ष जो कार्य किया है, मैं उससे भी अधिक अद्भुत कर्म कर दिखाऊंगा।अत: तुम अपनेपराक्रम पर गर्व नकरो’। वक्ताओं श्रेष्ठजनमेजय! कर्ण की बात अभी पूरी ही न हो पायी थी कि सब ओर से मनुष्‍य तुरंत उठकर खड़े हो गये, मानो उन्‍हें किसी यन्‍त्र से एक साथ उठा दिया गया हो। नरश्रेष्ठ! उस समय दुर्योधन के मन में बड़ी प्रसन्नता हुई और अर्जुन के चित्त में क्षणभरमें लज्जा और क्रोध का संचार हो आया। त‍ब सदा युद्ध से ही प्रेम करने वाले महाबली कर्ण ने द्रोणाचार्य की आज्ञा लेकर, अर्जुन ने वहाँ जो-जो अस्त्र-कौशल प्रकट किया था, वह सब कर दिखाया। भारत! तदनन्‍तर भाईयों सहित दुर्योधन ने वहाँ बड़ी प्रसन्नता के साथ कर्ण को हृदय से लगाकर कहा। दुर्योधन बोला- महाबाहो! तुम्‍हारा स्‍वागत है। मानद! तुम यहाँ पधारे, यह हमारे लिये बड़े सौभाग्‍य की बात है। मैं तथा कौरवों का यह राज्‍य सब तुम्‍हारे हैं। तुम इनका यथेष्ट उपभोग करो। कर्ण ने कहा-प्रभो! आपने जो कुछ कहा है, वह सब पूरा कर दिया, ऐसा मेरा विश्रवास है। मैं आपके साथ मित्रता चाहता हूँ और अर्जुन के साथ मेरी द्वन्‍द्व-युद्ध करने की इच्‍छा है।[1]

दुर्योधन का कर्ण को अर्जुन के साथ युद्ध के लिये प्रेरित करना

दुर्योधन बोला- शत्रुदमन! तुम मेरे साथ उत्तम भोग भोगो। अपने भाई-बन्‍धुओं का प्रिय करो और समस्‍त शत्रुओं के मस्‍तक पर पैर रक्‍खो। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! उस समय अर्जुन ने अपने-आपको कर्ण द्वारा तिरस्‍कृत –सा मानकर दुर्योधन आदि सौ भाइयों के बीच में अविचल-से खड़े हुए कर्ण को सम्‍बोधित करके कहा-। अर्जुन बोले-कर्ण! बिना बुलाये आने वालों और बिना बुलाये बोलने वालों को जो (निन्‍दनीय) लोक प्राप्त होते हैं, मेरे द्वारा मारे जाने पर तुम उन्‍हीं लोकों में जाओगे। कर्ण ने कहा- अर्जुन! यह रंगमण्‍डप तो सबके लिये साधारण है, इसमें तुम्‍हारा क्‍या लगा है? जो बल और पराक्रम में श्रेष्ठ होते हैं,वे ही राजा कहलाने योग्‍य हैं। धर्म भी बल का ही अनुसरण करता है। भारत! आक्षेप करना तो दुर्बलों का प्रयास है। इससे क्‍या लाभ है? साहस हो तो बाणों से बाचचीत करो। मैं आज तुम्‍हारे गुरु के सामने ही बाणों द्वारा तुम्‍हारा सिर धड़ से अलग किये देता हूँ। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- राजन्! तदनन्‍तर शत्रुओं के नगर को जीतने वाले कुन्‍तीनन्‍दन अर्जुन आचार्य द्रोण की आज्ञा ले तुरंत अपने भाइयों से गले मिलकर युद्ध के लिये कर्ण की ओर बढ़े। तब भाइयों सहित दुर्योधन ने भी धनुष-बाण ले युद्ध के लिये तैयार खड़े हुए कर्ण का आलिंगन किया। उस समय बकपंक्तियों के व्‍याज से हास्‍य की छटा बिखेरने वाले बादलों ने बिजली की चमक, गड़गडा़हट और इन्‍द्रधनुष के साथ समूचे आकाश को ढक लिया। तत्‍पश्चात् अर्जुन के प्रति स्‍नेह होने के कारण इन्‍द्र को रंगभूमि का अवलोकन करते देख भगवान् सूर्य ने भी अपने समीप बादलों को छिन्न-भिन्न कर दिया। तब अर्जुन मेघ की छाया में छिपे हुए दिखायी देने लगे और कर्ण भी सूर्य की प्रभा से प्रकाशित दीखने लगा। धृतराष्ट्र के पुत्र जिस ओर कर्ण था, उसी ओर खड़े हुए तथा द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और भीष्‍म जिधर अर्जुन थे, उस ओर खड़े थे। रंगभूमि के पुरुषों और स्त्रियों में भी कर्ण और अर्जुन को लेकर दो दल हो गये।[2]-

