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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सोरठ[253] सूरदासजी के शब्दों में कोई गोपी कह रही ह-(सखी! मेरे) नेत्रों की यह टेव (बान) पड़ गयी है। जैसे कमलकोष में भ्रमर की भ्रमरी लुब्ध हो जाती है, (अथवा) जैसे चातक स्वाती-जल के लिये रट लगाये रहता है, (बस) वैसी ही हठ इन्होंने भी पकड़ ली है। एक क्षण के लिये भी पलकों को नहीं गिराते, अपनी दशा ही (इन्हें) भूल गयी है। जैसे (कुलटा) स्त्री पराये पुरुष का सेवन करती है और उसी के प्रेम के अनुकूल रहती है; लोक – (की लज्जा), वेद – (की मर्यादा) और आर्य-पथ – (श्रेष्ठ पुरुषों के मार्ग-) का स्मरण भूलकर कुमार्ग से भी डरती नहीं। जैसे सर्पिणी केंचुल छोड़कर फिर उस मार्ग से नहीं लौटती, उसी प्रकार इन नेत्रों को पता नहीं कौन-सा स्वभाव पड़ गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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