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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग जैतश्री[227] सूरदासजी के शब्दों में कोई गोपी कह रही ह-(सखी! मैंने) इन – (नेत्र-) की सेवा व्यर्थ की; ये हमारे लिये ऐसे दुःख देने वाले हो गये कि (मैं) इसी चिन्ता में मरी जाती हूँ। (मैं) इन्हें घूँघट की आड़ रूपी महल में पलकों का किवाड़ बंद करके रखती हूँ और जो-जो ये कहते हैं, वही हम करती हैं। हमारे हृदय में (इनसे कोई) भेद नहीं है। (किंतु) अब इनका नटखटपन हमने पा (जान) लिया, जिसे ये पेट में (मन में) छिपाये रहते थे। सुनो, ये नेत्र (तो) ठग हैं; इनके जो भी गुण थे, वे ही (अब) प्रकट हो गये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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