पुरुरवा, नहुष और ययाति के चरित्रों का वर्णन

वैशम्पायनजी जनमेजय से कहते है मैं तुम्हें दक्ष, वैवस्वत व मनु के पुत्रों की उत्पत्ति के बारे में बता दिया है अब मैं पुरुरवा, नहुष व ययाति के चरित्र का वर्णन करुगँ जो कि महाभारत आदिपर्व के ‘सम्भवपर्व’ के अंतर्गत अध्याय 75 के अनुसार इस प्रकार है[1]-

पुरूरव चरित्र वर्णन

महायशस्‍वी पुरूरवा मनुष्‍य होकर भी मानवेतर प्राणियों से घिरे रहते थे। वे अपने बल-पराक्रम से उन्‍मत्त हो ब्राह्मणों के साथ विवाद करने लगे। बेचारे ब्राह्मण चीखते-चिल्लाते रहते थे तो भी वे उनका सारा धन-रत्न छीन लेते थे। जनमेजय! ब्रह्मलोक से सनत्‍कुमारजी ने आकर उन्‍हें बहुत समझाया और ब्राह्मणों पर अत्‍याचार न करने का उपदेश दिया, किंतु वे उनकी शिक्षा ग्रहण न कर सके। तब क्रोध में भरे हुए महर्षियों ने तत्‍काल उन्‍हें शाप दे दिया, जिससे वे नष्ट हो गये। राजा पुरुरवा लोभ से अभिभूत थे और बल के घमंड में आकर अपनी विवेक शक्ति खो बैठे थे। वे शोभाशाली नरेश ही गन्‍धर्व लोक में स्थित और विधि पूर्वक स्‍थापित त्रिवि‍ध अग्नियों को उर्वशी के साथ इस धरातल पर लाये थे।

पुरूरवा के पुत्रों के नाम

इलानन्‍दन पुरुरबा के छ: पुत्र उत्‍पन्न हुए, जिनके नाम इस प्रकार हैं- आयु, धीमान, अमावसु, दृढ़ायु, बनायु और शतायु। ये सभी उर्वशी के पुत्र हैं। उनमें से आयु के स्‍वर्भानुकुमारी के गर्भ से उत्‍पन्न पांच पुत्र बताये जाते हैं। नहुष, वृद्धशर्मा , रजि, गय तथा अनेना। आयुर्नन्‍दन नहुष बड़े बुद्धिमान् और सत्‍य-पराक्रमी थे।

नहुष के चरित्र वर्णन

पृथ्‍वीपते! उन्‍होंने अपने विशाल राज्‍य का धर्मपूर्वक शासन किया। पितरो, देवताओं, ऋषियों, ब्राह्मणों, गन्‍धर्वों, नागों, राक्षसों तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्‍यों का भी पालन किया। राजा नहुष ने झुंड-के-झुंड डाकुओं और लुटेरों का वध करके ऋषियों को भी कर देने के लिये विवश किया। अपने इन्‍द्रत्‍व काल में पराक्रमी नहुष ने महर्षियों को पशु की तरह वाहन बनाकर उनकी पीठ पर सवारी की थी। उन्‍होंने तेज, तप, ओज और पराक्रम द्वारा समस्‍त देवताओं को तिरस्‍कृत करके इन्‍द्र पद का उपयोग किया था।

नहुष के पुत्रों के नाम

राजा नहुष ने छ: प्रिय वादी पुत्रों को जन्‍म दिया, जिन के नाम इस प्रकार हैं- यति, ययाति, संयाति, आयाति, अयाति और ध्रुव[2]। इनमें यति योग का आश्रय लेकर ब्रह्मभूत मुनि हो गये थे।

ययाति का चरित्र वर्णन

तब नहुष के दूसरे पुत्र सत्‍यपराक्रमी ययाति सम्राट हुए। उन्‍होंने इस पृथ्‍वी का पालन तथा बहुत-से यज्ञों का अनुष्ठान किया। महाराज ययाति किसी से परास्‍त होने वाले नही थे। वे सदा मन और इन्द्रियों को संयम में रखकर बड़े भक्ति-भाव से देवताओं तथा पितरों का पूजन करते और समस्‍त प्रजा पर अनुग्रह रखते थे।

