महाभारत आदि पर्व अध्याय 166 भाग-5

षट्षष्‍टयधिकशततम (166) अध्‍याय: आदि पर्व (चैत्ररथ पर्व)

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महाभारत: आदि पर्व: षट्षष्‍टयधिकशततम अध्‍याय: भाग-5 का हिन्दी अनुवाद


द्रुपद बोले- बन्‍धुओं! अर्जुन का रुप अद्भुत था। उनका धैर्य आश्‍चर्यजनक था। उनका पराक्रम और उनकी अस्त्र-दीक्षा भी अलौकिक थी। मैं दिन-रात अर्जुन की ही चिन्‍ता में डूबा रहता हूँ। हाय! वे अपने भाईयों और माता के साथ आग में जल गये। संसार में इससे बढ़कर आश्‍चर्य की बात और क्‍या हो सकती है? सच है, काल का उल्‍लंघन करना अत्‍यन्‍त कठिन है। मेरी तो प्रतिज्ञा झूठी हो गयी। अब मैं लोगों से क्‍या कहूंगा। आन्‍तरिक दु:ख से दिन-रात दग्‍ध होता रहता हूँ। मैंने निष्‍पाप याज और उपयाज का सत्‍कार करके उनसे दो संतानों की याचना की थी। एक तो ऐसा पुत्र मांगा, जो द्रोणाचार्य का वध कर सके और दूसरी ऐसी कन्‍या के लिये प्रार्थना की, जो वीर अर्जुन की पटरानी बन सके। मेरे इस उद्देश्‍य को सब लोग जानते हैं और महर्षि याज ने भी यही घोषित किया था। उन्‍होंने पुत्रेष्टि यज्ञ करके धृष्टद्युम्न और कृष्णा को उत्‍पन्‍न किया था। इन दोनों संतानों को पाकर मुझे बड़ा संतोष हुआ। अब क्‍या करुं? कुन्‍ती सहित पाण्‍डव तो नष्‍ट हो गये।

आगन्‍तुक ब्राह्मण कहता है- ऐसा कहकर पांचालराज द्रुपद अत्‍यन्‍त दुखी एवं शोकातुर हो गये। पांचालराज के गुरु बड़े सात्त्विक और विशिष्‍ट विद्वान थे। उन्‍होंने राजा को भारी शोक में डूबा देखकर कहा। गुरु बोले- महाराज! पाण्‍डव लोग बड़े-बूढ़ों के आज्ञा पालन में तत्‍पर रहने वाले तथा धर्मात्‍मा हैं। ऐसे लोग न तो नष्‍ट होते हैं और न पराजित ही होते हैं। नरेश्‍वर! मैंने जिस सत्‍य का साक्षात्‍कार किया है, वह सुनिये। ब्राह्मणों ने तो इस सत्‍य का प्रतिपादन किया ही है, वेद के मन्‍त्रों में भी मैंने इसका श्रवण किया है। पूर्वकाल में इन्‍द्राणी ने बृहस्‍पति जी के मुख से उपश्रुति की महिमा सुनी थी। उत्तरायण की अधिष्‍ठात्री देवी उपश्रुति ने ही अद्दष्‍ट हुए इन्‍द्र का कमलनाल की ग्रन्थि में दर्शन कराया था। महाराज! इसी प्रकार मैंने भी पाण्‍डवों के विषय में उपश्रुति सुन रखी है। वे पाण्‍डव कहीं-न-कहीं अवश्‍य जीवित हैं, इसमें संशय नहीं है। मैंने ऐसे (शुभ) चिह्न देखे हैं, जिनसे सूचित होता है कि पाण्‍डव यहाँ अवश्‍य पधारेंगे।

नरेश्‍वर! वे जिस निमित्‍त से यहाँ आ सकते हैं, वह सुनिये- क्षत्रियों के लिये कन्‍यादान का श्रेष्‍ठ मार्ग स्‍वयंवर बताया गया है। नृपश्रेष्‍ठ! आप सम्‍पूर्ण नगर में स्‍वयंवर की घोषणा करा दें। फिर पाण्‍डव अपनी माता कुन्‍ती के साथ दूर हों, निकट हों अथवा स्‍वर्ग में ही क्‍यों न हों- जहाँ कहीं भी होंगे, स्‍वयंवर का समाचार सुनकर यहाँ अवश्‍य आयेंगे, इसमें संशय नहीं है। अत: राजन्! आप (सर्वत्र) स्‍वयंवर की सूचना करा दें, इसमें विलम्‍ब न करें। आगन्‍तुक ब्राह्मण कहता है- पुरोहित की बात सुनकर पंचालराज को बड़ी प्रसन्‍नता हुई। उन्‍होंने नगर में द्रौपदी का स्‍वयंवर घोषित करा दिया। पौषमास के शुक्‍लपक्ष में शुभ तिथि (एकादशी) को रोहिणी नक्षत्र में वह स्‍वयंवर होगा, जिसके लिये आज से पचहत्तर दिन शेष हैं।

ब्राह्मणी (कुन्‍ती)! देवता, गन्‍धर्व, यक्ष और तपस्‍वी ऋषि भी स्‍वयंवर देखने के लिये अवश्‍य जाते हैं। तुम्‍हारे सभी महात्‍मा पुत्र देखने में परमसुन्‍दर हैं। पंचालराज पुत्री कृष्‍णा इनमें से किसी को अपनी इच्‍छा से पति चुन सकती है अथवा तुम्‍हारे मंझले पुत्र को अपना पति बना सकती है। संसार में विधाता के उत्‍तम विधान को कौन जान सकता है? अत: यदि मेरी बात तुम्‍हें अच्‍छी लगे, तो तुम अपने पुत्रों के साथ पांचाल देश में अवश्‍य जाओ। तपोधने! पंचालदेश में सदा सुभिक्ष रहता है। राजा यज्ञसेन सत्‍यप्रतिज्ञ होने के साथ ही ब्राह्मणों के भक्‍त हैं। वहाँ के नागरिक भी ब्राह्मणों के प्रति श्रद्धा-भक्ति रखने वाले हैं। उस नगर के ब्राह्मण भी अतिथियों के बड़े प्रेमी हैं। वे प्रतिदिन बिना मांगे ही न्‍यौता देंगे। मैं भी अपने इन शिष्‍यों के साथ वहीं जाता हूँ। ब्राह्मणी! यदि ठीक जान पड़े तो चलो। हम सब लोग एक साथ ही वहाँ चले चलेंगे। वैशम्पायन जी कहते हैं- इतना कहकर वे ब्राह्मण चुप हो गये।

इस प्रकार श्रीमहाभारत आदिपर्व के अन्‍तर्गत चैत्ररथ पर्व में द्रौपदीप्रादुर्भावविषयक एक सौ छाछठवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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