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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सारंग[231] सूरदासजी के शब्दों में कोई गोपी कह रही ह-(सखी! मेरे) नेत्र तो देखकर अबतक नहीं लौटे। वे श्यामसुन्दर के मुख रूपी कमल-कोष के रस के (ऐसे) लोभी हो गये, मानो भौंरे (कमल-) मधु से मतवाले (मूर्छित) होकर गिर पड़े हों। पलकों ने (अंजन लगाने की) शलाका की पीड़ा सही है, (फिर भी वे) दोनों रात-दिन (इस भाँति) अड़े ही रहते हैं, मानो काले (सर्प) केंचुल छोड़कर (और उससे) पृथक् हो बिल में चले गये हों। (अथवा) जैसे पर्वत-मार्ग से नदी प्रेम से पुलकित होकर पसीने की बूँदें टपकाती हो, उसी प्रकार बूँद-बूँद होकर (ये नेत्र) स्वामी से (जा) मिले; नहीं जानतीं कि (उस शोभा-सिन्धु के) किस घाट ये तरे (डूबे) । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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