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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग गुंडमलार [187] व्रज की गोपियाँ (श्यामसुन्दर के) प्रेम में व्याकुल होकर (परस्पर) यह कहती ह-‘नेत्र तो हमारे कहने में नहीं हैं। बार-बार समझाकर कितना ही रोक रखती हूँ; फिर भी (ये) श्याम के साथ चले ही गये, रोकने से रुके नहीं। जैसे पक्षी व्याध के फंदे से छूटने पर उड़ चलता है, फिर त्रास मान (डरकर) वहाँ (उधर) देखता – (तक) नहीं और जाकर वन के वृक्षों में छिप जाता है, वैसे ही जाकर (ये मेरे नेत्र भी) श्यामसुन्दर के अंग-सौन्दर्य रूपी वन में प्रविष्ट हो गये। पालकर तो (इनको) हमने बड़ा किया; पर हो गये आज उनके; श्यामसुन्दर ने अब उनको मोल लिया है।’ सूरदासजी कहते हैं— इस प्रकार (गोपियों के) नेत्र तो (मोहन) ले ही गये, अब मन के लिये (भी वे) पश्चात्ताप करती हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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