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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग जैतश्री [214] सूरदासजी की शब्दों में एक गोपी कह रही ह-(सखी!) मेरे नेत्र प्रत्यक्ष ही (श्यामसुन्दर के) दास हो गये। जिसने इन्हें (इतना) बड़ा किया, उसका (मेरा) कुछ भी उपकार नहीं मानते। यदि रोकती हूँ तो ‘यह बात अच्छी नहीं’ कहकर हँसते हैं, तनिक भी लज्जा नहीं करते। फूले (गर्विष्ठ) हुए सबको सुनाते घूमते हैं और इतने पर भी डरते नहीं। यह भी (मैंने) कहा कि ‘हमको मत छोड़ो, तुम्हारे बिना शरीर व्याकुल रहता है।’ यह बात सुनते ही गोपाल के गुणों पर लुब्धे हुए (वे) रुष्ट हो उठे। श्यामसुन्दर ने (अपने) मुकुट के झुकाव, भौंहों के चलाने, कपोलों पर पड़ती हुई कुण्डल की आभा और मन्द मुसकराहट के बदले (द्वारा) नेत्रों को मोल ले लिया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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