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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग गौरी [72] सूरदासजी के शब्दों में श्रीराधा अन्य गोपियों से कह रही हैं— तुमने (मोहन को) देखा है, (यह) मुझे विश्वास ही नहीं होता। मैंने तो अपने मन में यही बात सच्ची मान ली और (यही मैं) समझती (भी) हूँ कि मेरे समान ही (तुम) सबकी भी (वही) दशा है। यदि सचमुच तुमने उनके सभी अंगों- (पूरे रूप— ) को देखा है तो तुम धन्य हो, धन्य हो; (अपने) मुख से मैं तुम्हारी स्तुति गाती हूँ। मैंने तो जैसे ही उनका एक अंग देखा, वैसे ही मेरे दोनों नेत्रों में जल भर आया (अनुरागाश्रु उमड़ पड़े) । उनके कुण्डलों की कान्ति जो कपोलों पर प्रतिबिम्बित हो रही थी, बस, इतना ही देखकर मैं तो बिक गयी (उनकी दासी हो गयी) । मेरे दोनों नेत्र (अश्रुओं से) रूँध गये; (फिर भी) एकटक देखती (ही) रही, (परंतु) श्यामसुन्दर को पहचान न सकी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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