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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग गौरी [45] सूरदासजी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है— ‘सखी!) मैं क्या करूँ? मन मेरे वश में नहीं है। तू मुझसे बात तो यह अच्छी कहती है, (किंतु) अपना (अपने समान समझकर) चित्त मुझे नहीं देती (जिससे तेरे ये उपदेश सुन-समझ सकूँ) । (क्या करूँ, मेरे) नेत्र (श्यामसुन्दर के) रूप में फँस गये, (वे वहाँ से) लौटते नहीं और कान उनकी बात (वाणी) सुनकर वहीं रह गये। सब इन्द्रियाँ दौड़कर उनसे मिल गयीं और जीव भी उनमें तन्मय (निमग्न) होकर उनके साथ ही (वहाँ) रह गया। (अब) मेरे साथ इनमें से कोई-सा (भी) नहीं है, एक घड़ा मट्ठा लिये मैं ही (मेरा शरीर ही) अकेली बची हूँ, (ये) सब तो सूरदास के श्यामसुन्दर के साथ से कहीं हटते ही नहीं; (बड़ी कृपा हो) याद तू ही (इन्हें) लाकर मुझे दे दे।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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