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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सारंग [91] सूरदासजी के शब्दों में एक गोपी कह रही ह-(सखी!) श्याम के साथ (मेरी) पहचान कैसी। प्रत्येक पल (उनका) न वह रूप रहता है न वह शोभा रहती है (क्षण-क्षण वे नवीन होते रहते हैं); अतः मन में सोच-समझकर (उनसे तू) प्रीति करना। (मैं) मन-बुद्धि के साथ चित्त को एकाकार करके निरन्तर रात-दिन एकटक (देखती) रहती हूँ; किंतु एक क्षण के लिये भी (उनके) शोभा की सीमा ह्रदय में नहीं ला पाती हूँ। (यद्यपि) प्रत्यक्ष ही देखती हूँ, फिर भी वह आनन्द (रूप) सम्पत्ति की खान समझ में (ही) नहीं आती (कि कितनी है) । सखी! यह वियोग है या संयोग अथवा समता, सुख है या दुःख, लाभ है या हानि (नहीं जान पाती) । नेत्रों का तो (देखने का) ऐसा स्वभाव हो गया है कि उनकी रूचि वैसे ही नहीं मिटती जैसे घी का हवन करने से अग्नि नहीं बुझती। यहाँ तो ये (नेत्र दर्शन के) लोभी हैं और वहाँ वे रूप की सर्वश्रेष्ठ निधि हैं; दोनों में कोई (भी) अपनी सीमा मानकर रहता नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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