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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग बिलावल[302] सूरदासजी के शब्दों में एक गोपी कह रही ह-सखी! (मेरे) नेत्र आकर मुझसे झगड़ा करते हैं और दौड़कर (मेरी साड़ी का) कोना पकड़ते (और कहते) हैं कि ‘श्याम की शपथ, चल!’ मैं तो आश्चर्य में पड़कर ठगी-सी (विमूढ़) रह जाती हूँ, कुछ कहते नहीं बनता; स्वयं तो जाकर (मोहन से) मिले ही रहते हैं, अब मुझे (भी) बुलाते हैं। (वहाँ जाने से लाभ क्या?) जाने पर यदि वे दर्शन देते (तो जाना उचित भी था); वहाँ तो अपनी छाया (प्रतिबिम्ब) दिखायी पड़ती है। (वे) दूसरे कुछ हैं ही नहीं, सखी! (यही) उनकी माया है। सखी! इन कपटियों के ये ढंग हैं, नेत्र भी श्यामसुन्दर की ही भाँति हैं। यह अच्छी जोड़ी मिली है; जैसे ये (नेत्र) हैं (उन्हें) वैसे ही (श्यामसुन्दर) मिल गये हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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