ययाति के पुत्रों के नाम

महाराज जनमेजय! राजा ययाति के देवयानी और शर्मिष्ठा के गर्भ से महान् धनुर्धर पुत्र उत्‍पन्न हुए। वे सभी समस्‍त सद्गुणों के भण्‍डार थे। यदु और तुर्वसु-ये दो देवयानी के पुत्र थे और द्रुह्यु, अनु तथा पुरु-ये तीन शर्मिष्ठा के गर्भ से उत्‍पन्न हुए थे।

पुरूरवा द्वारा ययाति को अपनी युवावस्था देना

राजन्! वे सर्वदा धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करते थे। एक समय नहुष पुत्र ययाति को अत्‍यन्‍त भयानक वृद्धावस्‍था प्राप्त हुई, जो रुप और सौन्‍दर्य का नाश करने वाली है। जनमेजय! वृद्धावस्‍था से आक्रान्त होने पर राजा ययाति ने अपने समस्त पुत्रों यदु, पुरु, तुर्वसु, द्रुह्यु तथा अनु से कहा- ‘पुत्रो! मैं युवावस्‍था से सम्‍पन्न हो जवानी के द्वारा कामोपभोग करते हुए युवतियों के साथ विहार करना चाहता हूँ। तुम मेरी सहायता करो’। यह सुनकर देवयानी के ज्‍येष्ठ पुत्र यदु ने पुछा ’भगवन्! हमारी जवानी लेकरउसके द्वारा आपको कौनसा कार्य करना है’। तब ययातिन ने उससे कहा- ‘तुम मेरा बुढ़ापा ले लो और मैं तुम्‍हारी जबानी से विषयोपभोग करूंगा। ‘पुत्रो! अब तक तो मैं दीर्घकालीन यज्ञों के अनुष्ठान में लगा रहा और अब मुनिवर शुक्राचार्य के शाप से बुढ़ापे ने मुझे धर दवाया है, जिससे मेरा का रुप पुरुषार्थ छिन गया। इसी से मैं संतप्त हो रहा हूँ। ‘तुममें से कोई एक व्‍यक्ति मेरा वृद्ध शरीर लेकर उसके द्वारा राज्‍य शासन करे। मैं नूतन शरीर पाकर युवावस्‍था से सम्‍पन्न हो विषयों का उपभोग करुंगा। राजा के ऐसा कहने पर भी वे यदु आदि चार पुत्र उनकी वृद्धावस्‍था न ले सके। तब सबसे छोटे पुत्र सत्‍यपराक्रमी पुरु ने कहा- ‘राजन! आप मेरे नूतन शरीर से नौजवान होकर विषयों का उपभोग कीजिये। मैं आपकी आज्ञा से बुढ़ापा लेकर राज्‍य सिंहासन पर बैठूंगा। पुरु के ऐसा कहने पर राजर्षि ययाति ने तप और वीर्य के आश्रय से अपनी वृद्धावस्‍था का अपने महात्‍मा पुत्र पुरु में संचार कर दिया। ययाति स्‍वयं पुरू की नयी अवस्‍था लेकर नौजवान बन गये। इधर पुरु भी राजा ययाति की अवस्‍था लेकर उसके द्वारा राज्‍य का पालन करने लगे। तदनन्‍तर किसी के परास्‍त नहोने वाले और सिंह के समान पराक्रमी नृपश्रेष्ठ ययाति एक सहस्र वर्ष तक युवावस्‍था में स्थित रहे। उन्‍होंने अपनी दोनों पत्नियों के साथ दीर्घकाल तक बिहार करके चैत्ररथ वन में जाकर विश्‍ववाची अप्‍सरा के साथ रमण किया। परंतु उस समय भी महायशस्‍वी ययाति काम-भोग से तृप्त न हो सके। राजन्! उन्‍होंने मनसे विचारकर यह निश्चय कर लिया कि विषयों के भोगनेसे भोगेच्‍छा कभी शान्‍त नहीं हो सकती।[3]-

