[33]
ग्वालिनी प्रगट्यों पूरन नेहु ।
दधि भाजन सिर पै धरें कहति गोपाल लेहु ॥ 1 ॥
बाट घाट निज पुर गली, जहाँ तहाँ हरि नाउँ ।
समझाएँ समझै नहीं, (वाहि) सिख दै बिथक्यौ गाउँ ॥ 2 ॥
कौन सुनै, कासौं कहौं, काकै सुरत सँकोच ।
काकौं डर पथ अपथ कौ, को उत्तम, को पोच ॥ 3 ॥
पान किऐं जस बारुनी, मुख झलकति तन न सम्हार ।
पग डगमग जित तित धरै, बिथुरीं अलक लिलार ॥ 4 ॥
दीपक ज्यौं मंदिर बरै, बाहिर लखै न कोइ ।
तृन परसत प्रजुलित भयौ, गुप्त कौन बिधि होइ ॥ 5 ॥
लज्जा तरल तरंगिनी, गुरुजन गहरी धार ।
दोउ कुल कूल परमिति नहीं, (ताहि) तरत न लागी बार ॥ 6 ॥
सरिता निकट तड़ाग कें, दीनौ कूल बिदारि ।
नाम मिट्यौ सरिता भई, कौन निवेरै बारि ॥ 7 ॥
बिधि भाजन ओछौ रच्यौ, लीला सिंधु अपार ।
उलटि मगन तामैं भयौ, (अब) कौन निकासनहार ॥ 8 ॥
चित आकरष्यौ नंद कें मुरली मधुर बजाइ ।
जिहिं लज्जा जग लाजयौ (सो) लज्जा गई लजाइ ॥ 9 ॥
प्रेम मगन ग्वालिन भई सूरदास प्रभु संग ।
स्रवन नयन मुख नासिका (ज्यौं) कंचुकि तजत भुजंग ॥ 10 ॥