एकोनविंशत्यधिकशततम (119) अध्याय: आदि पर्व (सम्भव पर्व)
महाभारत: आदि पर्व: एकोनविंशत्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 17-32 का हिन्दी अनुवाद
तपस्वी मुनियों! मैं अब तक पितृऋण से मुक्त न हो सका। इस लोक में श्रेष्ठ पुरुष पितृ-ऋण से मुक्त होने के लिये संतानोत्पत्ति का प्रयास करते और स्वयं ही पुत्ररूप में जन्म लेते हैं। जैसे मैं अपने मेरे पिता के क्षेत्र में महर्षि व्यास द्वारा उत्पन्न हुआ हूं, उसी प्रकार मेरे इस क्षेत्र में भी कैसे संतान की उत्पत्ति हो सकती है? ऋषि बोले- धर्मात्मा नरेश! तुम्हें पापरहित देवोपम शुभ संतान होने का योग्य है, यह हम दिव्यदृष्टि से जानते हैं। नरव्याघ्र! भाग्य ने जिसे दे रखा है, उस फल को प्रयत्न द्वारा प्राप्त कीजिये। बुद्धिमान् मनुष्य व्यग्रता छोड़कर बिना क्लेश के ही अभीष्ट फल को प्राप्त कर लेता है। राजन्! आपको उस दृष्ट फल के लिये प्रयत्न करना चाहिये। आप निश्चय ही गुणवान् और हर्षोत्पादक संतान प्राप्त करेंगें। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तपस्वी मुनियों का यह वचन सुनकर राजा पाण्डु बड़े सोच-विचार में पड़ गये। वे जानते थे कि मृगरूपधारी मुनि के शाप से मेरा संतानोत्पादन-विषयक पुरुषार्थ नष्ट हो चुका है। एक दिन वे अपनी यशस्विनी धर्म पत्नी कुन्ती से एकान्त में इस प्रकार बोले- ‘देवि! यह हमारे लिये आपत्तिकाल है, इस समय संतानोत्पादन के लिये जो आवश्यक प्रयत्न हो, उसका तुम समर्थन करो। सम्पूर्ण लोकों में संतान ही धर्ममयी प्रतिष्ठा है- कुन्ती! सदा धर्म का प्रतिपादन करने वाले धीर पुरुष ऐसा मानते हैं। संतानहीन मनुष्य इस लोक में यज्ञ, दान, तप और नियमों का भली-भाँति अनुष्ठान कर ले, तो भी उसके किये हुए सब कर्म पवित्र नहीं कहे जाते। पवित्र मुस्कान वाली कुन्तिभोजकुमारी! इस प्रकार सोच-समझ कर मैं तो यही देख रहा हूँ कि संतानहीन होने के कारण मुझे शुभ लोकों की प्राप्ति नहीं हो सकती। मैं निरन्तर इसी चिन्ता में डूबा रहता हूँ। मेरा मन अपने वश में नहीं, मैं क्रूरतापूर्ण कर्म करने वाला हूँ। भीरू! इसीलिये मृग के शाप से मेरी संतानोत्पादन-शक्ति उसी प्रकार नष्ट हो गयी है, जिस प्रकार मैंने उस मृग का वध करके उसके मैथुन में बाधा डाली थी। पृथे! धर्मशास्त्रों में ये आगे बताये जाने वाले छ: पुत्र ‘बन्धुदायाद’ कहे गये हैं, जो कुटुम्बी होने से सम्पत्ति के उत्तराधिकारी होते हैं; और छ: प्रकार के पुत्र ‘अबन्धुदायाद’ हैं, जो कुटुम्बी न होने पर भी उत्तराधिकारी बताये गये हैं।[1] इन सबका वर्णन मुझसे सुनो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ बंधु शब्द का अर्थ संस्कृत-शब्दार्थ कौस्तुभ में आत्मबंधु, पितृबंधु माना गया है, इसलिए बंधु का अर्थ कुटुम्बी किया है। दायाद का अर्थ उसी कोष में 'उत्तरधिकारी' है। इसीलिए बंधुदायाद का अर्थ 'कुटुम्बी होने से 'उत्तरधिकारी' किया है। इसके विपरीत, अबंधुदायाद का अर्थ अबंधु यानी कुटुम्बी न होने पर उत्तराधिकारी किया है।
संबंधित लेख
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज