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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग कान्हरौ [157] (कोई गोपी कह रही ह-सखी!) दोनों (श्यामसुन्दर और श्रीराधा) अहंकार – (होड़-) में पड़े दिखायी देते हैं— उधर तो श्याम का सौन्दर्य और इधर इन – (श्रीराध-) के नेत्र, मानो दो उत्तम वीर अड़ गये हों। इधर इन – (श्रीराध-) ने मनोहर सुन्दर दृष्टि और प्रेम की महान् आनन्द को एक कर रखा है और उधर उन – (श्याम-) ने अनेक प्रकार के आभूषणों को अंग-अंग में सजाकर धनुष ले व्यूह बना लिया है। ये (श्रीराधा) इस गाढ़ युद्ध में क्रोध मानती ही नहीं, प्रेम-पलकों का गिरना रूपी तरकस इनका खाली हो चुका है (पलकें गिरतीं नहीं), सारे अंगों में रोमांच रूपी बाण चुभ गये हैं; भुजाएँ पीड़ा को गिनती ही नहीं हैं। वे शोभामय हैं और ये अनुरागमयी हैं। सूरदासजी कहते ह-(अतः) दोनों सजे हैं और प्रत्येक क्षण भले प्रकार बढ़ते ही जाते हैं, मानो (ये) अमृत के भरे समुद्र हैं और उमड़कर बह चलना चाहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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