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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सारंग [109] सूरदासजी के शब्दों में श्रीराधा कह रही ह-(सखी!) यह सब दोष मैंने ही किया, नेत्र भरकर श्यामसुन्दर के रूप को देखते-देखते उनके मोहित करने वाले फंदे में पड़ गयी। (मेरी) सुकुमार किशोरावस्था और (उस पर) विवेक रहित हूँ, (अतः उनके प्रति) ललचाने में डरी नहीं। अब (तो वह) छबि ह्रदय में प्रविष्ट हो गयी है, हटाने से भी हटती नहीं! (वह) चन्द्रमुख सम्मुख रहने पर अत्यन्त सुख और (वियोग न हो जाय-इसका) दुःख, अकुलाहट और व्याकुलता होती है; बुद्धि, विचार, बल तथा वाणी असमर्थ हो जाती है और आनन्द की उमंग पूर्ण हो जाती है। सुनो! यद्यपि शील के साथ मैं अपने शरीर से (उनकी ओर) चली नहीं; फिर भी (उनके) मुख पर वंशी को देखकर उलटे कामदेव से जल गयी (शील ने मुझे शान्ति नहीं दी)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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