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अनुराग पदावली -सूरदास
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सोरठ [204] सूरदासजी शब्दों में कोई गोपी कह रही ह-(सखी! हमारे) नेत्र (तो) अत्यन्त लोभ से भर गये हैं; जहाँ-तहाँ (सर्वत्र) बैठते, चलते तथा खड़े (सभी दशाओं में श्यामसुन्दर के) साथ-ही-साथ रहते हैं। (ये नेत्र) किसी का विश्वास नहीं करते, सभी को चोर समझते हैं; श्यामसुन्दर भोलेपन से इनके ऐसे वश हो गये हैं कि (उनके) अक्षय मूल्य का सौन्दर्य (ये) लूटते रहते हैं (और वे कुछ नहीं कहते) । (मैं तो इनको) बड़ा भाग्यवान् (ऐश्वर्यशाली) समझती थी, (परंतु) इनसे (अधिक) कृपण (तो) दूसरा है ही नहीं। ऐसे सम्पत्ति पाकर भी (इन्होंने) नाम (यश) नहीं कमाया; (अन्ततः) कहाँ तक लेंगे और (उसे रखने को इनके पास) स्थान (भी) कहाँ है। (इनको चाहिये था) स्वयं (उस रूप-रस को) लेते; दूसरे को भी देते और संसार में सुयश लेते। (किंतु) हमारे स्वामी ने इनका ही विश्वास किया, (अतः) बार-बार कौन कहे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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