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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग बिलावल[274] सूरदासजी के शब्दों में एक गोपी कह रही ह-(सखी!) जो अपना ही स्वार्थ देखता है, उसके होने से क्या लाभ! नेत्रों ने (इससे) अपनी ही निन्दा करायी है; जो (भी) यह (उनके स्वार्थीपन की बात) सुनता है, वही (उन्हें) धिक्कार देता है, (उनकी) तुरंत ही ऐसी बड़ाई (व्यंग में अपकीर्ति) हुई। अपने सुख के लिये इन्हें (और अधिक) क्या चाहिये था; परंतु इन्होंने तो यही भलाई (अपनी स्वार्थपरता ही) सीखी है। अब भी कोई जाकर उनसे कह-‘तुमने किसलिये लज्जा खो दी?’ (दूसरी गोपी कहती है है— ) ‘सखी! तुम (भी) आश्चर्य की बात कहती हो! तुम्हारे साथ भी (वे) ऐसी चतुरता चलते हैं? सुनो! जो (हमसे) भागकर (विरहानल में जलने से) बच गये हैं, उन्हीं को अब (तुम पुनः जलने को लौटाना) चाहती हो!’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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