ययाति का पुरूरवा से अपना बुढ़ापा वापस लेना

तब राजा ने (संसार के हित के लिये) यह गाथा गायी। ‘विषय-भोग की इच्‍छा विषयों का उपभोग करने से कभी शान्‍त नहीं हो सकती। घी की आहुति डालने से अधिक प्रज्‍वलित होने वाली आग की भाँति वह और भी बढ़ती ही जाती है। ‘रत्नों से भरी हुई सारी पृथ्‍वी, संसार का सारा सुवर्ण, सारे पशु और सुन्‍दरी स्त्रियां किसी एक पुरुष को मिल जायं, तो भी वे सब-के-सब उसके लिये पर्याप्त नहीं होंगे। वह और भी पाना चाहेगा। ऐसा समझकर शान्ति धारण करे- भोगेच्‍छा को दबा दे। ‘जब मनुष्‍य मन, वाणी और क्रिया द्वारा कभी किसी भी प्राणी के प्रति बुरा भाव नहीं करता, तब वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। ‘जब सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि होने के कारण यह पुरुष किसी से नहीं डरता और जब उससे भी दूसरे प्राणी नहीं डरते तथा जब वह न तो किसी की इच्‍छा करता है और न किसी से द्वेष ही रखता है, उस समय वह ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है’। जनमेजय! परम बुद्धिमान् महाराज ययाति ने इस प्रकार भोगों की नि:सारता का विचार करके बुद्धि के द्वारा मन को एकाग्र किया और पुत्र से अपना बुढ़ापा वापस ले लिया। पुरु को अपनी जवानी लौटाकर राजा ने उसे राज्‍य पर अभिषिक्त कर दिया और भोगों से अतृप्त रहकर ही अपने पुत्र पुरु से कहा- ‘बेटा! तुम्‍हारे-जैसे पुत्र से ही मैं पुत्रवान् हूँ। तुम्‍हीं मेरे वंश-प्रवर्तक पुत्र हो। तुम्‍हारा वंश इस जगत् में पौरव वंश के नाम से विख्‍यात होगा’। वैशम्‍पायनजी कहते हैं- नृपश्रेष्ठ! तदनन्‍तर पुरु का राज्‍याभिषेक करने के पश्‍चात् राजा ययाति ने अपनी पत्नियों के साथ भृगुतुंग पर्वत पर जाकर सत्‍कर्मों का अनुष्ठान करते हुए वहाँ बड़ी तपस्‍या की। इस प्रकार दीर्घकाल व्‍यतीत होने के बाद स्त्रियों सहित निराहार व्रत करके उन्‍होंने स्‍वर्गलोक प्राप्त किया।[3]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत आदि पर्व अध्याय 75 श्लोक 20-40
  2. कहीं-कहीं ध्रुव के स्थान पर 'कृति' नाम भी मिलता है।
  3. 3.0 3.1 महाभारत आदि पर्व अध्याय 75 श्लोक 41-58

