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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग मारू [96] सूरदासजी के शब्दों में श्रीराधा कहती हैं- ‘सखी! आज के दिन तब भी अति (सीमा का उल्लंघन) नहीं होती, यदि (ब्रम्हा ने) मेरे अंग-अंग में लाख-लाख नेत्र (दिये) होते; (क्योंकि उससे) मेरे ह्रदय की अभिलाषा (तो आज) पूर्ण हो जाती और वे (नेत्र) भी श्यामसुन्दर की सम्पूर्ण शोभा को देख पाते। (मेरा) चित्त (यों दर्शन का) लालची है, (किंतु) नेत्र रूपी द्वार अत्यन्त सूक्ष्म (छोटे) हैं और कहाँ वह (श्यामसुन्दर की) शोभा अक अगाध समुद्र। अतः जितने रोम शरीर में हैं, उतने नेत्र (तो) उनके साथ दिये होते, (जिससे) उस रूप को काबू में कर लेती, कान (उनके रूप की प्रशंसा) सुन-सुनकर संतप्त होते हैं, वे (भला) रूप कैसे (देख) पावें; (और जो) नेत्र थोड़ा-सा देख पाते हैं, उनके जीभ नहीं हैं; (जो उस रूप को कहें) । (इस प्रकार मेरे) कोई अंग केवल देखकर रह जाते हैं और कोई सुनकर रह जाते हैं। (अर्थात् जो देखते हैं- ) उनको जीभ नहीं हैं और (जो सुनते हैं) वे नेत्र न होने के कारण कहें क्या। सभी (अंग अन्य) अंगों से रहित हैं, एक भी (पूर्ण) सुशोभित नहीं है; जब सुनते-देखते हैं, तब कहने को आतुर होते हैं। वर्णन वाणी करती है, सुनते कान हैं और देखते नेत्र हैं। सभी इस पार्थक्य को समझकर निराश हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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