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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग बिहागरौ[245] सूरदासजी के शब्दों में कोई गोपी कह रही ह-(सखी! मेरे) नेत्र लोभ से हटते ही नहीं। श्यामसुन्दर रूपी दीपक पर (उसे) चन्द्रमा समझकर मुग्ध हुए ये पतंग के समान जल रहे (संतप्त हो रहे) हैं। जैसे भौंरा केतकी पुष्प के वश में पड़ने पर वहाँ से नहीं निकल पाता, (अथवा) जैसे लोभी व्यक्ति लालच नहीं छोड़ता, (वैसे ही) ये भी अत्यन्त उमंग में भरे हैं। (स्वर पर मुग्ध) मृग के समान (श्यामसुन्दर के) सम्मुख ही रहते हैं। कठोर दुःख सहते हैं, डरते नहीं। वे (मोहन तो) धोखा देते हैं, यह सब जानते हुए भी (ये) सदा चित्त से (उनसे) प्रेम (ही) करते हैं। जैसे जीवित रहते पतिंगा प्रेम वश बार-बार घूमकर (दीपक पर) गिरता और मूर्च्छित होकर अन्त में मर जाता है, जैसे मछली चोर के लोभ से कँटिया निगल जाती है और वह उसके गले में फँस जाती है, (अथवा) जैसे उत्तम योधा (तब तक) युद्ध नहीं छोड़ता, जबतक (वह) पृथ्वी पर (घायल होकर) गिर नहीं जाता। उसी प्रकार ये (नेत्र) श्यामसुन्दर की शोभा पर लुब्ध हो जीते-जी वहीं भिड़े (लगे) रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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