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पुरुवंश का वर्णन | पुरुवंश, भरतवंश एवं पाण्डुवंश की परम्परा का वर्णन | महाभिष को ब्रह्माजी का शाप | शापग्रस्त वसुओं के साथ गंगा की बातचीत | प्रतीक का गंगा को पुत्र वधू के रूप में स्वीकार करना | शान्तनु का जन्म एवं राज्याभिषेक | शान्तनु और गंगा का शर्तों के साथ विवाह | वसुओं का जन्म एवं शाप से उद्धार | भीष्म का जन्म | वसिष्ठ द्वारा वसुओं को शाप प्राप्त होने की कथा | शान्तनु के रूप, गुण और सदाचार की प्रशंसा | गंगाजी को सुशिक्षित पुत्र की प्राप्ति | देवव्रत की भीष्म प्रतिज्ञा | सत्यवती के गर्भ से चित्रांगद, विचित्रवीर्य की उत्पत्ति | शान्तनु और चित्रांगद का निधन | विचित्रवीर्य का राज्याभिषेक | भीष्म द्वारा काशीराज की कन्याओं का हरण | भीष्म द्वारा सब राजाओं एवं शाल्व की पराजय | अम्बिका, अम्बालिका के साथ विचित्रवीर्य का विवाह | विचित्रवीर्य का निधन | सत्यवती का भीष्म से राज्य-ग्रहण का आग्रह | भीष्म की सम्मति से सत्यवती द्वारा व्यास का आवाहन | सत्यवती की आज्ञा से व्यास को अम्बिका, अम्बालिका के गर्भ में संतानोत्पादन की स्वीकृति | व्यास द्वारा विचित्रवीर्य के क्षेत्र से धृतराष्ट्र, पाण्डु, विदुर की उत्पत्ति | महर्षि माण्डव्य का शूली पर चढ़ाया जाना | माण्डव्य का धर्मराज को शाप देना | कुरुदेश की सर्वागीण उन्नति का दिग्दर्शन | धृतराष्ट्र का विवाह | कुन्ती को दुर्वासा से मंत्र की प्राप्ति | कुन्ती द्वारा सूर्यदेव का आवाहन एवं कर्ण का जन्म | कर्ण द्वारा इन्द्र को कवच-कुण्डलों का दान | कुन्ती द्वारा स्वयंवर में पाण्डु का वरण एवं विवाह | माद्री के साथ पाण्डु का विवाह | पाण्डु का पत्नियों सहित वन में निवास | विदुर का विवाह | धृतराष्ट्र के गांधारी से सौ पुत्र और एक पुत्री की उत्पत्ति | धृतराष्ट्र को सेवा करने वाली वैश्य जातीय युवती से युयुत्सु की प्राप्ति | दु:शला के जन्म की कथा | धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों की नामावली | पाण्डु द्वारा मृगरूप धारी मुनि का वध | पाण्डु का अनुताप, संन्यास लेने का निश्चय | पाण्डु का पत्नियों के अनुरोध से वानप्रस्थ-आश्रम में प्रवेश | पाण्डु का कुन्ती को पुत्र-प्राप्ति का आदेश | कुन्ती का पाण्डु को भद्रा द्वारा पुत्र-प्राप्ति का कथन | पाण्डु की आज्ञा से कुन्ती का पुत्रोत्पत्ति के लिए धर्मदेवता का आवाहन | युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन की उत्पत्ति | नकुल और सहदेव की उत्पत्ति | पाण्डु पुत्रों का नामकरण संस्कार | पाण्डु की मृत्यु और माद्री का चितारोहण | ऋषियों का कुन्ती और पाण्डवों को लेकर हस्तिनापुर जाना | पाण्डु और माद्री की अस्थियों का दाह-संस्कार | पाण्डवों और धृतराष्ट्र पुत्रों की बालक्रीडाएँ | दुर्योधन का भीम को विष खिलाना | भीम का नागलोक में पहुँच आठ कुण्डों का दिव्य रस पान करना | भीम के न आने से कुन्ती की चिन्ता | नागलोक से भीम का आगमन | कृपाचार्य, द्रोण और अश्वत्थामा की उत्पत्ति | द्रोण को परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की प्राप्ति | द्रोण का द्रुपद से तिरस्कृत हो हस्तिनापुर में आना | द्रोण की राजकुमारों से भेंट | भीष्म का द्रोण को सम्मानपूर्वक रखना | द्रोणाचार्य द्वारा राजकुमारों की शिक्षा | एकलव्य की गुरु-भक्ति | द्रोणाचार्य द्वारा शिष्यों की परीक्षा | अर्जुन द्वारा लक्ष्यवेध | द्रोण का ग्राह से छुटकारा | अर्जुन को ब्रह्मशिर अस्त्र की प्राप्ति | राजकुमारों का रंगभूमि में अस्त्र-कौशल दिखाना | भीम, दुर्योधन और अर्जुन द्वारा अस्त्र-कौशल का प्रदर्शन | कर्ण का रंगभूमि में प्रवेश तथा राज्याभिषेक | भीम द्वारा कर्ण का तिरस्कार और दुर्योधन द्वारा सम्मान | द्रोण का शिष्यों द्वारा द्रुपद पर आक्रमण | अर्जुन का द्रुपद को बंदी बनाकर लाना | द्रोण द्वारा द्रुपद को आधा राज्य देकर मुक्त करना | युधिष्ठिर का युवराज पद पर अभिषेक | पाण्डवों के शौर्य, कीर्ति और बल के विस्तार से धृतराष्ट्र को चिन्ता | कणिक का धृतराष्ट्र को कूटनीति का उपदेश
