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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सारंग [137] सूरदासजी के शब्दों में एक गोपी कह रही है— सखी! मेरे नेत्रों से निद्रा रात-दिन के लिये चली गयी, प्रत्येक पल छाती में धड़कन लगी रहती है। सखी! उधर मोहन के मुख से वंशी बजती है और इधर (उसे) सुनकर घर-घर होनी वाली अपकीर्ति का स्मरण ही नहीं रहता। (मेरी) ननद तो गाली दिये बिना रहती नहीं, सास स्वप्न में भी अनुकूल नहीं होती तथा निगोड़ी माता अपने कानों में मेरे पैरों का खटका (मैं कहीं जाती तो नहीं, यह आहट) लिये रहती है (जिससे बिना हुई आहट भी उसे सुनायी देती रहती है) । (मैं घर से) निकल भी नहीं पाती, अतः श्यामसुन्दर को न देख पाने के दुःख किससे कहूँ। स्वामी – (श्यामसुन्दर-) के बिना मेरे शरीर की ऐसी दशा (परवशता) हो रही है, जैसे पत्थर के नीचे दबा हाथ हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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