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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सोरठ[293] सूरदासजी के शब्दों में कोई गोपी कह रही ह-(सखि!) मेरे नेत्र ही दोष पूर्ण हैं, नटनागर परम सुन्दर नन्दनन्दन को देखते हुए खड़े (स्थिर ही) रहते हैं। वे पलक रूपी किवाड़ तोड़कर निकल गये, घूँघट की ओट (रूकावट भी) मानी नहीं। मैं ‘हाय-हाय’ करके उनके पैरों पड़ते-पड़ते थक गयी, पर मुझे (उन्होंने) तनिक भी नहीं पहचाना। मेरे प्रति ये (नेत्र) ऐसे बने रहते हैं, जैसे मार्ग चलने वाले लोग हों। वे (पथिक) भी तो पूछने पर बोलते हैं; पर इन (नेत्रों) – में तो यह (और भी) निष्ठुरता है। सखी! ये अब मेरे नहीं होंगे; क्योंकि श्याम की शोभा देखकर ये बिगड़ गये हैं। सुनो, संसार में ऐसे (कृतघ्न) लोगों को भी सृष्टिकर्ता ने ही अपने हाथों उत्पन्न किया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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