जतुगृह पर्व
पाण्डवों के प्रति पुरवासियों का अनुराग देखकर दुर्योधन को चिन्ता | दुर्योधन का धृतराष्ट्र से पाण्डवों को वारणावत भेज देने का प्रस्ताव | धृतराष्ट्र के आदेश से पाण्डवों की वारणावत यात्रा | दुर्योधन के आदेश से पुरोचन का वारणावत नगर में लाक्षागृह बनाना | पाण्डवों की वारणावत यात्रा तथा उनको विदुर का गुप्त उपदेश | वारणावत में पाण्डवों का स्वागत | लाक्षागृह में निवास और युधिष्ठिर-भीम की बातचीत | विदुर के भेजे हुए खनक द्वारा लाक्षागृह में सुरंग का निर्माण | लाक्षागृह का दाह | विदुर के भेजे हुए नाविक का पाण्डवों को गंगा के पार उतरना | हस्तिनापुर में पाण्डवों के लिए शोक-प्रकाश | कुन्ती के लिए भीम का जल लाना | माता और भाइयों को भूमि पर सोये देखकर भीम को क्रोध आना
हिडिम्बवध पर्व
हिडिम्ब के भेजने पर हिडिम्बा का पाण्डवों के पास जाना | भीम और हिडिम्बासुर का युद्ध | हिडिम्बा का कुन्ती से अपना मनोभाव प्रकट करना | भीम द्वारा हिडिम्बासुर का वध | युधिष्ठिर का भीम को हिडिम्बा-वध से रोकना | हिडिम्बा का भीम के लिए प्रार्थना करना | भीमसेन और हिडिम्बा का मिलन | घटोत्कच की उत्पत्ति | पाण्डवों को व्यासजी के दर्शन
वकवध पर्व
ब्राह्मण परिवार का कष्ट दूर करने हेतु कुन्ती-भीम की बातचीत | ब्राह्मण के चिन्तापूर्ण उद्गार | ब्राह्मणी का पति से जीवित रहने के लिए अनुरोध करना | ब्राह्मण कन्या के त्याग और विवेकपूर्ण वचन | कुन्ती का ब्राह्मण कन्या के पास जाना | कुन्ती का ब्राह्मण का दुख सुनना | कुन्ती और ब्राह्मण की बातचीत | भीम को वकासुर के पास भेजने का प्रस्ताव | भीम का भोजन लेकर वकासुर के पास जाना | भीम और वकासुर का युद्ध | वकासुर वध से भयभीत राक्षसों का पलायन
चैत्ररथ पर्व
पाण्डवों का एक ब्राह्मण से विचित्र कथाएँ सुनना | द्रोण का द्रुपद द्वारा अपमानित होने का वृत्तांत | द्रुपद के यज्ञ से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म | कुन्ती का पांचाल देश में जाना | व्यासजी का पाण्डवों से द्रौपदी के पूर्वजन्म का वृत्तांत सुनाना | पाण्डवों की पांचाल यात्रा | अर्जुन द्वारा चित्ररथ गन्धर्व की पराजय एवं दोनों की मित्रता | राजा संवरण का सूर्य कन्या तपती पर मोहित होना | तपती और संवरण की बातचीत | वसिष्ठ की मदद से संवरण को तपती की प्राप्ति | गन्धर्व का ब्राह्मण को पुरोहित बनाने के लिए आग्रह करना | वसिष्ठ के अद्भुत क्षमा-बल के आगे विश्वामित्र का पराभव | शक्ति के शाप से कल्माषपाद का राक्षस होना | कल्माषपाद का शाप से उद्धार | वसिष्ठ द्वारा कल्माषपाद को अश्मक नामक पुत्र की प्राप्ति | शक्ति पुत्र पराशर का जन्म | पितरों द्वारा और्व के क्रोध का निवारण | और्व और पितरों की बातचीत | पुलत्स्य आदि महिर्षियों के पराशर द्वारा राक्षस सत्र की समाप्ति | कल्माषपाद को ब्राह्मणी आंगिरसी का शाप | पाण्डवों का धौम्य को पुरोहित बनाना
स्वयंवर पर्व
