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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग जैतश्री [173] सूरदासजी की शब्दों में एक गोपी कह रही ह-(सखी! मेरे) नेत्र (तो) श्यामसुन्दर के (सौन्दर्य रूपी) अमृत के आनन्द में पड़ गये हैं। ये जिस रस पर लुब्ध हुए हैं, उसी पर शंकरजी, सनकादि ऋषिगण, ब्रम्हाजी तथा देवर्षि नारदजी लुब्ध रहते हैं। (वे) ऐसे आनन्द का अनेक प्रकार से उपभोग करते हैं, (स्वयं तो) उसका आस्वादन करते ही हैं, दूसरों को भी कराते हैं तथा गिराते भी हैं। सखी! सुन-भला, वैसी सम्पति छोड़कर वे तुम्हरी ओर क्यों देखने लगे। जिन्होंने उस अमृत-पान का आनन्द लिया है, वे दुःख कैसे देख (सह) सकते हैं। इसी प्रकार ये नेत्र भी गर्विष्ठ हो गये हैं, अब हमारी परवा वे क्यों करने लगे। क्यों व्यर्थ चिन्ता करके मरी जाती हो; (समझ लो कि) नेत्र तुम्हारे नहीं हैं, वे (तो) हमारे स्वामी से जा मिले, अब इधर-उधर कहीं जायँगे नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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