त्रिंशदधिकशततम (130) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: त्रिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 52-66 का हिन्दी अनुवाद
भीष्म जी! ऐसा निश्चय करके मैं अपने प्रिय पुत्र और पत्नी को साथ लेकर पहले के स्नेह और अनुराग के कारण राजा द्रुपद के यहाँ गया। मैंने सुन रखा था कि द्रुपद का राज्यभिषेक हो चुका है, अत: मैं मन-ही-मन अपने को कृतार्थ मानने लगा और बड़ी प्रसन्नता के साथ राज सिंहासन पर बैठे हुए अपने प्रिय सखा के समीप गया। उस समय मुझे द्रुपद की मैत्री और उनकी कही हुई पूर्वोक्त बातों का बारंबार स्मरण हो आता था। तदनन्तर अपने पहले के सखा द्रुपद के पास पहुँचकर मैंने कहा- ‘नरश्रेष्ठ! मुझ अपने मित्र को पहचानो तो सही।’ प्रभो! मैं द्रुपद के पास पहुँचने पर उनसे मित्र की ही भाँति मिला। परंतु द्रुपद ने मुझे नीच मनुष्य के समान समझकर उपहास करते हुए इस प्रकार कहा- ‘ब्राह्मण! तुम्हारी बुद्धि अत्यन्त असंगत एवं अशुद्ध है। तभी तो तुम मुझसे यह कहने की धृष्टता कर रहे हो कि राजन्! मैं तुम्हारा सखा हूं?’ समय के अनुसार मनुष्य ज्यों–ज्यों बूढा़ होता है, त्यों-त्यों उसकी मैत्री भी क्षीण होती चली जाती है। पहले तुम्हारे साथ मेरी जो मित्रता थी, वह सामर्थ्य को लेकर थी- उस समय हम दोनों की शक्ति समान थी (किंतु अब वैसी बात नहीं है)। जो श्रोत्रिय नहीं है, वह श्रोत्रिय (वेदवेत्ता) का, जो रथी नहीं है, वह रथी का सखा नहीं हो सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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