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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग कान्हरौ[248] सूरदासजी के शब्दों में एक गोपी कह रही ह-(सखी!) ये (मेरे) नेत्र (कुछ) हुई-गयी (वस्तु स्थिति) जानते ही नहीं। ये बार-बार (श्यामसुन्दर के समीप) जाते हैं, पर उनकी शोभा ले नहीं पाते; (और इस प्रकार) हार जाने पर भी पराजय नहीं मानते। इनसे जाकर पूछो तो कि ‘तुम रात-दिन (श्यामसुन्दर के साथ) रहते हो, पर (उनके) (स्व) रूप को तनिक भी पहचानते हो?’ सखी! सुनो, इतने (पूछने)— पर (ये) क्रोध करते हैं और हमारे ऊपर ही भौंहैं चढ़ाते हैं। लोग झूठ ही कहते हैं कि ‘श्यामसुन्दर का शरीर सुन्दर हैं; वे गढ़-गढ़कर बातें बनाते हैं।’ सुनो, उस शोभा की तो अत्यन्त अगम्य गति है (वहाँ तक किसी की पहुँच नहीं); वेद भी (उसे) ‘नेति-नेति’ (अन्त नहीं, अन्त नहीं) कहकर (उसका) गान (वर्णन) करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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