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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सारंग [241] सूरदासजी के शब्दों में कोई गोपी कह रही ह-(सखी! मेरे) नेत्र इस ढंग के हो (ही) गये हैं, मैं करूँ तो क्या। (यदि जाना ही था तो) फिर किसलिये आये थे और मैंने (इन्हें) बुलाया ही कब था। अबतक (मैं) इस आशा में थी कि ये आकर मिलेंगे; (किंतु) ये तो कुछ फेरे-से डालकर लौट गये, जैसे मैं (कोई) परायी स्त्री हूँ। (ये) लोभ से भरे छल पूर्ण स्नेह दिखाते दौड़े आते हैं, तनिक-सा (मोहन का) रूप चुराकर मैंने ह्रदय में छिपाकर रखा था, उसी को ये लेने आये ह-ऐसे ये दुःख देने वाले हैं; भाई! (यह सच है कि) बड़े लोग मारे हुए (दुर्बल) – को ही मारते हैं। ये दिनोंदिन अधिकाधिक धृष्टता करते जाते हैं; अतः चलो! स्वामी के सामने जाकर (इनकी सब बातें) कहें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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