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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग रामकली [55] सूरदासजी के शब्दों में एक गोपी कह रही है— (सखी!) (श्याम के साथ) एक ही गाँव में निवास है, फिर (मैं उनसे बिना मिले) कैसे धैर्य धारण करूँ? यद्यपि मैं (बहुत) प्रयत्न करती हूँ, फिर भी ये मेरे नेत्र रूपी भौंरे कोई रुकावट मानते ही नहीं। वे नित्यप्रति (प्रतिदिन) इसी रास्ते से आते हैं और मैं दही लेकर (बेचने भी इसी राह से) निकलती हूँ, (उस समय) मेरा प्रत्येक रोम (उन्हें देखकर) पुलकित और स्वर गद्गद हो जाता है तथा आनन्द की उमंग से (मैं) भर जाती हूँ, (यदि उनसे मिलने में) एक पल का (भी) अन्तर पड़ जाता है तो वह एक महाकल्प के समान जान पड़ता है, जिससे मैं वियोग की अग्नि में जलने लगती हूँ। (फिर कहिये) कुल की मर्यादा के संकोच और आर्य-पथ- (श्रेष्ठ शास्त्रीय नियमों— ) के भय से (मैं) कहाँ तक डरा करूँ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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