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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग मारू [178] सूरदासजी के शब्दों में एक गोपी कह रही ह-(सखी!) यह अन्तर (मुझमें और नेत्रों में) मन ने उत्पन्न किया है, दूसरे किसी ने नहीं। उस – (मन— ) ने पहले ही जाकर श्यामसुन्दर से साँठ-गाँठ कर ली, भला बिना काम वे किससे बात करेंगे। (फिर) दूसरी बार आकर (यह मन) सब इन्द्रियों को ले गया, ऐसी सब कुचालें इसी ने कीं। मैंने समझा था कि नेत्र (तो) मेरा साथ देंगे; (किंतु) इनको भी ले जाकर (इसने) श्याम के हाथ में दे दिया। जो कुछ किया है, वह सब मन ही करता है; इसमें श्यामसुन्दर का कुछ भी दोष नहीं है। हमारे स्वामी ने तो नेत्रों को मोल लेकर अपने वश कर लिया है और (अब) स्वयं उन्हीं में बैठे (समाये) रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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