पाण्डवों की पांचाल-यात्रा में ब्राह्मणों से बातचीत | ब्राह्मणों का द्रुपद की राजधानी में कुम्हार के पास रहना | स्वयंवर सभा का वर्णन एवं धृष्टद्युम्न की घोषणा | धृष्टद्युम्न का स्वयंवर में आये राजाओं का परिचय देना | राजाओं का लक्ष्यवेध के लिए उद्योग और असफल होना | अर्जुन का लक्ष्यवेध करके द्रौपदी को प्राप्त करना | भीम और अर्जुन द्वारा द्रुपद की रक्षा | कृष्ण-बलराम का वार्तालाप | अर्जुन और भीम द्वारा कर्ण एवं शल्य की पराजय | द्रौपदी सहित भीम-अर्जुन का अपने डेरे पर जाना | कुन्ती, अर्जुन और युधिष्ठिर की बातचीत | पाँचों पाण्डवों का द्रौपदी के साथ विवाह | श्रीकृष्ण की पाण्डवों से भेंट | धृष्टद्युम्न का द्रुपद के पास आना | द्रौपदी के विषय में द्रुपद के प्रश्न
वैवाहिक पर्व
धृष्टद्युम्न द्वारा द्रुपद के पास पुरोहित भेजना | पाण्डवों और कुन्ती का द्रुपद द्वारा सम्मान | द्रुपद-युधिष्ठिर की बातचीत एवं व्यासजी का आगमन | द्रौपदी का पाण्डवों से विवाह के संबंध में अपने-अपने विचार | व्यासजी का द्रुपद को द्रौपदी-पाण्डवों के पूर्वजन्म की कथा सुनाना | द्रुपद का द्रौपदी-पाण्डवों के दिव्य रूपों की झाँकी करना | द्रौपदी का पाँचों पाण्डवों के साथ विवाह | कुन्ती का द्रौपदी को उपदेश एवं आशीर्वाद
विदुरागमन राज्यलम्भ पर्व
पाण्डवों के विवाह से दुर्योधन को चिन्ता | धृतराष्ट्र का पाण्डवों के प्रति प्रेम का दिखावा | धृतराष्ट्र-दुर्योधन की बातचीत, शत्रुओं को वश में करने के उपाय | पाण्डवों को पराक्रम से दबाने के लिए कर्ण की सम्मति | भीष्म की दुर्योधन से पाण्डवों को आधा राज्य देने की सलाह | द्रोणाचार्य की पाण्डवों को उपहार भेजने की सम्मति | विदुर की सम्मति, द्रोण-भीष्म के वचनों का समर्थन | धृतराष्ट्र की आज्ञा से विदुर का द्रुपद के पास जाना | पाण्डवों का हस्तिनापुर आना | इन्द्रप्रस्थ नगर का निर्माण | श्रीकृष्ण-बलरामजी का द्वारका प्रस्थान | पाण्डवों के यहाँ नारदजी का आगमन | नारद द्वारा सुन्द-उपसुन्द कथा का प्रस्ताव | सुन्द-उपसुन्द की तपस्या | सुन्द-उपसुन्द द्वारा त्रिलोक विजय | तिलोत्तमा की उत्पत्ति एवं सुन्दोपसुन्द को मोहित करने हेतु प्रस्थान | तिलोत्तमा की वजह से सुन्द-उपसुन्द में लड़ाई | तिलोत्तमा को ब्रह्माजी द्वारा वरदान | पाण्डवों का द्रौपदी के विषय में नियम-निर्धारण
अर्जुन वनवास पर्व
अर्जुन द्वारा गोधन की रक्षा के लिए नियम-भंग | अर्जुन का गंगाद्वार में रुकना एवं उलूपी से मिलन | अर्जुन का मणिपूर में चित्रांगदा से पाणिग्रहण | अर्जुन द्वारा वर्गा अप्सरा का उद्धार | वर्गा की आत्मकथा | अर्जुन का प्रभास तीर्थ में श्रीकृष्ण से मिलना
सुभद्रा हरण पर्व
अर्जुन का सुभद्रा पर आसक्त होना | यादवों की अर्जुन के विरुद्ध युद्ध की तैयारी
हरणा हरण पर्व
अर्जुन और सुभद्रा का विवाह | अर्जुन-सुभद्रा का श्रीकृष्ण के साथ इन्द्रप्रस्थ पहुंचना | द्रौपदी के पुत्र एवं अभिमन्यु के जन्म-संस्कार
खाण्डव दाह पर्व
युधिष्ठिर के राज्य की विशेषता | अग्निदेव का खाण्डववन को जलाना | राजा श्वेतकि की कथा | अर्जुन का अग्निदेव से दिव्य धनुष एवं रथ मांगना | अग्निदेव का अर्जुन और कृष्ण को दिव्य धनुष, चक्र आदि देना | खाण्डववन में जलते हुए प्राणियों की दुर्दशा | देवताओं के साथ श्रीकृष्ण और अर्जुन का युद्ध
मय दर्शन पर्व
खाण्डववन का विनाश और मयासुर की रक्षा | मन्दपाल मुनि द्वारा जरिता-शांर्गिका से पुत्रों की उत्पत्ति | जरिता का अपने बच्चों की रक्षा हेतु विलाप करना | जरिता एवं उसके बच्चों का संवाद | शार्ंगकों के स्तवन से प्रसन्न अग्निदेव का अभय देना | मन्दपाल का अपने बाल-बच्चों से मिलना | इंद्रदेव का श्रीकृष्ण और अर्जुन को वरदान

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