कृपाचार्य द्वारा कर्ण से परिचय पूछना

कुन्तिभोज कुमारी कुन्‍ती देवी वास्‍तविक रहस्‍य को जानती थीं ( कि ये दोनों मेरे ही पुत्र हैं ), अत: चिन्‍ता के कारण उन्‍हें मूर्च्‍छा आ गयी। उन्‍हें इस प्रकार मूर्च्‍छा में पड़ी हुई देख सब धर्मों के ज्ञाता विदुरजी ने दासियों द्वारा चन्‍दन मिश्रित जल छिड़कवाकर होश में लाने की चेष्टा की। इससे कुन्‍ती को होश तो आ गया; किंतु अपने दोनों पुत्रों को युद्ध के लिये कवच धारण किये देख वे बहुत घबरा गयीं। उन्‍हें रोकने का कोई उपाय उनके ध्‍यान में नहीं आया। उन दोनों को विशाल धनुष उठाये देख द्वन्‍द्व-युद्ध की नीति-रीति में कुशल और समस्‍त धर्मों के ज्ञाप शरद्वान् के पुत्र कृपाचार्य ने इस प्रकार कहा-। ‘कर्ण! ये कुन्‍तीदेवी के सबसे छोटे पुत्र पाण्‍डुनन्‍दन अर्जुन कुरुवंश के रत्न हैं, जो तुम्‍हारे साथ द्वन्‍द्व-युद्ध करेंगे। महाबाहो! इसी प्रकार तुम भी अपने माता-पिता तथा कुल का परिचय दो और उन नरेश के नाम बताओ, जिनका वंश तुमसे विभूषित हुआ है। ‘इसे जान लेने के बाद यह निश्चय होगा कि अर्जुन तुम्‍हारे साथ युद्ध करेंगे या नहीं; क्‍योंकि राजकुमार नीच कुल और हीन आचार –विचार वाले लोगों के साथ युद्ध नहीं करते’।[2]

दुर्योधन द्वारा कर्ण का राज्यभिषेक व मित्रता

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय! कृपाचार्य के यों कहने पर कर्ण का मुख लज्जा से नीचे झुक गया। जैसे वर्षा के पानी से भीगकर कमल मुरझा जाता है, उसी प्रकार कर्ण का मुंह म्‍लान हो गया। तब दुर्योधन ने कहा-आचार्य! शास्त्रीय सिद्वान्‍त के अनुसार राजाओं की तीन योनियां हैं- उत्तम कुल में उत्‍पन्न पुरुष, शूरवीर तथा सेनापति (अत: शूरवीर होने के कारण कर्ण भी राजा ही हैं)। यदि ये अर्जुन राजा से भिन्न पुरुष के साथ रणभूमि में लड़ना नहीं चाहते तो मैं कर्ण को इसी समय अंगदेश के राज्‍य पर अभिषिक्त करता हूँ। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- राजन्! तदनन्‍तर दुर्योधन ने राजा धृतराष्ट्र और गंगानन्‍दन भीष्‍म की आज्ञा ले ब्राह्मणों द्वारा अभिषेक का सामान मंगवाया। फि‍र उसी समय महाबली एवं महारथी कर्ण को सोने के सिंहासन पर बिठाकर मन्‍त्रवेत्ता ब्राह्मणों ने लावा और फूलों से युक्त सुवर्णमय कलशों के जल से अंगदेश के राज्‍य पर अभिषिक्त किया। तब मुकुट, हार, केयूर, कंगन, अंगद,राजेचित चिन्‍ह तथा अन्‍य शुभ आभूषणों से विभूषित हो वह छत्र, चंवर तथा जय-जयकार के साथ राज्‍य श्री से सुशोभित होने लगा। फि‍र ब्राह्मणों से समादृत हो राजाकर्ण ने उन्‍हें असीम धन प्रदान किया। राजन्! उस समय उसने कुरुश्रेष्ठ दुर्योधन से कहा- ‘नृपतिशिरोमणे! आपने मुझे जो यह राज्‍य प्रदान किया है, इसके अनुरूप मैं आपको क्‍या भेंट दूं? बताइये, आप जैसा कहेंगे वैसा ही करूंगा।’ यह सुनकर दुर्योधन ने कहा- ‘अंगराज! मैं तुम्‍हारे साथ ऐसी मित्रता चाहता हूं, जिसका कभी अन्‍त न हो’। उसके यों कहने पर कर्ण ने ‘तथास्‍तु’ कहकर उसके साथ मैत्री कर ली। फि‍र वे दोनों बड़े हर्ष से एक दूसरे को हृदय से लगाकर आनन्‍दमग्‍न हो गये।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 135 श्लोक 1-15
  2. 2.0 2.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 135 श्लोक 16-33
  3. महाभारत आदि पर्व अध्याय 135 श्लोक 34-41

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जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
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चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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