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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग जैतश्री [10] श्रीहरि गोप कुमारों के साथ दही-मक्खन खा रहे हैं, सभी पत्तों के दोने ले-लेकर और (एक पत्ते बने) छोटे दोनों को उमंग पूर्वक मुख में (रखकर उनका दही सिखरन, खीर आदि) सुड़क रहे हैं। हर्ष में भरी व्रज नारियाँ (अपनी-अपनी) मटकियों से ले-लेकर दही परस रही हैं और श्रीवनमाली उसे आरोग रहे हैं; यह आनन्द तीनों लोकों में कहीं नहीं है। गोपियाँ (ब्राम्हण-पत्नियाँ) अपने को धन्य कह (मान) रही हैं और उन दूध, दही और मक्खन की भी बड़ाई कर रही हैं, जिन्हें कन्हैया लेकर अपने मुख में रख रहे हैं। (यह देखकर) सब (परस्पर) बातें कर रही हैं कि ‘हम अपने मन में जिस सुख की लालसा करती थीं, वह हमने भली प्रकार पा लिया।’ सूरदासजी कहते हैं कि उन सभी के चित्त में आनन्द है और (वे) श्यामसुन्दर पर तन-मन न्योछावर कर रही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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